Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
रमज़ान के महीने में इफ़्तार के बाद का नज़ारा देखेने लायक तो होता ही है, लेकिन जब देर रात को घड़ी की सुईयां तीन-साढ़े तीन के क़रीब पहुंचती हैं तो अचानक नज़ारा बदलने लगता है. फिज़ा की कैफियत बदल जाती है. घड़ी के अलार्म बजने लगते हैं. मोबाईल पर एस.एम.एस. व फोन आने लगते हैं, तो कहीं-कहीं आज भी चौकीदारों के डंडे और चौखट पर पड़ने वाली दस्तक ही काम आती है.
तो कहीं लोगों को जगाने के लिए सड़कों पर ‘काफिले’ निकलते हैं. लोगों की टोलियां गलियों व मुहल्लों में घूम-घूम कर रोज़ेदारों को मीठे-मीठे नगमों से बेदार करती हैं. लोगों को जगाने के लिए रामज़ान के गीत गाए जाते हैं. हम्द व नआते-शरीफ़ पढ़ी जाती है और जब बात इससे भी नहीं बनती तो ऐलान किया जाता है कि ‘‘सहरी का वक्त है रोज़ेदारों’, सहरी के लिए जाग जाओ’’
यही नहीं, मस्जिदों से साइरन भी बजते हैं और माइकों से आवाज़ आती है, ‘जनाब! नींद से बेदार हो जाइए, सहरी का वक्त हो चुका है.’ यही नहीं, कहीं-कहीं ढ़ोल व नगाड़े भी बजाए जाते हैं और फिर आवाज़ लगाकर हर रोजे़दार को उठाने की कोशिश की जाती है. ‘‘रोजेदारों, सहरी का वक्त हो गया है, सेहरी खा लो, हज़रात! सिर्फ आधे घंटे बचे हैं जल्दी सेहरी से फारिग़ हो जाएं.’’
पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहने वाले मो॰ सलमान बताते हैं कि यहां का नज़ारा देखने लायक होता है. आमतौर पर यहां कोई भी सोता ही नहीं, लगभग सभी दुकानें भी खुली होती हैं और सेहरी के वक्त़ तक लोग ख़रीदारी करते रहते हैं.
पुरानी दिल्ली के ही अब्दुल मुईद बताते हैं कि हम रातों में खूब मज़े करते हैं. हमारे घरों में तरह-तरह की पकवाने बनती हैं और सबसे खास बात यह है कि यहां लोग सेहरी की भी दावतें करते हैं.
जामिया के गर्ल्स हॉस्टल की रहने वाली खुश्बू का कहना है कि हमें सेहरी के टाईम खूब मज़ा आता है. तमाम लड़कियां उठकर एक दूसरे को जगाने और मिलने का काम करती हैं. पर इस बार छूट्टी में ही रमज़ान आ गया.
पिछले पांच साल से बटला हाउस में रहने वाले मो॰ शाहनवाज़ बताते है कि अपने शहर में जब ‘ऐ सोने वालों, चादर हटा लो, देखो फ़लक पे रौशन है तारे….’ की मधुर धुन कानों में पड़ती है, तो आंखें अपने आप खुल जाती हैं. लेकिन यहां मोबाईल व साईरन का ही सहारा लेना पड़ता है.
ज़ाकिर नगर के दाऊद हुसैन बताते हैं कि ‘‘काफिले’’ के ज़रिए लोगों को सेहरी के लिए जगाने की रिवायत काफी पुरानी है. रमज़ान शुरू होने के सप्ताह दिन पहले ही आठ-दस लोगों की टीम (जिसमें ज़्यादातर मदरसे के बच्चे होते है) बनाकर तैयारियों शुरू कर दी जाती थी. इस काफिले में शुरूआत के 15 दिनों में रमज़ान की फज़ीलत और 15 दिनों बाद बिदाई के नग़मे पढ़े जाते हैं. यह काफी दिलचस्प होता है, लेकिन अब यह रिवायत धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है. आखिर टेक्नोलॉजी का जो दौर आ गया है.
हालांकि दूसरे राज्यों में यह दस्तूर अभी भी क़ायम है. दिल्ली में भी कुछ इलाक़ों जैसे फाटक पंजाबीबाग़, बाड़ा हिन्दू राव आदि में यह रिवायत अभी भी बरक़रार है.