मानव या मशीन?

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Mikin Kaushik for BeyondHeadlines  

तत्कालीन सरकार ने आते ही क्रियाशीलता का प्रदर्शन करते हुए कई निर्णय लिए इनमें से एक जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह है –श्रम संबंधी कानूनों में संशोधन…

यहां इन्हें सुधार कहना उचित नहीं होगा. जैसा कि संशोधन करने वाले कह रहे हैं. क्योंकि इन परिवर्तनों से किसको लाभ होगा? किसको हानि? यह पूर्ण रूप से एक अंतराल के पश्चात ही ज्ञात होगा.

देश में लागू अधिकतर श्रम अधिनियम काफी पुराने समय के बने हुए है. इनमें से कई अधिनियम तो स्वतंत्रता पूर्व के हैं. या स्वतंत्रता पश्चात के…

इसी व्यवस्था में परिवर्तन को लाने के लिए कड़े श्रम कानून की बजाय मोदी सरकार सरल श्रम कानूनों को ला रही है. ‘श्रमेव जयते’ का नारा दिया जा रहा है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि यह श्रमिकों की जय करेगा या पराजय…

‘श्रमेव जयते’ के साथ भी किये जा रहे अधिनियम संशोधनों में एक अधिनियम है, प्रशिक्षू अधिनियम, 1961… जिसमें व्यक्ति एक प्रशिक्षण अनुबंध में निर्धारित नियमों व शर्तों के अंतर्गत प्रशिक्षण प्राप्त करता है. इस अधिनियम में  जहां पहले 500 से 2000 तक का प्रशिक्षण भत्ता मिलता था, जो की क़तई पर्याप्त नहीं था. पर अब प्रशिक्षू को पहले वर्ष में न्यूनतम वेतन का 70%, दूसरे वर्ष पर 80% और तीसरे वर्ष पर 90% मिलेगा.

इस संशोधन के पश्चात एक प्रशिक्षु बिहार में प्रति माह लगभग Rs.3,990 प्राप्त कर सकेगा, और चंडीगढ़ में यह Rs.6,624. यह हर राज्य की अपनी न्यूनतम मज़दूरी के अनुसार प्राप्त होगा.

इस अधिनियम में किये संशोधनों के पश्चात अब कारखानों में अधिक से अधिक प्रशिक्षु अथवा ट्रेनी श्रमिक रखे जा सकेंगे. जिसमें उन्हें न्यूनतम वेतन से 30 प्रतिशत कम वेतन प्राप्त होगा.

भारत में अभी जहां उद्योगों में लाखों प्रशिक्षुयों की आवश्यकता है, वहीं इस अधिनियम में संशोधन के पश्चात यह संख्या बढ़कर करोड़ों में पहुंच जायेगी. विभिन्न उच्च संस्थानों से निकले इंजीनियरिंग करे युवाओं में आज कुशल व्यवहारी श्रम शक्ति का अभाव है, जिसके लिए उन्हें प्रशिक्षण की सख्त आवश्यकता है. अत: अधिनियम संशोधन का प्रथम लक्ष्य कुशल मानव शक्ति की उपलब्धता है.

तत्कालीन सरकार इसे कौशल में वृद्दि करने का क़दम कह रही है. ये सही है कि इस तरह से प्रशिक्षुयों की अत्याधिक मांग उद्योग क्षेत्र में सस्ते श्रम के रूप में हो जायेगी और इसी वजह से देश के टेक्नीकल संस्थाओं की मांग बढ़ेगी. कुल मिलाकर नव-युवाओं को यह संशोधन राहत देगा, जहां वे कुशल श्रमिक का डिग्री डिप्लोमा लेकर भी वर्षो तक अकुशल व बेरोज़गार बने रहते थे. वहीं इन युवाओं को अब प्रशिक्षण हेतु कोई ऐसा कार्य नहीं करना पड़ेगा, जिसमें उन्हें कुछ भी प्राप्त न हो.

अंग्रेजी में एक कहावत है –अर्न व्हेन लर्न… यानि कमाओ जब सीखों. भारत में अब से पहले इस अवधारणा अभाव रहा है. यहां सीखने के पैसे नहीं मिलते. इस स्थिति को देखते हुए यह एक अच्छा क़दम साबित हो सकता है.

किन्तु इस संशोधन को बिना किसी प्रतिबंधन के लागू करना बिना अंकुश के हाथी चलाने के समान है. नरसिम्हा राव के आर्थिक उदारीकरण और भारत में पूंजी को निमंत्रण के लिए करे जा रहे तमाम कृत्य भारत को पूर्ण पूंजीवाद की ओर ले जा रहे हैं. इस पूंजी बचाओ और पूंजी कमाओ के उद्योगपतियों के इस उद्योग में पूंजीपति इस संशोधन से इस हाथी को अपने मन-मुताबिक मोड़ सकेंगे और इसके पैरों तले रोंदा जाएगा तो केवल श्रमिक वर्ग…

यही नहीं, रोंदे जाने पर वह चिल्ला भी नहीं सकता. अपनी आवाज़ भी नहीं निकाल सकता. क्योंकि इन संशोधनों के पश्चात और प्रशिक्षु होने के कारण वे श्रम क़ानूनों के दायरे में भी नहीं आएंगे.

उदाहरण स्वरुप पत्रकारिता क्षेत्र में ही देखा जा सका है. भारत के बड़े से बड़े अख़बार और मीडिया प्रतिष्ठित संस्थानों से निकले युवाओं को प्रशिक्षु के तौर पर नियुक्त करते हैं और वर्षों तक उन्हें उसी पद पर रखा जाता है. यही नहीं, कुशल हो जाने के पश्चात भी वे अगर किसी अन्य अख़बार में प्रयास करते हैं, तो वहां भी उन्हें प्रशिक्षु की ही पोस्ट पर रखा जाता है. बहुत ही कम भाग्यशाली होते हैं, जो अपने लक्ष्य में सफल हो पाते हैं.

कुछ ऐसा ही हाल इस संशोधन से हो सकता है, किन्तु सरकार इसमें कुछ प्रतिबन्ध जैसे कि श्रमिकों की प्रशिक्षु अवधि छोटे समय की रखे और प्रशिक्षु की अधिकतम आयु भी निर्धारित करे, तो कुछ हद तक नियंत्रण किया जा सकता है.

डब्ल्यू. एच. आर. के सर्वे को आधार बनाया जाए तो विश्व में सबसे खुशहाल देश में प्रथम पर डेनमार्क आता है. डेनमार्क वो देश है जहां 20 डॉलर का न्यूनतम वेतन है और 33 कार्य के घंटे एक हफ्ते में.

यही अगर हम देखें कि तत्कालीन सरकार जिस तत्परता के साथ चीन की अर्थव्यवस्था को उदहारण स्वरुप बता उससे भी आगे निकलना चाहती है. वह चीनी अर्थव्यवस्था अपने आप में अनेकों खामियों से भरी पड़ी है.

विश्व के सर्वाधिक सैलरी वाले देशों में कभी भी आर्थिक सुधारों या उन्नति के लिए विश्व की सर्वाधिक वेतन प्रदान करने वाले देशों में स्विट्जरलैंड सर्वप्रथम आता है. स्विट्जरलैंड कम बेरोज़गारी के साथ एक शांतिपूर्ण, समृद्ध और स्थिर आधुनिक बाजार अर्थव्यवस्था है. यह अर्थव्यवस्था श्रमिकों के अधिकारों का दमन करके नहीं, बल्कि उन्हें साथ ले कर चलने से बनी है.

पाश्चात्य देशों और अन्य विकसित देशों में पूंजी को महत्ता प्रदान कर वहां के जन जीवन पर कितना प्रभाव पड़ा. इसके दुष्प्रभाव हम सभी जानते हैं. भारत के श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के बारे में सभी को पता है. अगर सरकार श्रम कानूनों के संशोधनों के साथ ही श्रमिकों के सामाजिक सुरक्षा के लिए भी कोई संशोधन आता तो भविष्य से भयभीत श्रमिकों को एक प्रत्यक्ष राहत प्राप्त होती. आर्थिक पूंजीवादी सुधारों के साथ भी सरकार को रोजगार व आय के अन्य साधनों पर अधिक ध्यान देना चाहिए. पर्यटन को बढ़ावा देना उनमें से एक हो सकता है.

यधपि भारत के श्रम कानून अन्य देशों की अपेक्षा काफी कठोर माने जाते है, किन्तु वो कठिन कानून किस काम का जो लागू ही न हो पाए. आजादी से अब तक इन कठोर श्रम कानूनों के लागू न हो पाने में क्या किसी को संदेह है. भोपाल गैस कांड से लेकर गुडगांव का मारुती कांड इसका प्रमाण रहे हैं.

वस्तुतः देख जाए तो भारत के सभी श्रम अधिनियम काफी पुराने हो चुके हैं. स्वतंत्रता से लेकर अब तक के भारत में बहुत बदलाव हुआ है. यह बदलाव देश की सामाजिक स्थिति से लेकर औद्योगिक परिस्थियों व तकनीक तक है. इन सबको देखते हुए अधिनियमों में संशोधन होना अत्यंत आवश्यक था, जिसे तत्कालीन सरकार ने करने का निर्णय लिया.

यह निर्णय इन परिवर्तनों की आवश्यकता को महसूस कर मानवतावादी सामाजिक दृष्टिकोण से लिया गया या फिर किसी अन्य दृष्टिकोण से यह गंभीर विषय है. दूसरे शब्दों में कहे तो ये संशोधन पूंजी के पहलू को देख किये जा रहे हैं या सामाजिक नज़रिये से. यह महत्वपूर्ण है और यही दृष्टिकोण श्रमिकों का भविष्य तय करेगा कि श्रमिक मानव रहेगा या मशीन…

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