बिकाऊ ही नहीं, बल्कि शोषण का अड्डा भी हैं सारे नामचीन अख़बार –अकेला

Beyond Headlines
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देश में बहुत कम ऐसे पत्रकार होंगे जिनकी रिपोर्ट तो अख़बार की सुर्खियां बनती ही हैं, वे खुद भी अपनी बेखौफ और जाबांज़ रिपोर्टिंग के चलते सुर्खियां बन जाते हैं. ऐसे ही खोजी पत्रकारों में से एक हैं अकेला ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन (एबीआई) के एडिटर ताराकांत द्विवेदी ‘अकेला’… जिनकी कई एक्सक्लूसिव स्टोरीज ने देश में तहलका मचा दिया. अकेला ने अपनी धारदार रिपोर्टिंग से लेकर राजनीति और नेताओं से लेकर सरकारी बाबूशाही तक भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और साथ ही जुर्म-जरायम की दुनिया की क़लई खोल दी.

26/11 पर किया गया अकेला का स्टिंग आपरेशन आज भी लोगों की जुबान पर मौजूद है. मुंबई हमले के सिलसिले में घटी घटनाओं का सच सामने लाने के मद्देनज़र अकेला ने सीएसटी स्टेशन पर दो स्टिंग ऑपरेशनों को अंजाम दिया. ये एक ऐसा सनसनीखेज़ खुलासा था, जिसने पुलिस प्रसाशन की बखिया उधेड़ कर रख दी. 26/11 जैसे आतंकवादी हमले से निपटने के लिए मंगाए गए अत्याधुनिक और मंहगे हथियार बारिश के पानी में सड़ रहे थे. ‘अकेला’ ने जब पूरी दुनिया के सामने उसकी तस्वीर रखी तो बौखलाहट में गवर्नमेंट रेलवे पुलिस (जीआरपी) ने उन्हें ही निशाना बना दिया. उन्हें आफिशल सीक्रेट एक्ट के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. लेकिन ‘अकेला’ के हौसलों पर इसका कोई असर नही पड़ा.  खुद को ‘क़लम का सच्चा सिपाही’ साबित करते हुए अकेला ने पुलिस से डटकर मोर्चा लिया और हाईकोर्ट तक मुक़दमा लड़कर अपने लिए न्याय हासिल किया.

उस वक्त ‘अकेला’ अकेले नहीं रहे, देश के नामचीन पत्रकार उनके साथ खड़े हो गए. ‘अकेला’ का नाम ही नहीं, बल्कि उनके काम (यानि रिपोर्टिंग) के बारे में सुनकर उनके बारे में और कुछ जानने की उत्सुकता दिलो दिमाग पर छा जाती है.  BeyondHeadlines ने अकेला की बेबाक और निर्भीक पत्रकारिता को सामने रखने के मक़सद से उनसे खास बातचीत की. प्रस्तुत हैं अकेला  साहब से अफरोज़ आलम साहिल के खास बातचीत के संक्षिप्त अंश :

कुछ अपने बारे में बताइए. पत्रकारिता की शुरूआत कैसे हुई? क्या बचपन से ही पत्रकार बनने की इच्छा थी?

मैं आज से 45 साल पहले उत्तर प्रदेश के आंबेडकर नगर (तब फैज़ाबाद) ज़िले के एक छोटे से गांव मुरवाह में पैदा हुआ था. पिता श्री देवनारायण द्विवेदी शिक्षक थे. मैं चार भाइयों में छोटा हूं. मैंने ग्रेजुएशन तक की पढाई की. मुंबई के केसी कॉलेज से पोस्ट ग्रेजुएशन करने की शुरुआत की थी. फिर पीएचडी करने की योजना थी, लेकिन समयाभाव के कारण अधूरा रहा.

पत्रकार मैं संयोग से बना. मुंबई से सटे उल्हासनगर में छोटा-मोटा काम करते-करते पत्रकार बन गया. मैं किसी भी काम को न नहीं बोलता था. सुबह कोई और काम, शाम को कोई और काम… ऐसे में उल्हासनगर के एक वरिष्ठ पत्रकार दिनेश काला जी (अब स्वर्गीय) ने पूछा कि अख़बार में काम करेगा? आदतन हां! कह दी और उल्हास-विकास में काम करने लगा. यहीं से दो बजे दोपहर, नवभारत, मुंबई मिरर, टीवी-9 और मिड-डे तक पहुंच गया.

आपका जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ है तो फिर मुंबई कैसे आना हुआ?

मेरे घर पहले से एक भैंस थी. पिताजी दूसरी की योजना बना रहे थे. मैंने इसका विरोध किया. पिताजी ने दूसरी खरीद ही ली. मैंने मां जी से कहा कि इस घर में भैंस रहेगी या मैं रहूंगा. पिताजी ने मां जी से कहा की भैंस रहेगी.  बस मैंने घर छोड़ दिया. मुंबई (तब बॉम्बे) आ गया. ये 20 साल पहले की बात है.

आपने मिड-डे और मुंबई मिरर जैसे मुंबई के नामचीन अख़बारों के साथ काम किया है. कैसा अनुभव रहा इन संस्थानों में काम करने का?

जी! मैंने मुंबई मिरर और मिड-डे जैसे बड़े प्रकाशन में काम किया. बहुत बुरा अनुभव रहा. अपनी ज़िन्दगी के 3 साल मुंबई मिरर और 4 साल मिड-डे में गंवा दिया. लोग कह सकते हैं कि दोनों प्रकाशन ने रोजी-रोटी दी, अब उसकी बुराई कर रहा हूं. लेकिन ये कटु सत्य है कि यहां मैं अपनी ज़िन्दगी के अनमोल क्षण गंवा दिए. मिला कुछ नहीं, सिवाय बेइज्ज़ती, शोषण और टेंशन के…

मैं यह भी बताता चलूं कि इससे पहले मैंने 10 साल हिन्दी दैनिक ‘नवभारत’ में भी काम किया और यहां का भी एक्सपिरियंस बहुत बुरा रहा.

आप ऐसा क्यों और किस आधार पर कह रहे हैं?

मेरा अनुभव यह है कि प्रत्येक अखबार का मालिक सिर्फ रिवेन्यू के लिए काम करता है. उनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक तक कोई रिश्ता नहीं होता. सारे लोग पत्रकारिता जगत से बाहर होने वाले शोषण के विरूद्ध लंबी-लंबी बातें करते हैं, लेकिन खुद अपने पत्रकारों व स्टाफ का शोषण करते हैं. मुझे कभी इस बात का अहसास नहीं हुआ कि अखबार के दफ्तर में काम कर रहा हूं.

मैंने कभी पत्रकारिता नहीं की, बल्कि सिर्फ नौकरी की. (पेट पालने के लिए… परिवार चलाने के लिए…) नवभारत जैसे अखबारों में सम्पादक व रिपोर्टर इस आधार पर रखे जाते हैं कि वो विज्ञापन कितना ला सकते हैं. मंत्रालय, नगरपालिका या पुलिस में सिर्फ लाईजेनिंग व दलाली करने के योग्य पत्रकार ही रिपोर्टिंग के लिए रखे जाते हैं. सच तो यह है कि इन विभागों का पीआरओ ही अखबार का मालिक बन जाता है, क्योंकि वही अखबार को कमीशन के आधार विज्ञापन दिलवाता है.

मुम्बई मिरर में तीन साल काम करते हुए मैं नहीं समझ पाया कि इनको किस टाईप की न्यूज़ चाहिए. अखबार का कोई एजेंडा नहीं था. पुलिस व बिल्डर के खिलाफ कुछ भी नहीं छाप सकते हैं. पत्रकारिता से इनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था. सिर्फ सनसनी मचाने के लिए कुछ भी उटपटांग खबरें छापते हैं. मैं आपके सामने ऐसे 100 खबरों को प्रमाण सहित रख सकता हूं जो बिल्कुल बकवास, तथ्यहीन, असत्य व निराधार खबरें थीं.

लगभग यहा हाल मिड-डे का भी है. यहां भी पत्रकारिता से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था. यहां ऐसी-ऐसी घटनाओं की खबरें छपी जो घटना कभी घटित ही नहीं हुई.

तो लगे हाथ यह भी बता दीजिए कि मेन-स्ट्रीम मीडिया छोड़ने का असल कारण क्या है? और अब आपकी क्या प्लानिंग है?

मेन-स्ट्रीम मीडिया छोड़ने की कई वजह हैं. एक तो नवभारत, मुम्बई मिरर व मिड-डे जैसे अखबार के दफ्तर में नौकरी करते-करते एक घुटन सी महसूस हो रही थी. फ्यूचर अंधकारमय दिख रहा था. बहुत दिनों से दिल में यह इच्छा थी कि स्वतंत्र रूप से कुछ अपना काम करूं. कोई भी काम शुरू करने के लिए एक बहुत बड़े बजट की ज़रूरत पड़ती है, जो मेरे पास नहीं है. इसी बीच नरेन्द्र मोदी साहब ने देश में सोशल मीडिया की क्रांति ला दी. साथ ही उन्होंने हमें एक आईडिया दे दिया. मैं सोचने लगा कि मोदी जी जब सोशल नेटवर्किंग को  यूज़ करके प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो मैं  संपादक क्यों नहीं बन सकता. बस यहीं से मैंने अपना सारा दिमाग़ इसी वेब पत्रकारिता पर लगाया और अपनी एक वेबसाईट abinet.org की शुरूआत की. अल्लाह के करम से बहुत अच्छा रिस्पौंस मिल रहा है. थैंक्यू मोदी जी….

क्या कभी ऐसा भी मौका आया जब आपने इस फैसले को बदलने की बाबत सोचा हो?

मुझे बहुत मज़ा आ रहा है. बहुत बढ़िया रिस्पॉन्स है. मैं हमेशा इसको बड़ा करने के बारे में  सोचता रहता हूं. फ्यूचर में  इसका  हिंदी  एडिशन भी निकाल सकता हूं.

आपकी कई स्टोरियां देश भर में पॉपूलर हुई हैं. आपकी सबसे प्रिय स्टोरी कौन सी है, जिन्हें करके आपको संतोष अनुभव हुआ?

बात सही है कि मेरी बहुत से स्टोरियों ने देश में तहलका मचाया. आदर्श बिल्डिंग, आईपीएल स्पॉट मैच फिक्सिंग कवरेज, सेंट्रल रेलवे फेक बेल बांड केस, नवी मुंबई कंटेनर चोरी स्टिंग ऑपरेशन, 26/11 के बाद सीएसटी स्टेशन के 2 स्टिंग ऑपरेशन, मंत्रालय मेकओवर प्लान, आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग जांच में मुम्बई पुलिस के सीनियर इंस्पेक्टर नंदकुमार गोपाले की 250 करोड़ की कमाई, कल्याण के कोलसेवाडी पुलिस और बिल्डर द्वारा मुम्बई अंडरवर्ल्ड डॉन अश्विन नाइक का बर्थ-डे सेलिब्रेट करना ख़ास न्यूज़ रहीं. न्यूज़ देकर सिर्फ सैलरी लेनी थी. जर्नलिज़्म नहीं, सिर्फ नौकरी कर रहा था.  इसलिए कोई भी ऐसी न्यूज़ नहीं दे पाया जिससे आत्म-संतोष हो. मेरी वो इच्छा अभी पूरी नहीं हुई है.

आपने खास तौर पर मुंबई पुलिस की कारगुजारियों का पर्दाफाश किया है. ऐसी ही एक स्टोरी पर आपके खिलाफ ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट की तलवार का इस्तेमाल किया गया और आपको जेल तक जाना पड़ा. कैसे सामना किया इस कठिन वक्त का?

ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट लगाकर मुझे निस्तनाबूद करने की कुछ पुलिस वालों की गहरी साज़िश थी. लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाये. इसलिए कि मैं दिल और दिमाग़ से बहुत ही मज़बूत आदमी हूं. अकेला मेरा उपनाम है. अकेला रहता हूं. बचपन से ही बहुत निडर स्वभाव का रहा हूं. जब कोई मुझे धमकाता है, तो मेरी ज़िद और बढ़ जाती है. उस बुरे वक़्त में मिड-डे मैनेजमेंट, मुंबई के सभी पत्रकार साथियों ने जो सहयोग दिया, उनका मैं ज़िन्दगी भर ऋणी रहूंगा. मेरे बड़े भाई समान, उस वक़्त मेरे बॉस जे.डे. का सहयोग मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता.

आप एंटी एस्टैबलिशमेंट वाली ख़बरों के लिए जाने जाते हैं. किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, ऐसी खबरें करते वक्त? हमारे पाठकों के साथ अपने अनुभव शेयर करें.

एंटी एस्टैबलिशमेंट न्यूज़ देने से आपके कभी भी हाई लेवल के सोर्स नंही बन पाते. आपकी छवि निगेटिव रिपोर्टर की बन जाती है. दुर्भाग्य है कि मुझसे ऐसी ही रिपोर्टिंग की हमेशा से मेरे एडिटर्स ने अपेक्षा की. जबकि सोसाइटी मेंएस्टैबलिशमेंट में पॉजिटिव न्यूज़ भी बहुत हैं. इसके बहुत कटु अनुभव रहे हैं.

मुंबई पुलिस में हरीश बैज़ल एक डीसीपी (ट्रैफिक) हुआ करते थे. तब मैं मुंबई मिरर में था. उनको मैंने कोट के लिए फोन किया तो वे भड़क गए. कहने लगे कि तुम हमेशा निगेटिव न्यूज़ ही क्यों देते हो? गुस्से में फोन डिस्कनेक्ट कर दिया. शायद हमारे एडिटर से शिकायत भी की थी.

के. पी. रघुवंशी ठाणे के पुलिस कमिश्नर थे. बहुत ही अच्छे ऑफिसर हैं. उन्होंने पुलिस कंट्रोल को मॉडर्न बनाया था. उन्होंने मुझे प्यार भरा गुस्सा दिखाते हुए कहा कि तुम तो ऐसी न्यूज़ डालोगे ही नहीं. हमेशा पुलिस की बजाते रहते हो. मैंने उनसे डिटेल न्यूज़ ली और आकर मिड-डे में लिखा, तो मेरे इमीडियेट बॉस ने ऐसा नाक सिकोड़ा कि जैसे मैंने उन्हें कुनैन का तेल पिला दिया हो. इसके बाद न्यूज़ एडिटर का भी यही रिएक्शन था. उसने मुझसे कहा की आप कब से ऐसी खबर लिखने लगें. मैं सबसे ज़्यादा हैरान-परेशान तब हुआ जब सब-एडिटर ने मुझे बुलाकर पूछा कि ये पेड न्यूज़ है क्या? मतलब के. पी. रघुवंशी ने कितना पैसा दिया है.  ऐसी बहुत सी कहानियां हैं.

मानहानि के मुक़दमे से लेकर धमकियों तक आपको कई तरीके से काम करने से रोकने की कोशिश की जाती रही है. ऐसे हालातों का सामना कैसे करते हैं?

मैंने पहले ही कहा कि मैं किसी भी चीज़ से नहीं डरता. मेरी अंतरात्मा बहुत ही मज़बूत है. रही बात लीगल नोटिस, डिफामेशन, धमकी की तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. मेरा मानना है कि जब तक आपकी न्यूज़ पर एक्शन न हो, गाली न मिले, नोटिस न आये, डिफामेशन न हो तो न्यूज़ कैसी. मेरी न्यूज़ पर कई बार मोर्चा निकला है. न्यूज़पेपर की प्रतियां जलाईं गयी हैं. मेरे खिलाफ होर्डिंग्स लगे हैं. पर मैंने हमेशा इन सबको एन्जॉय किया. अभी भी कोर्ट में कई मामले चल रहे हैं. मैं इन सबको एन्जॉय करता हूं.

आपके पत्रकारिता करियर की कोई याद जिसे सोचकर आपको काफी ग़म होता है?

ऐसी बहुत सारी यादें हैं. जिन्हें सोचकर काफी दुख होता है. पर मैं यहां आपको उस दिन की कहानी सुनाता हूं जब मेरा दिल काफी रोया था. मेरी आंखों से आंसू छलक आए हैं. तब मैं मुम्बई मिरर में था. हमारे पास एक न्यूज़ थी. मुम्बई के 80 किलोमीटर दूर  ठाणे ज़िला के कई गांवों के गरीबों व किसानों की ज़मीनें महाराष्ट्र सरकार ने ले ली यह कहते हुए कि हम यहां एक प्रोजेक्ट शुरू कर रहे हैं. सरकार ने यह भी कहा था कि इसमें हम हर घर के एक व्यक्ति को नौकरी देंगे. लेकिन दसों साल बीत जाने के बाद भी वहां कोई प्रोजेक्ट शुरू नहीं हुआ.

समस्या यह हुई कि गांव वालों को दूसरे जगह काम करने जाना पड़ता है. थोड़ी बहुत कमाई होती थी. जिसे वो रास्ते में ही गावठी यानी नाली का बना हुआ दारू पीकर खत्म कर देते थे. इस दारू की वजह ज़्यादातर मर्द मर गए. सबसे बड़ी बात यह थी कि सरकारी आंकड़ों के मुताबित यहां के 5000 घरों में एक भी मर्द नहीं है. मतलब यहां 5000 विधवाएं हैं. इतना ही नहीं, इनमें कई सौ विधवाओं के आवेदन सरकारी दफ्तरों में विधवा पेंशन के लिए पड़ी हुई है, पर किसी का कोई ध्यान नहीं था. इस स्टोरी के सारे कागज़ात मेरे पास मौजूद थे.

मैंने खुशी खुशी यह स्टोरी अपनी एडिटर सुश्री मिनल बघेल को बताया. मैडम ने फौरन कहा –आई डॉन्ट वांट गरीबी-शरीबी… यह शब्द मेरे दिल में चुभ गए. दिल में आया कि बस अभी त्याग-पत्र देकर चलता बनूं. पर नौकरी मजबूरी थी, इसलिए वाशरूम में जाकर रोने के सिवा कुछ नहीं कर पाया.

फिर 10 मिनट बाद मिनल बघेल दुबारा से पुछा –अकेला! दूसरी क्या खबर है. आई वान्ट इन थ्री मिनट्स… सौभाग्यवश कहें या दुर्भाग्यवश मेरे पास एक और खबर आ गई, जो मुझे खुद कहीं से खबर नहीं लगती थी. दरअसल पवई के हीरानंदानी हॉस्पीटल में मरीज़ कबूतर से परेशान थे. तो मैनेजमेंट ने खिड़कियों पर तारों में इलेक्ट्रिक करेन्ट ज्वाइंट कर दिये जिससे वार्ड में आने की कोशिश में कई कबूतर तार को छूते और मर जाते.

यह खबर सुनते ही वो चिल्ला पड़ी –वाट ए फन्टास्टिक स्टोरी… आज का पेज वन हो गया. उन्होंने यह स्टोरी पूरे ऑफिस को बताया. सारे स्टाफ ने मेरे पास आकर मुझे बधाई दी कि चलो आज की बला टली, मतलब पेज़-वन जल्दी हो गया. सबने मेरी तारीफ की. मुझे फिर से रोना आया. वाशरूम में जाकर खूब रोया. मुझे इस बात पर रोना आया कि हम किस समाज में जी रहे हैं. कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं, जहां 5000 इंसानों के मरने की न्यूज़ नहीं बनती और 5 कबूतर मरते हैं तो हेडलाईन बनती है. छीं! शर्मनाक है!

पत्रकारिता में अपना मुक़ाम बनाने के इच्छुक नई पीढी के पत्रकारों के लिए आपकी क्या सलाह होगी?

नयी पीढ़ी के युवाओं के लिए मेरा सन्देश है कि वो जर्नलिज्म से काफी दूर रहें. जितनी राजनीति मंत्रालय में मंत्री और नेता नहीं करते होंगे उतनी अखबार के दफ्तर में होती है. हर एक को बड़ी ग़लतफ़हमी है कि सरकार उसी की राय से चलती है. हर रिपोर्टर दूसरे को ‘चुतिया’ समझता है. जितना शोषण पावरलूम मज़दूरों का उनके मालिक नहीं करते, उससे ज़्यादा अखबार मालिक अपने कर्मचारियों का करते है. ज़िन्दगी नरक समान हो जाती है. पता नहीं, क्यों न्यूज़-पेपर में ज्ञानी, इज़्ज़तदार और स्वाभिमानी  इंसान की क़द्र नहीं हो रही है. चापलूस, ब्लैकमेलर, हफ्ताखोर को ज़्यादा तरजीह दी जा रही है. ऐसे लोग ही जर्नलिज़्म में टिके हुए हैं. खुदा खैर करे…

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