सेक्युलर हैं तो सबूत दें?

Beyond Headlines
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Bushra sheikh for BeyondHeadlines

बीते कुछ दिनों से कबीर ख़ान निर्देशित तथा सलमान खान अभिनीत फ़िल्म ‘बजरंगी भाईजान’ को लेकर धार्मिक संगठनों द्वारा ग़लत धारणाएं और अफ़वाहे फैला कर फ़िल्म के बहिष्कार करने पर ज़ोर डाला जा रहा है.

एक ओर धार्मिक संगठन ईद के अवसर पर अपने सम्प्रदाय से ‘बजरंगी भाईजान’ न देखने का अनुरोध कर रहे हैं, तो दूसरी ओर अन्य संगठन धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का तर्क देकर इस फ़िल्म की रिलीज़ को रोकने की मांग कर रहे हैं. हालांकि इस फ़िल्म से जुड़े लोगों ने यह साफ़ कर दिया कि इस फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं, जिससे किसी धर्म विशेष की भावनाएं आहत हो.

इसके बावजूद तमाम संगठन धर्म के नाम पर आवाम को भ्रमित करने में जुटे हैं.  ख़ैर यह कोई नई बात नहीं है हमारे देश में. यह ज़हर तो सदियों से हिन्दुस्तान की फ़िज़ाओं में घूल जा रहा है मुसलसल… सिनेमा के इतिहास में भी ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, जब किसी फ़िल्म के प्रदर्शन पर या उसके विषयवस्तु पर आपत्ति जताई गई हो. कभी धार्मिक तो कभी राजनीतिक कारणों का हवाला देकर अक्सर ही हंगामा बरपाया गया है.

ऐसी फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त लम्बी हैं- आंधी, किस्सा कुर्सी का, ब्लैक फ्राइडे, बिल्लू बारबर, विश्वरूपम, ओह माय गॉड, पीके, अन्य ढ़ेरों फिल्म हैं, जिन्हें सेंसर से पास किये जाने के बाद भी धार्मिक संगठनों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा हैं.

1978 में आयी फ़िल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को न सिर्फ़ बैन किया गया बल्कि सारे प्रिंट भी जला दिए गए. दीपा मेहता वाटर फ़िल्म की शूटिंग बनारस में करना चाहती थी, लेकिन उन्हें नहीं करने दिया गया. दीपा मेहता श्री लंका में वाटर की शूटिंग की.

बजरंगी भाईजान को लेकर चल रही इन ग़हमा-गहमी के बीच मेरे एक मित्र ने मुझसे सवाल किया ‘ईद पर जा रही हो न फ़िल्म देखने?’ उनके सवाल पूछने के अंदाज़ से साफ़ था कि वह इस सवाल के ज़रिये मेरी प्रतिक्रिया जान कर मेरे ‘सेक्युलर’ या ‘कम्युनल’ होने की टोह ले रहे थे! ऐसे सवाल आजकल फेसबुक पर रोज़ तैर रहे हैं. यहाँ लोग आपकी देशभक्ति और धर्मनिरपेक्षता को मापने के लिए पैमाना लिए बैठे हैं.

गर कोई व्यक्ति पहले कभी ईद पर फिल्म देखने न गया हो और हर बार की तरह इस बार भी न जाये, तो क्या इसकी वजह को उन धारणाओं, अफ़वाहों से जोड़ कर देखा जाना चाहिए? या उस शख़्स को उन बेबुनियाद धारणाओं से सहमत होने वाला क़रार कर उन्हें सांप्रदायिक मानसिकता से ताल्लुक रखने वालो में शुमार कर लिया जाना चाहिए? या फिर हमें खुद को ‘सेक्युलर’ साबित करने के लिए तड़के ईद पर ‘बजरंगी भाईजान’ देखने पहुँच जाना चाहिए, ताकि हम इस ‘सेक्युलरिज़्म’ की परीक्षा में पास हो सके.

व्यक्तिगत रूप से सलमान मुझे पसन्द हैं और मैं उनकी लगभग सभी फ़िल्मे देखती आयी हुँ. मेरी ही तरह उनके लाखों प्रशंसक ऐसे हैं जिन्हें इस बात से क़तई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह फ़िल्म में हिन्दू या मुसलमान का किरदार निभा रहे हैं. उनके प्रशंसकों को वह हर रोल में पसंद है और रहेंगे. और यदि कल वह किसी फ़िल्म में ‘कृष्ण’ ‘शिव’ या अन्य किसी धार्मिक भूमिका में आये तो भी उनके प्रशंसक पूरी उत्साह के साथ  टिकट खिड़कियों पर लगी लम्बी क़तारों में आसानी से दिख जायेंगे.

हिंदुस्तान में धार्मिक संगठन बिना फ़िल्म देखे, बिना किताब पढ़े ही उसे धर्म विरोधी घोषित कर देते हैं. विरोध करना ही है तो अपनी उस संकीर्ण मानसिकता का करे जो मज़हब और जाति की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं. बेहतर है कि आप खुद फ़िल्म देखें, क़िताब पढ़े उसके बाद तय करें कि यह आपके हित में है या अहित में है. कब तक कार्यकर्ता बने रहेंगे अपनी ज़िन्दगी का नेता बने…

(लेखिका  ए.जे.के. मास कम्यूनिकेशन, जामिया मिल्लिया इस्लामिया की छात्रा हैं.) 

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