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लोगों के संघर्ष को आवाज़ दे रहा रेडियो संघर्ष

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published August 29, 2014
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11 Min Read
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Avinash Kumar chanchal for BeyondHeadlines

तेंदू पत्ता के बोनस के लिए विरेन्द्र सिंह ने वन विभाग के लगभग सभी अधिकारियों के यहां आवेदन दिया, लेकिन उनके आवेदन पर कोई सुनवाई नहीं की गयी. अंत में उन्होंने अपनी समस्या ‘रेडियो संघर्ष’ पर रिकॉर्ड करवा कर मदद की अपील की.

नतीजा हुआ कि उनके गांव के लोगों को साल 2012-13 के बकाये तेंदू पत्ता बोनस का भुगतान वन विभाग के अधिकारियों को करना पड़ा. विरेन्द्र सिंह मध्य प्रदेश के एक गांव अमिलिया के निवासी हैं.

इसी तरह सिंगरौली जिले में बुधेर गांव की रहने वाली अनिता कुशवाहा को अपने विभाजित ज़मीन की रसीद और कागजात नहीं मिले हैं. अनिता ने रेडियो संघर्ष में फोन करके शिकायत दर्ज कराया है. उसने अपने गांव के पटवारी का नाम और मोबाईल नंबर भी रिकॉर्ड कराया. साथ ही, रेडियो संघर्ष के लोगों से अपील किया है कि वे इस मामले में उसकी मदद करें.

विरेन्द्र सिंह और अनिता एक उदाहरण भर हैं. ऐसे हजारों लोग जो शहरों और राजधानियों से दूर जंगलों और देहातों में रह रहे हैं की आवाज़ है रेडियो संघर्ष… एक ऐसा माध्यम जो लोगों की समस्याओं को दुनिया के सामने लाने का काम कर रहा है.

भ्रष्टाचार, पानी, बिजली, बीपीएल में गड़बड़ी से लेकर जंगल पर अपने अधिकार तक गांव के लोग अपनी हर समस्या को रेडियो संघर्ष के माध्यम से दर्ज करवा रहे हैं. रेडियो संघर्ष को गांवों में आम आदमी की समस्याओं को उठाने वाले उपकरण के रुप में लोकप्रियता मिल रही है. इसका उद्देश्य स्थानीय प्रशासन, नीति-निर्धारक तथा गांव वालों के बीच एक सेतु की तरह काम करना है.

रेडियो संघर्ष मध्य प्रदेश के इलाके में चलने वाला मोबाईल कम्यूनिटि रेडियो है. तकनीक और जनसरोकार का एक सफल प्रयोग. जिस समय में ग्रामीण भारत की चिंताओं को मुख्यधारा की मीडिया से बाहर कर दिया गया है रेडियो संघर्ष जैसे प्रयोग हजारों आदिवासियों और जंगलवासियों की आवाज़ बनकर मध्यप्रदेश और आसपास के इलाकों में खूब लोकप्रिय हो रहे हैं.

मिस कॉल करें और आवाज़ रिकॉर्ड कराएं, सुनें

रेडियो संघर्ष नागरिक पत्रकारिता को नये आयाम दे रहा है. इसके माध्यम से गांव वाले अपनी समस्याओं को लोगों तक पहुंचा रहे हैं. भले ही यह सेवा तकनीक के सहारे चलती हो, लेकिन यह तकनीक बेहद आसान और लोगों को मुफ्त उपलब्ध है.

इसका प्रयोग गांव के कम पढ़े-लिखे ग्रामीण भी खूब कर रहे हैं. गांव वालों को एक नंबर दिया गया है, जिस पर उन्हें मिसकॉल देकर अपनी आवाज रिकॉर्ड करानी होती है. यह एक बहुत ही आसान उपकरण है. 09902915604 पर फोन कर मिस कॉल देना होता है. कुछ सेकेंड में उसी नंबर से फोन करने वाले को फोन आता है. फोन उठाने पर दूसरी तरफ से आवाज सुनायी देती है- अपना संदेश रिकॉर्ड करने के लिए 1 दबाएं, दूसरे का संदेश सुनने के लिए 2 दबाएं.

रिकॉर्ड किए गए संदेश को मॉडरेटर द्वारा चुना जाता है जिसे उसी नंबर पर कॉल करके सुना जा सकता है. साथ ही, चुने हुए संदेशों को www.radiosangharsh.org पर भी अपलोड किया जाता है.

रेडियो संघर्ष पर आए सभी कॉल्स को उसके मोडरेटर द्वारा सुनकर उसे प्रारंभिक जांच के बाद ही लोगों तक पहुंचाया जाता है. कई बार गांव वाले अपनी समस्याओं के साथ-साथ उस समस्या से संबंधित अधिकारी का फोन नंबर भी रिकॉर्ड करवाते हैं. रिकॉर्डिंग को वेबसाइट और सोशल साइटों पर प्रकाशित कर दिया जाता है, जहां से नंबर लेकर शहर के लोग संबंधित अधिकारी को फोन करके समस्या का निदान करने की गुजारिश करते हैं. इस तरह सरकारी महकमा तक सूचना पहुंचती है और कई बार अधिकारियों द्वारा उचित कार्रवायी की जाती है.

रेडियो संघर्ष को हर रोज़ लगभग 50 से भी अधिक लोग सुनने के लिए फोन करते हैं. सबसे ज्यादा कॉल्स गांव वालों की मूलभूत समस्याओं मसलन सड़क, राशन कार्ड,  बीपीएल कार्ड, अस्पताल, स्कूल, पानी, बिजली आदि की समस्याओं को लेकर है.

आदिवासी इलाकों से विस्थापन, वनाधिकार कानून और जंगल पर अपने हक़ की मांग, घूस आदि विषयों पर ज्यादा कॉल्स आते हैं. इसके लिए समय-समय पर लोगों को बतौर नागरिक पत्रकार प्रशिक्षण भी दिया जाता है. ये नागरिक पत्रकार लोगों को कॉल करने तथा अपनी शिकायत दर्ज कराने में मदद करते हैं.

अमिलिया गांव के विरेन्द्र सिंह भी उन 25 लोगों में से एक हैं. विरेन्द्र कहते हैं कि “मैं लोगों को अपनी बात रिकॉर्ड करने के साथ-साथ दूसरों की समस्याओं को सुनने में भी मदद करता हूं. जंगल के महुआ पेड़ों की अवैध मार्किंग हो या फिर ग्राम सभा में पारित फर्जी प्रस्ताव हर मामले में गांव वालों को रेडियो संघर्ष में अपनी आवाज रिकॉर्ड कराने में मदद करता हूं.”

देश के सुदूर इलाकों में रहने वाले आदिवासियों और समाज के शोषित तबकों की आवाज़ कभी नीति-निर्धारकों के पास नहीं पहुंच पाती. रेडियो संघर्ष दोनों को एक संचार माध्यम मुहैया करा रहा है. रेडियो संघर्ष एक ओर जहां लोगों को जागरुक करने का काम कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ नीति-निर्धारकों को सीधे आम लोगों की आवाज़ में उनकी समस्याओं के बारे में जानने का मौका भी दे रहा है.

रेडियो संघर्ष समुदायों को जोड़ने का काम भी कर रहा है. सुदूर देहातों में दशकों से रहते आए लोगों के बीच आपस में संवाद स्थापित करने का कोई ज़रीया नहीं था. वहां न तो अखबार की पहुंच बन पायी है और न ही टीवी की. ऐसे में मोबाईल फोन ने आकर लोगों को आपस में जोड़ने का बड़ा माध्यम दिया है.

इसी मोबाईल फोन पर संचालित सामुदायिक रेडियो के माध्यम से भी लोग अपने आसपास के इलाकों में घट रही घटनाओं पर चौकस नज़र रख पाने में सफल हो रहे हैं.

रेडियो संघर्ष के बतौर मॉडरेटर विवेक गोयल बताते हैं कि पारंपरिक मीडिया कभी नहीं चाहती कि गांव की खबर शहरी लोगों तक पहुंचे. ऐसे में रेडियो संघर्ष जैसे प्लेटफॉर्म ग्रामीण भारत को शहरी भारत से जोड़ने का प्रयास है.

गोयल हालांकि इस बात को स्वीकार करते हैं कि इन माध्यमों से भले कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं लाया जा सकता है, लेकिन छोटी-छोटी समस्याओं का हल तो खोजा ही जा सकता है. वे मानते हैं कि यह माध्यम सिर्फ गांवों के लिए ही नहीं बल्कि शहरी गरीब इलाकों के लिए भी कारगर साबित हो सकता है.

रेडियो संघर्ष से पहले इस तरह का सफल प्रयोग सीजीनेट स्वर के रुप में हो चुका है. 2004 में छत्तीसगढ़ में शुरू हुए इस मोबाईल कम्यूनिटि रेडियो को चलाने वाले शुभ्रांशु चौधरी बताते हैं कि मोबाईल कम्यूनिटि के माध्यम से हम मीडिया को ज्यादा लोकतांत्रिक और विकेन्द्रीकृत करने का प्रयास कर रहे हैं. रेडियो संघर्ष हो या फिर सीजीनेट स्वर… आने वाले दिनों में ऐसी पहल मुख्यधारा के लिए चुनौति बनने का काम कर सकती है.

सिर्फ समस्याएं ही नहीं, सांस्कृतिक पहल भी

रेडियो संघर्ष जैसे मंच लोगों को सिर्फ अपनी समस्याओं को सुनने का ही मौका उपलब्ध नहीं करवा रहा, बल्कि लोगों को अपनी कविताएं-गीत, पारंपरिक ज्ञान और खासकर लोकगीत गाने और प्रस्तुत करने का मंच भी प्रदान कर रहा है.

गिरिडिह से रंगीला जी ने जंगल-ज़मीन पर अपनी एक कविता रिकॉर्ड करवायी है, जिसे सोशल मीडिया में खूब पसंद और शेयर किया जा रहा है. इसी तरह मध्य प्रदेश के राजलाल खैरवार ने आदिवासी एकता को बनाये रखने की गुहार करते एक गाने को रिकॉर्ड करवाया है.

ऐसे में जब इन ग्रामीण अंचलों में मनोरंजन के नाम पर न तो टीवी है और न ही अखबार. पारंपरिक लोक संस्कृति भी धीरे-धीरे घटते क्रम की ओर है. रेडियो संघर्ष एक बड़ी कोशिश, एक उम्मीद की रौशनी के रुप में दिखती है कि शायद इसी बहाने आदिवासियों, ग्रामीणों की संस्कृति, परंपरा और जीने का ढंग बचा रह सके.

रेडियो संघर्ष जनता के आंदोलनों के लिए भी बड़ा प्लेटफॉर्म साबित हो रहा है. जंगल-ज़मीन की लूट, विस्थापन की पीड़ा और उसके खिलाफ संघर्ष को भले मुख्यधारा की मीडिया कोई जगह नहीं दे लेकिन इन संघर्षों और आंदलनों के लिए रेडियो संघर्ष जैसे माध्यम जनसंपर्क का बेहतरीन ज़रीया बन रहे हैं.

यही वजह है कि चाहे वो सिंगरौली में चल रहे महान संघर्ष समिति का महान जंगल को कोयला खदान से बचाने के लिए चल रहे ग्रामीणों का संघर्ष हो या फिर झारखंड में किसी पावर प्रोजेक्ट्स से विस्थापित आदिवासियों को उनका हक़ न मिलने की लड़ाई सबको रेडियो संघर्ष एक खास जगह मुहैया कराता है.

हालांकि इस पूरी प्रक्रिया में कई तकनीकी बाधाएं हैं, आर्थिक पक्ष से जुड़े सवाल है.ऐसे माध्यमों की नियमितता को लेकर चिंताएं हैं, मुख्यधारा के भारी भरकम संरचना के सामने खुद को विकल्प के रुप में प्रस्तुत करने की गंभीर चुनौति है, लेकिन इन सब पर भारी लोगों की उम्मीद है, विश्वास है.

इसी उम्मीद और विश्वास के सहारे एक लोकतांत्रिक और गांव-गांव की खबर सामने लाने वाले वैकल्पिक मीडिया की कल्पना का अंकुरण भी हो रहा है.

TAGGED:radio sangarshरेडियो संघर्षलोगों के संघर्ष को आवाज़ दे रहा रेडियो संघर्ष
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