मेरी गली के इशरत की ज़िद…

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Deepak kumar Jha for BeyondHeadlines

झारखंड में गिरिडीह जिले से 10 किलोमीटर दूर गांव है- सिमरियाधौड़ा… कमलजोर, झगरी होते हुए आप कच्ची रास्ते के सहारे इस गांव पहुंच सकते हैं. इस गांव में ज्यादातर मुस्लिम आबादी निवास करती है, जिनका पेशा  मुख्यतः मजदूरी करना और कोयला बेचना है.

गांव की बदनसीबी यहां की सड़के बयान कर देती हैं. गांव में प्रवेश करते ही गरीबी, भूख, लाचारी, बेरोज़गारी और बेबसी आपको आस-पास पसरी मिल जायेगी.

सिमरियाधौड़ा के ज्यादातर लोग सरकार के द्वारा घोषित अवैध माइनिंग से कोयले की निकासी करते हैं और बेचते हैं. अपनी जान की परवाह किये बगैर!

बेरोज़गारी और गरीबी के राक्षस नें इस गांव के बच्चों की  शिक्षा एवं भविष्य को भी कोयले एवं मजबूरी के कालिख में समेट लिया है. जिस उम्र में इन बच्चों के हाथों में किस्मत की लकीरें तक खींच नहीं पाती, उन हाथों में क़लम की जगह कोयले ने ले ली है…

लेकिन इन सबके बीच इसी गांव की एक बच्ची, जिसने जिद्द की… लोहा लिया मजबूरियों से! दो-दो हाथ किए लाचारियों से! न जाने भूखी-प्यासी भी रही कितने दिन! हर दिन इबादत के वक्त एक ही चीज़ मांगी उसने. अपना जीवन, अपना अधिकार, शक्षा और अपनें दिन!

नाम इशरत प्रवीण… उम्र 16 साल… पिता मो0 अख्तर अंसारी… जिनका पेशा  मजदूरी करना एवं कोयला बेचना है. मां भी पिता की इस काम में हाथ बंटाती हैं और इशरत के बडे़ भाई भी.

नौ भाई बहनों में इशरत अपने वालिद की छठवीं औलाद है. इशरत से चार भाई और एक बहन बड़ी है. बाकी छोटे.

‘‘700 से 800 रूपये देकर कोयला लेना और उन्हें साईकिल के सहारे दूकानों तक पहुंचानें में खर्च हजार रूपया तक आ ही जाता है, लेकिन बेचने पर 1200 रूपये ही मिल पाते हैं. ऐसे में इस महंगाई में नौ बच्चो का पेट ही भरना मुश्किल है तो पढ़ाए कहां  से?”

इतना कहकर इशरत के पिता चुप्पी ओढ़ लेते हैं.  अपने पूरी परिवार के सामनें घर के मुखिया की चुप्पी बच्चों के चेहरे पर उतर आती है. इशरत चुप्पी को तोड़ती हुई हमें पानी के लिए पुछती है. पानी पीकर हम, इशरत से उसके अब तक के सफर पर बात करते हैं. वह कुछ देर तक चुप रहकर यादों मे उतरती है और कहती है –आज से 5-6 साल पहले मैं चौथी तक पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी थी. उस समय तक हमारे कस्बे की सभी लड़कियों की हालात अमूनन एक जैसी थी. अपने बड़े भाई और अपनी बड़ी बहन की शादी के बाद हमारे परिवार की माली हालात नाजूक थी.

हमारे कस्बों से लड़कियों को गांव से तीन किलोमीटर दूर मिर्जा गालिब स्कूल में भी जाकर पढ़ने पर भी पाबंदी थी. लड़कियां तब तक 14 से 15 सालों में ब्याह दी जाती थी. मैं पढ़ाई छोड़ने के बाद घर पर ही रहकर अपनी अम्मी जान की कामों में हाथ बंटाने लगी. लेकिन दिल में कहीं न कहीं पढ़नें की कसक अब भी बरक़रार थी.

इन्हीं दिनों हमारें कस्बों के नज़दीक सन 2009 में बिरसा बाल निकेतन (विशेष शिक्षा केंद्र) की स्थापना की गई, जो मुख्यतः पढ़ाई छोड़ चुके किशोर एंव किशोरियों को शिक्षा से जोड़ने की खुबसूरत पहल थी. जो सामाजिक परिवर्तन संस्थान गिरिडीह द्वारा जे0आर0डी0 टाटा ट्रस्ट के सहयोग से संचालित की जा रही थी.

हम जैसी पढ़ाई छोड़ चुकी सैकड़ों लड़कियों के लिए यह ख्वाब सच होने जैसा था. मानो, अल्लाह-तआला नें हमारी फरियाद क़बूल कर ली हो. 2009 से 2011 तक मेरी जैसी कई लड़की इस शिक्षण केंद्र से सहारा पाकर अपने सपनों के क़रीब पहुंच रही थी. फिर मैट्रीक तक का सफर मैंने कई सहेलियों जैसे निकहत, अंजुम, तम्मन्ना के साथ-साथ तय किया.

इस बीच मैं अपने कॉलेज के खर्चे की उगाही बच्चों का पढ़ाकर करने लगी. आज बीए की पढ़ाई कर रही हूं और 20 से 30 बच्चों को घर पर ही दिनी-तालिम देने की कोशिश कर रही हूं. मेरी जैसी पढ़ाई छोड़ चुकी लड़कियों को स्कूल से जोड़ना और फिर कालेज तक पहुंचाने में बिरसा बाल निकेतन (विशेष शिक्षा केंद्र) का ही योगदान रहा. इस शिक्षण केन्द्र के पहल से हमारे कस्बों में रहने वाले लोगों के नज़रिये में तब्दिलियां आने लगी. आज हमारे कस्बे से रोज़ लड़कियां चल कर स्कूलों तक जाती हैं और अक्सर लोग अपनें बच्चों को हमारी मिसाल देते हैं.

इतना कहकर इशरत अपने किताबों को समेटने लगती है और कहती है ‘‘भैय्या! मैं किसी भी कीमत पर न अपनी पढ़ाई बंद करूंगी और न ही किसी बच्चे को शिक्षा से महरूम रहने दूंगी. देखना मैं एक दिन ज़रूर कलेक्टर बन कर रहूंगी.”

यक़ीन मानिए! ऐसी इशरत गिरिडीह के इस आस-पास के गंदी बस्तियों में कोयला चुनती हुई या बर्तनों को साफ करती हुई मिल जायेंगी. इन बहादुर बेटियों से बात कर आपके रोंगटे खडे़ हो जाते हैं और दिल कहता है इनके लिए एक सलाम तो बनता है साहब! ऐसी बेटियों पर ये चंद लाइने खूब फब्ती है कि –

                                   “फलक को आदत थी जहां बिजलियां गिराने की

                                       हमें भी जिद थी वहीं आशियां बनाने की”

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