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Reading: एक ‘आतंकवादी’ के गांव में…
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BeyondHeadlines > Lead > एक ‘आतंकवादी’ के गांव में…
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एक ‘आतंकवादी’ के गांव में…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published February 7, 2014 1 View
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11 Min Read
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Pravin Kumar Singh for BeyondHeadlines

दिल्ली से चण्डीगढ़ होकर जब मैं श्रीनगर पहुंचा तो मेरे मन में अनिश्चितता का भय और आशंका बनी हुई थी. श्रीनगर के बस अड्डे पर साथी मो. सादिक के गर्म जोशीपूर्ण स्वागत से वह भय लगभग काफूर हो गया.

आगे सोपोर जाने के लिए बस में सवार हुआ. बस स्टैण्ड से चलने के बाद जहां सवारी दिखती, वहीं बस रूक जाती. बस फुल हो गई, फिर भी लोग एक दूसरे को धकियाते हुए चढ़ते रहें. भीड़ से तंग आकर लोग ड्राईवर और कन्डेक्टर को बुरा भला कहते. ये उनका रोज़ का काम था. हाल यूपी या बिहार के बसों जैसा ही था. कोई डेढ़ घण्टें के धक्कम-धुक्का के बाद मैं सोपोर पहुंचा. आगे अभी जागीर तक जाना था. जागीर पहुंचनें के लिए मैंने सवारी ऑटो पकड़ा.

जागीर गांव के बाहर आर्मी की बटालियन है, जो 90 के दशक में स्थापित हुई थी. पास ही खेल का मैदान था, जहां बच्चें क्रिकेट खेल रहे थे. कुछ गांव के और बाकी आस-पास के थे. बच्चों से बात करने पर क्रिकेट के प्रति उनकी दीवानगी अन्य भारतीय बच्चों जैसी ही दिखी. किसी बच्चें को धोनी अच्छा लगता है तो कोई  सचिन तेंदुलकर का फैन है. सबके मन में क्रिकेट का सुपर स्टार बनने का ख्वाब है. पर हर बच्चा धोनी या तेन्दुलकर नहीं बनेंगा, यह भी उन्हें पता है.

श्रीनगर से 53 किमी दूर जागीर गांव में आज भी जालिम नदी वैसे ही बहती है जैसे पहले बहती थी, नदी के कल-कल छल-छल की मधुरता में कोई कमी नहीं है. सुबह से ही यहां लोग प्रतिदिन अपने रोजमर्रा के काम में पहले जैसे ही रम जाते है. यहां जीवन हमेशा की तरह ढर्रे पर चल रहा है, फिर भी शमा में कुछ बदला-बदला सा नज़र आता है. आप को बता दूं कि जागीर अफ़ज़ल गुरू का गांव है…

जागीर गांव एक औसत कश्मीरी गांव जैसा ही है. आबादी कोई एक हजार के करीब, पर गांव का इतिहास बहुत पुराना नहीं है. बुजुर्गों के साथ बात करने पर पता चला कि 1930 के आस-पास यह गांव आबाद हुआ. पहले यहां लोग नावों में रहते थे और नाव से माल (लकड़ी) ढ़ोते थे. यहीं उनका मुख्य व्यवसाय था. अब लोग खेती-बाड़ी और अन्य धन्धों में भी शामिल हैं.

गांव का नाम जागीर कैसे पड़ा? ये पूछने पर गांव में बन रहे सरकारी स्कूल में मजदूरी कर रहे एक बुजुर्ग व्यक्ति ने बताया- ‘‘सन् 40 के दशक में राजा हरि सिंह ने अपने रिश्तेदार पण्डित बेल्दर डोगरा को गांव जागीर में दिया था. तभी से गांव का नाम जागीर पड़ा. तब हम जो खेती करते थे उसका चौथाई हमें मिलता था और बाकी तीन हिस्सा जागीरदार ले लेता था.’’

आजादी के बाद शेख अब्दुल्ला की सरकार ने क्रान्तिकारी भूमिसुधार कार्यक्रम को लागू करके किसानों को सामंती जकड़ से मुक्त कर दिया. इसीलिए बुजुर्ग आज भी शेख साहब को सम्मान से याद करते है.

अफ़ज़ल गुरू का घर...
अफ़ज़ल गुरू का घर…

दोपहर में हम अफ़ज़ल गुरू के घर पहुंचें. घर में बस औरतें और बच्चें ही थे. अफ़ज़ल का भाई मजदूरी करने बाहर गया हुआ था.

मेरे साथ गये मो. सादिक घर के अन्दर जाकर महिलाओं को कश्मीरी में बताया कि मैं उनसे बात करना चाहता हूं. आशंकित औरतें मुझसे बात करने के लिए तैयार नहीं दिखी. कहती रहीं ‘‘क्या बात करना है? खुदा के लिए हमें अपने हाल पर छोड़ दीजिये. जो होना था सो हो गया.’’

अफ़ज़ल गुरू का घर पुराना है. घर की चारदीवारी टीन की है. इस घर को अफ़ज़ल के पिता हबीबुल्ला गुरू ने लगभग 32 साल पहले बनवाया था. अफ़ज़ल के माता पिता को मरे काफी अर्सा हो गया है. अफ़ज़ल के तीन भाई थे. एक भाई बहुत पहले गुज़र गये. दूसरा भाई एजाज़ बारामूला में लकड़ी का छोटा-मोटा व्यापार करता है. तीसरा भाई, हेलाल, मजदूरी करता है.

अफजल गुरू की पत्नी तबस्सुम तहसील मुख्यालय सोपोर के ‘सोपोर नर्सिंग होम’ में नौकरी करती है और वहीं रहती है. बेटा गालिब 7वीं कक्षा में पढ़ता है.

अफ़ज़ल गुरू के घर के साथ एक छोटी सी परचून की दुकान है. दुकानदार से अफ़ज़ल गुरू के बारे में बात करने पर उसके चेहरे पर भय साफ दिखाई दिया. वो कुछ भी बोलने के लिए तैयार नहीं हुआ.

अफ़ज़ल के घर के ठीक सामने जालिम नदी बहती है. चार-पांच मकान छोड़ नदी के किनारे 62 वर्षीय अब्दुल रहमान बैठे हुए थे. जिनके साथ नेसार गुरू और अन्य तीन लोग आपस में बातचीत करते दिखे. उन्होंने सादिक और मुझे चाय पीने का दावत दिया और अपने मेहमानखाने में ले गये…

बिस्कुट के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए तमाम चीजों पर चर्चा शुरू हुई. अब्दुल रहमान पहले लकड़ी का व्यवसाय करते थे. इनके दो लड़के है शब्बीर और हसीब… दोनो डाक्टर हैं. एक लड़की है, बीएससी तक पढ़ने के बाद उसकी शादी हो गई है. मुस्कुराकर उसने कहा- ‘‘अब लड़के कमाने लगे तो आराम कर रहा हूं.’’

अब्दुल रहमान बताते है कि अब यहां शान्ति है. लोगों में यहां शिक्षा के प्रति जागरूकता है. सभी बच्चें स्कूल जाते हैं. गांव में एक सरकारी स्कूल और आर्मी द्वारा संचालित एक दूसरा स्कूल है. इसके अलावा यहां के बच्चें प्राईवेट स्कूलों में सोपोर और बारामूला भी पढ़ने जाते है. शिक्षा का ही असर है कि इस छोटे से गांव के 5 लड़के डाक्टर बन गये हैं.

अफ़ज़ल गुरू के बारे में बात करने पर नेसार कहते हैं कि वो मेरे साथ का था. पढ़ने में बचपन से ही होशियार था, इसीलिए दाखिला डाक्टरी में हो गया था. लेकिन 90 के दशक में हालत ऐसे बने कि वो अलगावादी गुट में शामिल हो गया. उसके साथ गांव के 6 लड़के भी अलगाववादी बन गये. मेरा छोटा भाई रफीक भी उनके साथ था.

अफ़ज़ल को थोड़े दिनों में ही दहशतगर्दी का रास्ता ठीक नहीं लगा, सो उसने आत्मसर्मपण कर दिया. उसके साथ के लड़कों ने भी आत्मसर्मपण किया. मेरा भाई भी उनमे शामिल था. अब वो फल का छोटा मोटा व्यापार करता है और सुकून से रहता है.

अफजल आत्मसर्मपण के बाद दवा वगैरह का व्यापार करने लगा. उसकी शादी हो गई. एक लड़का है गालिब. नेसार गुरू कहते है  ‘‘अफ़ज़ल गालिब का फैन था. वो संगीत एवं अदब में भी काफी दिलचस्पी रखता था.’’

अब्दुल रहमान आसमान छूते चिनार की ओर देखते हुए कहते है – ‘‘उसे फांसी देने में हुकूमत ने इतनी जल्दबाजी क्यों की? और बहुतों को उससे पहले मौत की सजा मिल चुकी थी, पर फांसी नहीं हुई है. फिर लाश तो दे देनी चाहिये थी. घर वालो को मिट्टी देने का मौका भी नहीं मिला.’’

कश्मीर के हालात पर बात करते हुए नेसार अहमद बताते है कि पहले आतंकवादी काण्ड करके चले जाते थे. फिर पुलिस और आर्मी बेगुनाहों को परेशान करती थी. मसलन, अब्दुल रहमान के बेटे डाक्टर शब्बीर को, जब वो 16 वर्ष का था, जम्मू में फोर्स ने आतंकवादी बताकर पकड़ लिया और टार्चर किया. ‘‘बताईयें, एैसे में कोई इंसान क्या करेगा?’’ गांव में हमारी कई लोगों से बात हुई. सभी अफजल के लिए अफसोस करते दिखे.

सोपोर से जागीर सिर्फ चार किमी दूर है. पहले इसे छोटा लन्दन कहा जाता था. यहां सेव के बाग बहुत पहले लगने शुरू हो गये थे. जिससे लोगों को अच्छी खासी आमदनी होने लगी और लोगों का जीवन स्तर भी बेहतर हुआ. यहां एशिया स्तर की फल मंडी है, जिसे ‘एपल टाउन’ कहते है.

हम अफजल गुरू की पत्नी तबस्सुम से नहीं मिल पाये क्योंकि उस वक्त वो सोपोर से बाहर अपने रिश्तेदारों से मिलने गई हुई थी.

सोपोर में इकबाल मार्केट के नुक्कड़ के खोखे में एक बुक स्टाल है. जिसके मालिक गुलाम मोहम्मद बट पत्रकारिता से भी जुड़े हुए हैं और स्थानीय अंग्रेजी अखबार में आंचलिक पत्रकार है. दुकान 20 साल पुरानी है और अब इसकी देख-रेख उनका बेटा करता है. यहां लगभग अंग्रेजी अखबार की 3 हजार और उर्दू अखबार की साढ़ें तीन हजार प्रतिया रोज बिकती हैं. स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं के अलावा दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकायें भी आती है. अंग्रेजी का अखबार ‘हिन्दू’ की मांग सबसे अधिक है.

गुलाम बट कहते है कि अब यहां शान्ति है. वो मुझसे सवाल करते है कि आप को कुछ असामान्य दिखता है? ‘वादी-ए-कश्मीर’ में अपनी पैनी निगाह डालने और ‘एक्सक्लूसिव’ रिपोर्ट बनाने के मक़सद से यहां आने के बावजूद मुझें कुछ असामान्य नज़र नहीं आया. जम्मू से श्रीनगर आते समय बातों ही बातों में एक व्यक्ति ने कहा था कि ‘सोपोर’ एक अलग दुनिया है़. लेकिन मुझे यहां कुछ भी अलग नहीं दिखा.

कश्मीर में एक खास बात देखी. वह थी बच्चों और नौजवानों में शिक्षा की ललक… यहां के लोगों की समझ है कि शिक्षा से ही उनका मुस्तकबिल संवर सकता है. कश्मीर की खूबसूरत वादियों को पीछे छोड़ दिल्ली की आपाधापी की ओर लौटते हुए मैं सोच रहा था, कि अगर कोई कड़ी जो देश के दूसरे हिस्सों से कश्मीर के रिश्तों को मज़बूत कर सकती है, वो है नौजवानों में तालीम का ये फैलता सैलाब… और इसकी एक झलक मैंने अफजल गुरू के गांव में भी देखी…

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