अपनी आमदनी नहीं, लोंगो की जिंदगियों की सोचे सरकार

Beyond Headlines
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Sankrityayan Rahul for BeyondHeadlines

और एक बार फिर ‘कच्ची’ ने अपना क़हर ढाया है. वही ‘कच्ची’ जो थानों के शह पर बनती है. वही ‘कच्ची’ जो आबकारी के सरकारी विज्ञापनों में निषेध है. फिर पुलिसिया तंत्र सक्रिय हुआ और सरकारी मातम मनाने का दौर शुरू… चंद अफसरों पर गाज गिरेगी और कुछ दिनों बाद फिर वही ढाक के तीन पात…

उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद और उन्नाव में कच्ची शराब पीने से 35 से अधिक लोगों के परिवारों का आंगन सूना हो गया और फिलवक्त में 150 से ज्यादा लोग अस्पतालों में जिंदगी मौत के बीच जूझ रहें हैं. ये हादसा कोई पहली बार नहीं हुआ जो सरकार और प्रशासन इतना चौंका हुआ नज़र आ रहा है.

सवाल ये है कि लोगों की जिंदगी ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ कर देनी वाली शराब के रंगीन सरकारी विज्ञापन में बार-बार ये क्यों लिखा जाता है कि पाउच वाली मत पीजिये. आखिर क्यों नहीं हर तरह के शराब पर पाबंदी लगा दी जाती. आप शराब के दाम बढ़ा कर ये कहते हो कि इसका उपयोग कम होने लगेगा लेकिन क्या कभी ऐसा हुआ है या कभी होगा?

जिसको पीना होगा वो 100 रूपये में भी पियेगा और 1000 रूपये में भी. अभी कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में नशाखोरी की खिलाफत की थी और लोगों से अपील की थी कि इसके नशाखोरी खत्म करें लेकिन उनका भी ध्यान केवल उसी नशाखोरी पर था जो अवैध रूप से भारत में आता है.

उन्होंने भले ही अपने मन की बात कहकर लोगों का दिल जीत लिया हो, लेकिन ये केवल अवैध रूप से होने वाली नशाखोरी तक ही सीमित रहा. आखिर ऐसा क्यों हैं कि लाखों जिंदगियो की कीमत आबकारी की आय से कम मानी जाती है. पिछले साल यूपी के ही आज़मगढ़ में कच्ची ने क़हर ढाया  था और लोगों काल के गाल में समा गये थे.

सरकारें लोगों से केवल अपील करती हैं, लेकिन उस पर पूरी तरह से पाबंदी लगाने से क्यों कतराती हैं? गांधी के देश में जहां अहिंसा और सत्य का पाठ पढ़ाया जाता हो, वहां कमाई के नाम पर शराब का बोल बाला गांधी के सारे उपदेशों और तथाकथित उनकी राह पर चलने वाले लोगों के मुंह पर करारा तमाचा है, वो कोई भी हो.

अगर कच्ची शराब के उपलब्ध होने की बात करें तो ये प्रायः गांव  के आस-पास के ईंट के भट्ठों और शहरों के किनारे बसे गावों, टाउन में आसानी से उपलब्ध हो जायेंगे. जिनकी कीमत हद से हद 10 से 20 रूपये तक होती है. ये कच्ची शराब के भट्ठें यूपी में थानों की शह पर चलते हैं. इससे पुलिस को मोटी कमाई का ज़रिया मिलता है और गरीबों को सस्ती दारू.

मलिहाबाद और उन्नाव के हादसे के बाद प्रशासन एक बार फिर सक्रिय हुआ है और कच्ची के भट्ठों को तलाशा जा रहा है. काश कि ये काम इन मौतों से पहले किया गया होता तो इतने आंगन सूने न होते. बेहतर हो कि सरकार केवल कच्ची दारू पर नहीं हर तरह के मादक पदार्थों की बिक्री बंद कराये और अपनी आमदनी से पहले लोंगो की जिंदगियां सोचे.

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