जनता से गद्दारी है, पहाड़ बेचने की तैयारी है!

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Indresh Maikhuri for BeyondHeadlines

मुख्यमंत्री हरीश रावत के नेतृत्व में उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने फैसला लिया है कि पहाड़ में ज़मीन खरीदने पर कृषि भूमि का लैंड यूज स्वतः ही बदल जाएगा. इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि ज़मीन का लैंड यूज बदलवाने में महीनों-सालों लग जाते हैं, इसलिए निवेशकों को इससे दिक्क्त होती थी.

पहली बात तो यह कि कौन निवेशक हैं, जो सिर्फ लैंड यूज न बदलवा पाने की वजह से भाग गया? कर्णप्रयाग के पास कालेश्वर में तो वर्षों-वर्षों से प्लाट खाली पड़े हैं पर कोई उद्योग नहीं लगा. भीमताल में सब्सिडी डकार कर यही तथाकथित निवेशक चम्पत हो चुके हैं.

पहाड़ में थोड़ी बहुत तो कृषि भूमि बची है. सरकारी उपेक्षा के चलते पर्वतीय कृषि निरंतर नुक्सान में गयी है. धीरे-धीरे बन्दर, सूअरों, जडाऊ आदि द्वारा फसल नष्ट किये जाने और प्रोत्साहन के अभाव में लोग खेती छोड़ रहे हैं.

होना तो यह चाहिए था कि पर्वतीय कृषि को लाभकारी बनाने के उपाय किये जाते. अनिवार्य चकबंदी, भूमि सुधार जैसे उपाय किये जाते. भूमि यदि किसी को मिलनी चाहिए तो पहाड़ के दलित और अन्य भूमि हीनों को मिलनी चाहिए थी. लेकिन पर्वतीय कृषि की बेहतरी की नीति बनाने के बजाय हरीश रावत एंड कंपनी पहाड़ की रही-सही भूमि को भी कौड़ियों के मोल बड़ी पूंजी और ज़मीन के माफियाओं के हाथ सौंपना चाहती हैं.

उद्योग लगाने की ही मंशा होती तो प्राथमिकता कृषि भूमि का लैंड यूज बदलना नहीं होती, बल्कि कैसे और कौन से उद्योग पहाड़ के अनुकूल होंगी, यह तलाशने की कोशिश की जाती. उसमें पहाड़ के युवाओं के लिए रोज़गार सुनिश्चित करने के लिए नीति बनती.

लेकिन चूंकि मैदानी इलाकों -देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर की ज़मीन तो भू माफियों, बिल्डरों, उद्योगपतियों द्वारा लगभग खाए-पचाए जाने के कगार पर है. इसलिए अपनों को पर्वत पुत्र कहलाने की आकांक्षा रखने वाले हरीश रावत ने इनके निमित्त पहाड़ की ज़मीनें सौंपने का बंदोबस्त किया है. उद्योग लगाने की ही मंशा हो तो उसके लिए कृषि भूमि बेचने का इंतजाम करना कोई अनिवार्य शर्त तो है नहीं, वो बंजर ज़मीन पर भी लग सकते हैं.

तो क्या इसी टाईप के होंगे वो कड़े फैसले, जिनकी बात हरीश रावत ने उपचुनाव जीतने के तुरंत बाद कही थी ?

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