Avdesh Chaudhary & Aarju Siddiqui for BeyondHeadlines
स्वतंत्र भारत मे ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी प्रधानमंत्री ने देश के 18 लाख बच्चों से सीधा संवाद किया हो. लेकिन दूसरी तरफ कुछ ऐसे बच्चों की फौज भी हैं जिनके लिए ना तो किसी शिक्षा और ना ही किसी शिक्षक दिवस के मायने हैं. देश में आठवीं कक्षा तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून को लागू हुए लगभग पाँच वर्ष होने को है. ऐसे में देश की राजधानी दिल्ली में इसकी मौज़ूदा तस्वीर खौफनाक है.
आइए रुबरु कराते हैं हम कुछ ऐसे ही बच्चों से जो शिक्षा दिवस पर भी स्कूल जाना तो दूर की बात, अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिल्ली की सड़कों पर दरबदर थे. कोई कूड़ा बटोर रहा था तो कोई पानी की थैली बेच रहा था. तो कोई सड़कों पर अपने खाने का जुगाड़ तो वही कोई जूते पालिश कर अपनी किस्मत चमकाने की कोशिश में लीन था.
जिन हाथों में कलम और किताबें होनी चाहिए थी उन हाथों में कूड़े का बोरा था. जूता पालिश का ब्रश था. पानी बेचता हुआ हाथ और खाली पेट था. क्या कभी इनके कोई सपने नहीं होगें? क्या इनकी कभी कोई चाहत नहीं रही होगी कि मैं भी अपने माँ बाप के सपने पूरे कर सकूँ?
मोदी के होने या ना होने के इनके लिए क्या मायने हैं? इनके लिए प्रधानमंत्री के क्या मायने हैं? इनके लिए शिक्षा दिवस के क्या मायने हैं? क्या इन बच्चों के अधिकार में स्कूल जाना नहीं आता? क्या कभी भी समाज इन पर विचार करेगा?
शिक्षक दिवस के दिन कुछ बच्चों की हालात कैमरे की नज़र मैं कुछ इस तरह कैद हुईं…



