Rahisuddin ‘Rihan’ for BeyondHeadlines
दीपक शर्मा जी ने आजतक पर दिल्ली पुलिस का असली चेहरा बेनकाब किया. दिल्ली के कई थानों में रिपोर्टर ने ख़ाकी को खुफ़िया कैमरे में कैद करने के लिए रुपये भी लुटाए. दिल्ली के बॉर्डर एरियाओं तक ख़ाकी का टेस्ट परखा गया. टेस्ट कहीं निगेटिव निकला तो ज्यादातर जगह पॉजिटिव आया. स्टिंग को ऑन एयर करने से पहले (और बाद तक) हर बार की तरह (लेकिन आज कुछ ज्यादा ही) पुण्य प्रसून वाजपेयी मंद-मद मुस्कुराते नज़र आएं.
स्टिंग चलने लगा… ख़ाकी बेनकाब होना शुरु हो गई… वाजेपेयी जी की मुस्कुराहट और दोगुनी हुई… वाजपेयी ख़ाकी के दामन पर लगे दागों को एक-एक कर दिखाते रहे और सवाल दागते रहें…
कुछ ऐसा ही नज़ारा आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के एक दो-दिन बाद आजतक पर दिखाए गए स्टिंग ‘ऑपरेशन केजरीवाल’ के समय दिखा. केजरीवाल की सरकार बनी. सत्ता की कुर्सी वही रही, पर बैठने वाले बदले… अफ़सर बदले… कर्मचारी बदले. अफ़सर-कर्मचारियों के दिलों में केजरीवाल और उसके आम आदमी का डर बैठा.
डर को टटोलने के लिए आजतक फिर सरकारी विभागों में घूमा… दौड़ा… और कर्मचारी-अफ़सरों के दिलों का एक्स-रे किया कि उनके दिलों में केजरीवाल का डर बैठा या नहीं. हर बार की तरह कुछ पास हुए तो कुछ फेल.
इस बीच फाईलों के फाड़े जाने की बात भी सामने आई (जो स्टिंग में दिखी). स्टिंग ऑन एयर हुआ. केजरीवाल ने स्टिंग देखा. तुरंत अफ़सरों-कर्मचारी को सस्पेंड किया (जो जाय़ज था). मनीष सिसोदिया को तुरंत लाईव पर लिया गया… सिसोदिया ने आजतक को बधाई दी… साथ में अपनी प्रतिक्रिया भी दी और फिर हर बार की तरह एक लंबी डिबेट….
दोनों स्टिंगों के बीच एक समानता नज़र आती है. वो है मुद्दे की… यानि सब्जेक्ट की… दोनों ही सब्जेक्ट में प्रत्यक्ष न, परोक्ष ही सही…’आप’ दिखी है. पहले स्टिंग में, केजरीवाल के गद्दी संभालने के बाद उनके डर को नापने के लिए स्टिंग किया गया. स्टिंग ऑन एयर हुआ और तुरंत बाद केजरीवाल द्वारा भ्रष्टों को कैमरें पर सस्पेंड करने की लाईव घोषणा की गई…
परिणामस्वरुप आजतक ने तो अपनी पीठ थपथपाई ही लेकिन उससे कहीं ज्यादा क्रेडिट केजरीवाल सरकार को मिला. तब पुण्य प्रसून वाजपेयी के अलावा आईबीएन-7 वाले आशुतोष ने भी केजरीवाल सरकार और उसके फैसले का गुणगान किया और मौका लगते ही ख़ास से आम बन गए. ख़ास से आम बनने के बाद मालूम हुआ कि आशुतोष का आप के प्रति गुणगान करना नमक हलाली था
आज के स्टिंग की पृष्ठभूमि में भी कहीं न कहीं ‘आप’ ही शामिल है. क्योंकि पिछले दिनों जब सोमनाथ भारती और दिल्ली पुलिस के बीच विवाद जन्मा तो केजरीवाल ने पुलिस के ख़िलाफ कार्रवाई को लेकर राष्ट्रपति भवन के पास अनशन किया था. केजरीवाल ने देश की जनता को अनशन में शामिल होने के लिए आह्वान किया. हज़ारों की संख्या में आप समर्थक अनशन में शामिल हुए. सुबह से दोपहर हुई… दोपहर से शाम और शाम से रात… ठंड और कोहरे के बीच केजरीवाल को कवर करने के लिए मीडिया का तांता लगा रहा. पर रात के समय कोई भी केजरीवाल को न दिखा सका.
तभी प्रसून वाजपेयी ने अनशन से आजतक का अपना 10 बजे वाला कार्यक्रम लाईव ऑन एयर किया. मीडिया का जमावड़ा लगातार आप समर्थकों को तो अपने कैमरों पर चमका रहा था, लेकिन कोई भी केजरीवाल को न दिखा पा रहा था. तब प्रसून ने अपनी मंद-मंद मुस्कान के बीच उस तरफ का रुख़ किया जिधर केजरीवाल अपनी नीले रंग की वेगनआर कार के पास सड़क किनारे रजाई-गद्दे डाले सो रहे थे.
हालांकि आप समर्थकों ने शुरुआत में वाजपेयी जी को भी केजरीवाल के पास जाने से रोका, लेकिन वाजपेयी जी की मंद-मंद मुस्कान ने न जाने ऐसा कौन सा जादू किया कि आप समर्थक पीछे हटते गए और वाजपेयी आगे केजरीवाल की तरफ बढ़ते गए.
वाजपेयी ने रजाई में से आधा चेहरा निकले केजरीवाल को, कैमरा-पर्सन को इशारा देते हुए कैमरे में कैद करवाया और फिर अरविंद केजरीवाल की तारीफों के पुल बांधते हुए समर्थकों के झुंड से बाहर निकले…. और फिर क्या था… वाजपेयी जी के लगातार केंद्र सरकार से सवाल पे सवाल और केजरीवाल सरकार की प्रशंसा का पेड़ उगना शुरु…
पिछले दिनों फेसबुक पर आप की कोर टीम के साथ पुण्य प्रसून वाजपेयी की एक तस्वीर नज़र आई. तस्वीर में वाजपेयी भी उसी अंदाज में दिखाई दिये, जिस अंदाज में कुछ समय पहले आशुतोष नज़र आयें थे…
अब सारे समीकरणों का ठीक से विश्लेषण किया जाए तो वाजपेयी के ख़ास से आम बनने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. वरना अपने बाणरुपी सवालों को छोड़ने वाले दोनों दिग्गज पत्रकार आप पार्टी को यूं ही हल्के में न बख्शते… और न ही आजतक केजरीवाल का गुणगान करता क्योंकि आजतक का नाम किसी पार्टी विशेष से जोड़ा जाता रहा है.
अगर वाजपेयी भी आप में शामिल होते हैं तो ‘आप’ को आम आदमी पार्टी कम पत्रकार पार्टी कहना ज्यादा उचित लगेगा. क्योंकि मनीष सिसोदिया, शाज़िया इल्मी, राखी बिड़ला और आशुतोष समेत कई पत्रकार पार्टी में है. अब एक सवाल और है कि पत्रकारों का इस तरह से पत्रकारिता छोड़ राजनीति में जाना, पत्रकारिता का हाशिये पर चले जाना है या फिर राजनीतिक लालसा…?