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रमज़ान का आख़िरी अशरा…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published July 9, 2015 1 View
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BeyondHeadlines News Desk

दुनिया में न जाने कितने लोग हैं, जो तीन वक़्त प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फैट से भरपूर डायट लेते वक़्त ये सोचते भी नहीं होंगे कि विश्व की एक बड़ी जनसंख्या पीने के पानी तक से महरूम है.

एक ओर हम देखते हैं कि मोटापे जैसी बीमारी से तंग आकर डायटिंग चल रही है और दूसरी ओर इसी दुनिया में दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए बीमार लोगों को रिक्शा और ठेला खींचना पड़ रहा है.

ऐसे में रमज़ान हमें नफ़्स की गुलामी से आज़ादी बख्शता है, सिर्फ खुदा के लिए जीने की तालीम देता है और भूखे लोगों और फटे-पुराना पहनने वालों के दर्द से परिचित कराता है. उनकी समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए तमाम इंसानियत को पुकारता है.

हमारे पास जितना कुछ है वो अल्लाह का ही दिया हुआ है. जान, माल, कुव्वत, अक़्ल वग़ैरह को अल्लाह के बताए अनुसार खर्च करना हमारा सौभाग्य है.

रमज़ान का महीना बताता है कि हमें अल्लाह को अपनाना है, उसके सिवा सोने और चांदी समेत दुनिया तमाम पार्थिव वस्तुएं फ़ना हो जाने वाली हैं.

एक मोमिन को इस हक़ीक़त की अनुभूति तब होती है, जब वो रमज़ान के आख़िरी अशरे में ‘एतकाफ़’ में बैठता है. ‘एतकाफ़’ का अर्थ यह है कि मनुष्य हर ओर से एकाग्रचित होकर अल्लाह से लौ लगाए और उसकी चौखट अर्थात मस्जिद में पड़ जाए.

क़ुरआन की आयत की रोशनी में अल्लाह से प्रेम, उस पर विश्वास, उससे वफ़ादारी का अहद उसके उसके आदेशों के पालन का निश्चय, वग़ैरह जैसी नेमतें उसे ‘एतकाफ़’ से हासिल होती हैं.

यही नहीं, ईद का चांद नज़र आने के बाद भी भले ही रोज़ा ख़त्म हो जाए और लोग ईद की खुशियों में मग्न हो जाएं, लेकिन इससे पूर्व मुसलमानों को ‘सदका-ए-फ़ितर’ का अदा करना ज़रूरी होता है. यह सदका-ए-फ़ितर, रोज़े में किसी किसी भूल-चूक का हर्जाना होता है, जिसे ईद के नमाज़ से पहले अदा करना पड़ता है.

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