‘महान कोल ब्लॉक’ को निलामी से हटाने के मायने

Beyond Headlines
5 Min Read

Avinash Kumar Chanchal for BeyondHeadlines

19 मार्च की शाम दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश के महान वन क्षेत्र के गांवों में सबकुछ सामान्य ही था. सूरज पहाड़ों के दूसरे तरफ डूबने को था, गांव के लोग जंगलों से सूखी लकड़ियां बटोर कर लौट गए थे. चारे के लिये जंगल गयी गाय और बकरियों का झूंड भी वापस आने लगे थे. इसी वक़्त  अमिलिया गांव के निवासी और महान संघर्ष समिति के सदस्य हरदयाल सिंह गोंड को दिल्ली से फोन पर ख़बर मिली कि महान जंगल क्षेत्र में प्रस्तावित कोयला खदान को कोयला मंत्रालय ने निलामी सूची से बाहर रखा है.

एक आरटीआई के जवाब में कोयला मंत्रालय द्वारा दी गयी यह सूचना भले ही बाकी देश के लिये एक साधारण ख़बर हो, लेकिन महान वन क्षेत्र के लोगों के लिये इसके मायने बहुत गहरे हैं. महान वन क्षेत्र मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले में स्थित है. इस जंगल में महान कोयला खदान प्रस्तावित था, लेकिन जंगल के आसपास बसे गांव वाले जंगल में प्रस्तावित खदान का लंबे अरसे से विरोध कर रहे हैं.

हरदयाल कहते हैं, “पिछले चार सालों से हम अपने जंगल को बचाने के लिये आंदोलन कर रहे हैं. आंदोलन के क्रम में हमारे साथियों को जेल जाना पड़ा, उन्हें गोली और जान से मारने की धमकी दी गयी. हमने दिन-रात भूखे रहकर गांव-गांव को इकट्ठा किया. देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम सरकारी विभागों का दरवाज़ा खटखटाया. तमाम जगहों पर रैली, प्रदर्शन में हिस्सा लिया, लेकिन हर जगह से हमें निराशा ही मिलती रही. अब जाकर सरकार ने हमारी मांगों को जायज समझते हुए हमारे साथ न्याय किया है.”

यह फैसला एक ऐसे समय में लिया गया है जब दिल्ली में कॉर्पोरेट हितैषी सरकार काबिज़ है, जब वर्तमान सरकार कोयला, वनाधिकार कानून से लेकर भूमि अधिग्रहण कानून तक को उद्योगपतियों के हित में बनाने की कोशिश कर रही है. इस समय जब देश में विकास को समावेशी की जगह उद्योग फ्रेंडली बनाने की कोशिशें तेज़ हो गई हैं, किसी भी जनआंदोलन की जीत के बड़े मायने हैं.

आज सरकार और शहरी समाज का एक बड़ा हिस्सा पूंजीवादी विकास के लिये लालायित होकर निजी कंपनियों की तरफ खड़े हो गए हैं. ऐसे समय में जंगलवासियों की अपने महुआ बचाने, अपनी मड़ई और झोपड़ी बचाने, जंगल-ज़मीन बचाने, नदियों को सहेजने की लड़ाई का कामयाब होना तथाकथित विकास के मॉडल पर प्रश्नचिन्ह है.

सिंगरौली को देश की ऊर्जा राजधानी कहा जाता है. जहां देश के कुल उत्पादन का 10 प्रतिशत बिजली पैदा होती है. लेकिन यहां के स्थानीय लोगों के जीवन को यह बिजली रोशन नहीं कर सकी है. यहां के लोगों को कोयला, जंगल, ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों के बदले में विस्थापन, बेरोज़गारी, प्रदुषण और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ ही मिली हैं. इस क्षेत्र के लगभग 54 गांवों के 50 हजार से अधिक लोगों के जीवन का आधार महान का जंगल है.

महान संघर्ष समिति में महिला कार्यकर्ताओं ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. ऐसी ही एक कार्यकर्ता कांति सिंह खैरवार कहती हैं, “जंगल ही हमारा जीवन है. इसी से हमलोग जी रहे हैं. हमको न तो पुलिस से मतलब है, न सरकार से. हम अपना जंगल जानते हैं, जहां पुरखा से हम जी रहे हैं. महुआ, तेंदू, चाड़ और सूखी लकड़ी इकट्ठा कर हम इतना पैसा कमा लेते हैं जिससे घर-परिवार का गुज़र हो जाता है. इसलिए हम अपना जंगल-ज़मीन नहीं छोड़ेंगे.”

महान जंगल को बचाने की इस लड़ाई में सबसे खास बात रही कि यह पूरा आंदोलन संवैधानिक दायरे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अहिंसक तरीके से चलाया गया. साल 2013 में नियामगिरी में आदिवासियों के जंगल बचाने की लड़ाई की सफलता के बाद महान संघर्ष समिति के आंदोलन की सफलता ने एक बार फिर साबित किया है कि सरकार भले कितना ही अमीरों के पक्ष में हो वो जन संघर्षों और ज़मीनी लड़ाईयों से निकलने वाली आवाज़ को अनसूनी नहीं कर सकती.

फिलहाल महान के गांवों में उत्सव का माहौल है. गेंहू कटाई का मौसम आया हुआ है. गांवों में महुआ बीनने से पहले की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं. इस बार लोग फिर से अपने जंगल पर पूरे अधिकार से महुआ चुन पायेंगे और इस खुशी में ऐसा लग रहा है, महुए के पत्ते भी खुशी से चटख लाल हो गए हैं…

Share This Article