मेट्रो के ड्राइवरों का अब क्या होगा?

Beyond Headlines
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Vishnu Rawal for BeyondHeadlines

गांधी जी आज के समय में प्रसांगिक हैं या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है. पर मशीनीकरण पर उनकी कही बात कि “मशीन लोगों का रोज़गार छीन लेगी” डीएमआरसी की ताज़ा घोषणा से सच लग रही है.

हुआ ये है कि मेट्रो ने हाल में घोषणा की है कि मेट्रो के अगले चरण में चलने वाली ट्रेन “ड्राइवर रहित” होंगी.  अर्थात मेट्रो अब बिना ड्राइवर के चलेगी. साथ ही इस तरह की ट्रेनों के संचालन में 40 हज़ार करोड़ रूपये का खर्च आएगा. फुल ऑटोमेटिक ट्रेन चलने का अर्थ साफ़ है कि मेट्रो में अब ड्राइवर की भर्तियाँ नहीं होंगी. यानी वहाँ काम कर रहे ड्राइवरों के रोज़गार के साथ-साथ भविष्य में ट्रेन चलाने का सपना देखने वालों के रोज़गार पर भी ख़तरा है.

सवाल यहाँ यही है कि भारत जैसे देश में जहाँ की जनसंख्या विश्व दूसरे नंबर पर है, जहाँ रोज़गार की वैसे ही कमी है. अच्छी नौकरी पाने के लिए प्रतियोगिता इतनी है कि घूसखोरी से लेकर मार-काट तक की नौबत आ जाती है. वहाँ मौजूद नौकरियों को छीनना कहाँ तक जायज़ है?

फिलहाल ऑटोमेटिक परिचालन की योजना दिल्ली मेट्रो तक सीमित है. पर सोचने की बात है कि अगर आने वाले समय में यह योजना पाँचो राज्यों की मेट्रो ने शुरू कर दी. और इसके बाद भारतीय रेल ऑटोमेटिक चलने लगी तो? कितने लोको पॉयलेटों का रोज़गार जाएगा? वे लोग फिर क्या करेंगे?

इस कारण इस पर विचार होना चाहिए. पिछले सालों में भी हम तकनीक ने गडिया लोहार आदि का रोज़गार छिनते देख चुके हैं, पर सरकार उनके लिए तो यह बोलकर पल्ला झाड़ लेती है कि पढ़-लिखकर उन्हें कोई और काम कर लेना चाहिए. पर अब जब मेट्रो में ड्राइविंग कर रहे पढ़े लिखे लोगों का रोज़गार जाएगा तो क्या होगा? वे क्या करेंगे?

इस पर गौर किया जाना चाहिए कि तकनीक विकास करे, पर लोगों की मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ज़रूरी “रोज़गार” को न छीने. क्योंकि जब रोज़गार ही नहीं होगा तो कहाँ से लोग तकनीक का वहन करने का पैसा लाएंगे? ऐसे में विकास की जगह तकनीक की भागीदारी विनाश में होगी.

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