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BeyondHeadlines > Lead > आईसीएचआर के अध्यक्ष का ‘इतिहास बोध’
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आईसीएचआर के अध्यक्ष का ‘इतिहास बोध’

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published August 26, 2014 1 View
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14 Min Read
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Anil Yadav for BeyondHeadlines

नयी सरकार आने के बाद अकादमी क्षेत्र में सबसे त्वरित और केन्द्रित हमला इतिहास पर हुआ है. क्योंकि शासक और विजेता इतिहास को तलवार-बंदूक से अधिक कारगर हथियार मानते हैं. किसी भी समाज की मानसिकता बदल देने में इतिहास की बहुत बड़ी भूमिका होती है, इसलिए हर शासक अपने अनुकूल इतिहास लिखवाने की कोशिश करता है. मोदी सरकार ने रणनीति के तहत इसकी शुरूआत कर दी है.

भारत में इतिहास अनुसंधान और इतिहास लेखन की सर्वोच्च संस्था भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) के चेयरमैन वाई. सुदर्शन राव की नियुक्ति इस रणनीति का पहला क़दम है. कालकाटिया विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रमुख रहे सुदर्शन राव ने 2007 में लिखे गये एक लेख- ‘इण्डियन कास्ट सिस्टमः अ रीअप्रेजल’ के कारण विवाद में रहे.

इस लेख में उन्होंने लिखा है कि ‘‘जाति व्यवस्था प्राचीन काल में बहुत अच्छे ढंग से कार्य कर रही थी और हमें किसी भी पक्ष से शिकायत नहीं मिलती. इस व्यवस्था को अक्सर शोषक सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है, जिसके ज़रिये सत्ताधारी वर्ग ने आर्थिक-सामाजिक आधिपत्य बनाया है. लेकिन वह गलत धारणा है.’’

इतिहास लेखन की वैज्ञानिकता और वस्तुनिष्ठता प्रदान करने के उद्देश्य से 1972 में स्थापित आईसीएचआर के चेयरमैन नियुक्त होने के बाद वाई. सुदर्शन राव ने अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक को एक साक्षात्कार दिया, (21 जुलाई अंक में) जिसमें इतिहास के प्रति उनकी सोच और विचारधारा प्रस्तुत होती है. इस लेख में आउटलुक को दिये साक्षात्कार के सारांश को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है-

‘भारतीय परिदृश्य’ में इतिहास-लेखन

वाई. सुदर्शन राव का मानना है कि इतिहास का लेखन ‘भारतीय परिदृश्य’ में होना चाहिए. अब तक का इतिहास-लेखन वामपंथ और पाश्चात् विद्वानों द्वारा किया गया है, जो कि भ्रामक है. वस्तुतः किसी भी देश का इतिहास दुनिया के इतिहास का एक हिस्सा होता है.

इतिहास को मुल्क की सीमा रेखाओं में कैद करना मुश्किल ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढि़यों के लिए घातक भी होता है. पिछले छः दशकों में इतिहास ने एक विषय के रूप में उल्लेखनीय प्रगति की है, खास करके ‘विवादित या भ्रामक इतिहास’ का सही चेहरा उजागर हुआ है.

सीड्स ऑफ पीस अन्तर्राष्ट्रीय शिविर जैसी संस्था का उदय हुआ है ताकि आने वाली पीढि़यां ‘सही इतिहास’ को जान सकें. इसी तर्ज पर भारत और पाकिस्तान के युवा इतिहासकारों ने ‘द हिस्ट्री प्रोजेक्ट’ नाम से एक संस्था बनायी है जिसका काम है भारत और पाकिस्तान के परस्पर विरोधी इतिहास लेखन को उजागर करना. ताकि इसे पढ़कर लोगों के भीतर एक प्रक्रिया शुरू हो और कथित रूप से स्थापित किये उन तथ्यों पर संदेह करना शुरू करें, जो उन्हें भ्रामक लगते हैं. परन्तु आईसीएचआर के निदेशक महोदय ने इतिहास को सीमाओं में कैद कर लेने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया है.

इतिहास लेखन को लेकर दक्षिणपंथी विचारधारा की चिंता नयी नहीं है. पूर्व मानव संसाधन मंत्री रहे डा. मुरली मनोहर जोशी ने 30 दिसम्बर 2001 में ‘द हिन्दू’ में लिखा कि ‘‘इस देश को दो प्रकार के आतंकवाद का सामना करना पड़ रहा है. एक है ‘बौद्धिक आतंकवाद’ जो देश में धीमें जहर की तरह फैला हुआ है, जो वामपंथी इतिहासकारों द्वारा ‘भारतीय इतिहास के ग़लत प्रस्तुतीकरण’ की वजह से स्थापित हुआ है और वह सरहद पार आतंकवाद से कहीं ज्यादा घातक है.’’

वस्तुतः इतिहास के सबसे करीब पहुँचने वाले इतिहासकार के ऊपर वामपंथ का ठप्पा लगाकर दक्षिणपंथी और ‘राष्ट्रवादी’ लोग इतिहास बोध को दबा देना चाहते हैं, ताकि जिस ‘राष्ट्रवाद’ की आग में वे अपनी रोटियां सेंक रहे हैं, उस पर सवाल न खड़ा हो सके.

इतिहास का पुर्नलेखन

इतिहास के पुर्नलेखन पर पूछे गये एक सवाल के उत्तर में सुदर्शन राव ने कहा कि ‘वह सत्य के फालोवर हैं.’ और ‘सत्य’ सामने आना चाहिए. राव साहब के इस जवाब से स्पष्ट है कि ‘सत्य’ के नाम पर एक बार फिर से ‘इतिहास का भगवाकरण’ किया जायेगा. वह पूरी प्रक्रिया हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के कलेवर में हमारे सामने आयेगी.

नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से अपनी 385‘भारत विजय रैलियों’ में राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया. वह जर्मन राष्ट्रवाद ‘मेरा राष्ट्र सही या गलत परन्तु सबसे अच्छा’ से रत्ती भर कम नहीं है. परन्तु इतिहास के लिए यह बेहद घातक होगा, जैसा कि एरिक हॉब्सबॉम ने सटीक सुझाया है कि राष्ट्रवाद इतिहास के लिए अफीम जैसा है.

वस्तुतः इतिहास लेखन फिर से साम्प्रदायिक इतिहास लेखन की तरफ मुड़ रहा है. जेम्स मिल द्वारा ‘इतिहास विभाजन’ के औचित्य को सुदर्शन राव जी सही साबित करना चाहते हैं कि प्राचीन भारत (हिन्दूकाल) में भारतीय सभ्यता का स्वर्णिम काल था और मध्यकालीन भारत (मुस्लिम काल) राष्ट्र और सभ्यता के विघटन और विध्वंस का काल था.

दक्षिणपंथी विचारधारा इसकी प्रबल समर्थक रही है तभी तो देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसद में 9 जून को अभिभाषण में कहा कि ‘‘कुछ बातों में बारह सौ सालों की गुलामी हमें परेशान करती है.’’ वह 1200 वर्षों की गुलामी आखिर किस तरफ इशारा करती है?

गौरतलब है कि यह धारणा यह स्थापित करती है कि 711 ई0 में सिंधु पर अरबों का आक्रमण और उसके बाद ‘तुर्की शासन’ की स्थापना भारत के लिए गुलामी थी. अब इतिहास पुर्नलेखन के नाम पर फिर से राष्ट्रनायक और खलनायको को परिभाषित किया जायेगा.

ऐतिहासिक स्रोत बनाम ‘कलेक्टिव मेमोरी’

प्राचीन इतिहास लेखन में राव के अनुसार अब ‘कलेक्टिव मेमोरी’ को प्राथमिकता दी जायेगी. इतिहास के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों को ताख पर रखकर अब किंवदंतियों और गाथाओं को आधार माना जायेगा.

एक तरफ इतिहास पुरानी घटनाओं, वस्तुओं की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए कई वैज्ञानिक उपकरणों व प्रक्रियाओं से लैस हुआ है, वही दूसरी तरफ भारत के इतिहास शोध के सर्वोच्च संस्थान के चेयरमैन ‘कलेक्टिव मेमोरी’ की बात कर रहे हैं.

वस्तुतः ‘कलेक्टिव मेमोरी’ और कुछ नहीं, बल्कि बहुसंख्यकवाद की एक अभिव्यक्ति होगी जो यह स्थापित करने में सफल होगी कि राजा दशरथ के बाद ‘शब्दभेदी बाण’ दिल्ली के अंतिम ‘हिन्दू शासक’ हेमू और पृथ्वीराज चैहान चलाते थे. साथ ही साथ वह भी प्रमाणित कर देगी कि मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज ने ‘शब्दभेदी बाण’ से मार गिराया था.

यह सत्य कि इतिहास लेखन में गाथाओं और किवदंतियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है, परन्तु जिस ‘कलेक्टिव मेमोरी’ की बात सुदर्शन राव जी कर रहे हैं वह हिन्दुत्व का महिमा मंडन ही है. जिस तरह से ‘जनभावनाओं की संतुष्टि’ के नाम फांसी की सजा सुनाया जा रहा है, उसकी तरफ अब ‘कलेक्टिव मेमोरी’ के नाम पर इतिहास को दफन करने की कोशिश की जायेगी.

प्राचीन इतिहास और ‘महाभारत प्रोजेक्ट’

सुदर्शन राव जी ‘महाभारत प्रोजेक्ट’ नाम एक शोध कार्य किया है और उनका मानना है कि महाभारत और रामायण दोनों सत्य घटनाओं पर आधारित हैं. इसके लिए बकायदा तिथि निर्धारण का भी कार्य किया जा रहा है. इन दोनों महाकाव्यों को लेकर एक इतिहासकार के सामने मुख्यतः दो समस्या होती है- पहला इनकी महाकाव्यों की पवित्रता और दूसरा आस्था और इतिहास में फर्क न कर पाना.

प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर का मानना है कि ‘‘आज इतिहास को आस्था पर नहीं, बल्कि गहन अन्वेषण पर आधारित होना होगा.’’ परन्तु क्या हम सुदर्शन राव से आस्था से इतर सोचने की उम्मीद कर सकते हैं, जिन्होंने अपने साक्षात्कार में अपने आप को सिर्फ हिन्दू ही नहीं कहा बल्कि यह भी जोड़ा कि वे ब्राह्मण भी हैं.

प्रायः कहा जाता है कि भारतीयों में इतिहासबोध बिल्कुल नहीं होता. वस्तुतः इतिहास बदलावो का एक दस्तावेज़ है, परन्तु भारतीय इतिहास में वाई. सुदर्शन राव सरीखे व्यक्तियों की भरमार रही है जो प्रतिगामी रहे हैं और समाज को स्थिर बनाये रखने में यकीन रखते हैं. रामायण या महाभारत जैसे महाकाव्य समाज को समझने का एक स्रोत हो सकता है. परन्तु आंख बंद करके यह मान लेना कि महाभारत या रामायण के सारे पात्र ऐतिहासिक हैं, गलत ही नहीं बल्कि घातक है.

रोमिला थापर का मानना है, ‘‘यदि आपने तय कर लिया है कि वह राम है जिसने धर्म की स्थापना की थी, तब आपको सिद्ध करना पड़ेगा कि वह बुद्ध, ईसा और मोहम्मद साहब की तरह ही ऐतिहासिक रूप से अस्तित्व में था.

‘महाभारत प्रोजेक्ट’ वस्तुतः यही साबित करना चाहता है ताकि धर्म के आधार पर ही ‘भारतीय गुलामी’ को परिभाषित करते हुए मुसलमानो और ईसाइयों को बाहरी साबित किया जा सके. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो पहले ही घोषित कर रखा है कि भारत हिन्दूओं के लिए ‘सुरक्षित स्थान’ होगा, आखिर इसे कोई तर्क चाहिए ना.

राम की अयोध्या

अयोध्या पर पूछे गये एक सवाल के जवाब में सुदर्शन राव जी ने कहा कि यदि राम का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ तो कहां हुआ? वस्तुतः सुदर्शन राव जी इतिहास के ज़रिये अयोध्या को राम की जन्मभूमि बनाने की क़वायद में जुड़ जायेगें और भारतीय जनता पार्टी के घोषणा-पत्र में शामिल राम मंदिर मुद्दा का संवैधानिक हल निकालकर मंदिर निर्माण के सपने को हकीकत में बदलने की पुरजोर कोशिश करेंगे.

प्राचीन काल में छुआछूत नहीं थी

प्राचीन काल का महिमा मण्डन करने वाले सुदर्शन राव ने स्पष्ट कहा है कि प्राचीन काल में छुआछूत अस्तित्व में नहीं थी. 2007 में लिखे अपने लेख में भी ‘जाति-प्रथा’ को भारतीय संस्कृति का सकारात्मक पक्ष मानते हुए लिखा है कि प्राचीन काल की जाति व्यवस्था में किसी भी वर्ग को किसी से शिकायत नहीं थी.

यदि सुदर्शन राव के द्वारा जारी ‘कलेक्टिव मेमोरी’ को सही माना जाये तो कई सवाल इसके तथ्य को आईना दिखाने के लिए खड़े हो जाते हैं. जैसे- यदि महाभारत अथवा रामायण के समय छुआछूत नहीं थी तो लक्ष्मण ने शबरी का बेर क्यों नहीं खाया? तपस्वी रहते हुए भी राम ने शंबूक की हत्या क्यों की? एकलव्य से निर्लज्जतापूर्वक अंगूठा कैसे और क्यों मांगा गया?

गौरतलब है कि अपनी अतीत ग्रस्तता के वजह से सुदर्शन जी इन सारी गाथाओं को नज़रअंदाज कर दिये होगें. अतीत ग्रस्तता एक सहज प्रवृत्ति है. मुख्यतः असहाय बने अकर्मण्य लोगों की. दक्षिणपंथी विचारधारा यहीं मार खा जाती है.

जब वह ‘स्वर्णिम काल’ की बात करती है और जब सवाल वर्णव्यवस्था या जातिवाद पर उठ जाता है तो सारा इतिहास बोध पारलौकिकता और नियतिवाद में तब्दील हो जाता है. जातिभेद के सवाल पर अपने साक्षात्कार में वाई. सुदर्शन ने कहा कि विश्वामित्र ने दलित के घर कुत्ते का मांस खाया था. सुदर्शन राव साहब इसके ज़रिये यह दिखाना चाहते हैं कि दलित कुत्ता खाता था, परन्तु क्या उनमें यह हिम्मत है कि आर्यों के गो-मांस खाने के प्रमाणिक तथ्यों को वह स्वीकार करेगें?

इतिहास बनाम धर्म

इतिहास साक्ष्यों पर आधारित होता है वही धर्म आस्था का विषय है. परन्तु सुदर्शन राव साहब ने सिर्फ आस्थावान व्यक्ति ही नहीं बल्कि असहिष्णु भी है. तभी तो सनातन धर्म की बड़ाई करते-करते राव साहब यहां तक दावा कर दिया है कि सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म है.

साथ ही साथ इस्लाम को विध्वंसक धर्म बताया है कि मध्यकाल में किस तरह से उन्होंने मंदिरो को नुक़सान पहुंचाया. इतिहासबोध की इतनी छिछली जानकारी रखने वाले राव साहब को पता होना चाहिए कि तुर्कों से पहले भी भारत में हिन्दू शासको ने एक दूसरे के मंदिरों को तोड़ा था, क्योंकि मंदिर शासक की प्रतिष्ठा हुआ करते थे. अतः यह कहना कि सिर्फ मुसलमानों ने मंदिर तोड़े यह बचकाना बात है. मध्य काल में मंदिरो का तोड़ा जाना मुख्यतः आर्थिक कारण था न कि धार्मिक कारण.

खैर 1972 में स्थापित आईसीएचआर के पहले चेयरमैन प्रो. रामशरण शर्मा के साथ इरफान हबीब, सव्यसाची भट्टाचार्य के ‘इतिहासबोध’ को दोराहे पर खड़ा कर दिया गया है. क्योंकि सुदर्शन राव ने इतिहास की धारा को ‘इतिहास जो है’ से ‘इतिहास जो हो सकता है’ की तरफ मोड़ने का प्रयास किया है.

फिलहाल समाज और सरकारों को नहीं भूलना चाहिए कि यदि हम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलायेगें तो आने वाला भविष्य हम पर तोप से गोले दागेगा.

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