कश्मीर पर बाढ़ का क़हर : सरकार की लापरवाही से हालात और बदतर

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Raees Ahmad for Beyondheadlines

कश्मीर में अनंतनाग जि़ले के दाहेरा राहत कैंप में बैठी सात साल की यासमीन की आंखों में बाढ़ की तबाही की कहानी साफ छलकती है. खौफ़ आज भी उसकी आंखों में उसी तरह बसा है, जैसे उस क़हर वाली रात था. जो उसके सपनों को अपने साथ बहा ले गया. और साथ ही बहा ले गया वो उम्मीदें भी… जिसके सहारे वो जीना चाहती थी.

उसके दोस्त बिछड़ गए. स्कूल छूट गया. और घर का आसरा भी नहीं रहा. इन्हीं बातों का मलाल लिए सारे दिन चहकने वाली यासमीन आज उदास है. आसपास बिखरे पड़े मकानों का मलबा तूफान के बाद की खामोशी को बयां करता है.

20140925_165655बाढ़ के बाद जब मैं इस राहत कैंप में पहुंचा तो कैंप में मौजूद लोगों के चहरे देख मैं दो घंटे देरी से ट्रेन और फिर कश्मीर के लिए टैक्सी में 5 घंटे का लंबा इंतज़ार और राजौरी के खतरनाक पहाड़ी रास्तों के 15 घंटे के सफर की थकान और खौफ को भूल चुका था. मुझे अपनी थकान और दर्द इन लोगों के ग़म के आगे कुछ भी नहीं लग रहा था.

कश्मीर की खूबसूरती को शायद किसी की नज़र लग गई थी. वादियों में लगे सेबों से लदे पेड़ भी इस तबाही में उजड़े पडे़ इलाकों की बर्बादी की गवाही दे रहे थे. कैंप में बैठी रूफी का पूरा घर पानी में बह चुका था. आज उसके पास कैंप में बैठकर किसी मदद के इंतज़ार के अलावा कोई चारा नहीं है.

कुछ संगठनों और गैर सरकारी संस्थानों (तंज़ीमों) ने काम तो किया, लेकिन सरकार का रवैया उदासीन देखने को मिला. जिन कैंपों में यह रहने को मजबूर हैं, वे आगामी दिनों में इस इलाके में गिरने वाली आठ फीट बर्फ की चादर में दफन होकर रह जाएंगे. लेकिन शायद सरकार ने इस तरफ से आंखे मूंद रखी है.

इस कैंप में वो 18 मकानों के लोग रह रहे थे, जिनके मकान बाढ़ में बह गए थे. आज उनके घरों का नामोनिशान भी नहीं बचा है. सिर्फ दिखाई देते हैं तो वो पत्थर जो बाढ़ का पानी अपने साथ लाया था.

यहां से दो किलोमीटर आगे चला तो ज़ंग्लूपुरा में भी हालात इससे बदतर थे. जहां 100 में से 22 मकानों को बाढ़ का पानी अपने साथ बहा ले गया था. और जो बचे थे वो भी टूटे फूटे जर्जर हालत में थे, जिनमें रहना मुहाल था. पीने का पानी तक मयस्सर नहीं. जो पानी बहकर आ रहा था उसमें बदबू बाढ़ की भयावता की कहानी बयां कर रही थी.

श्रीनगर से लगभग 60 किलोमीटर दूर अनंतनाग के डिप्टी कमीश्नर दफ़्तर पहुंचकर जब उनसे मुलाकात की तो कमिश्नर साहब ने बाढ़ में फंसने की अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया कि वो खुद तीन दिनों में पहाड़ी रास्ते से होते हुए श्रीनगर पहुंचे और अपने घर में फंसे परिवार वालों को बचाने की कोशिश में सिर्फ जाने के लिए किसी तरह उन्हें एक नाव मिली और फिर वापस आने के लिए उन्हें अपनी छत पर बैठकर दो दिन तक मदद का इंतज़ार करना पड़ा.

इससे प्रशासन की बेबसी को बखूबी समझा जा सकता है. उन्होंने बताया कि अनंतनाग झेलम नदी के समतल वाली ज़मीन पर है, जहां सबसे पहले पानी भरा. लेकिन श्रीनगर में रहने वाले लोगों को 2 दिन का वक़्त मिला था. लेकिन उन लोगों ने बचने के उपाय क्यों नहीं किए यह बात उनकी भी समझ में नहीं आई.

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खैर, जब श्रीनगर पहुंचा तो हालात कुछ खास अच्छे नहीं थे. बाढ़ के बाद सबसे ज़्यादा पानी जहां ठहरा वो था जवाहर नगर… इस इलाके में पानी काफी वक़्त तक रहा. चिनार कालोनी, समदानिया, महजूर नगर, लाल चौक, इलाकों में माकनों को तो ज़्यादा नुक़सान नहीं हुआ, लेकिन यहां लोग रोज़मर्रा की चीज़ों के लिए परेशान थे.

खाने पीने के सामान की कमी और बाढ़ का पानी उतरने के बाद गंदगी और बदबू से लोग काफी परेशान हाल थे. लेकिन इन हालात में भी कश्मीरियों की मेहमान-नवाज़ी और मदद का जज़्बा देखते ही बनता था.

मैं जब तक कश्मीर में रहा, तब तक ऐसा कभी भी महसूस नहीं हुआ जैसे की मैं अपने घर से कही दूर हूं. मीडिया की ख़बरों को अलग रखकर आज ज़रूरत है कश्मीर व उनके बाशिंदों को और अधिक समझने की. और इस वक़्त में इस खूबसूरत वादी को दोबारा बसाने की. सरकार ने बर्फबारी से पहले बाढ़ पीडि़तों के लिए उचित संसाधन मुहय्या न कराया तो कश्मीरियों के लिए यह ठंड क़यामत से कम न होगी.

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