BeyondHeadlines Editorial Desk
एक मासूम औंधे मुंह पड़ा है. कभी न उठने के लिए. पोशाक़ बता रही है कि सीरिया के संघर्ष क्षेत्र से यूरोप के लिए सफ़र शुरू करने से पहले उसकी माँ ने उसे दिल से तैयार किया होगा.
नई ज़िंदगी की उम्मीद लिए आगे बढ़ रही ये नन्हीं ज़िंदगी सागर की लहरों का मुक़ाबला क्या करती. भूमध्यसागर में ये नन्हीं ज़िंदग़ी ही नहीं डूबी बल्कि समूची मानवता ही शोक़ में डूब गई.
कम से कम सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही तस्वीरों से शोक़ संदेशों से तो यही लग रहा है. दुनियाभर में लोग इस मासूम की मौत का शोक़ मना रहे हैं.
इस बच्चे को सीरिया और मध्यपूर्व में घटित हो रही मानवीय त्रास्दी का प्रतीक बताया जा रहा है. बड़े देशों के नेता चर्चा कर रहे हैं कि संकट से कैसे निपटे और पृष्ठभूमि में इस बच्चे की तस्वीर उभर रही है.
जिसने भी ये तस्वीर देखी होगी अपनी रगों में रक्त को जमते हुए महसूस किया होगा. आँखें नम हुई होंगी, दिल डूबा होगा. लेकिन ये बच्चा सिर्फ़ मध्य पूर्व में घटित हो रही मानवीय त्रास्दी का ही नहीं बल्कि दोगली होती मानवता का भी प्रतीक है.
क्योंकि वो बच्चा सवा दो अरब ईसाइयों के लिए एक मुसलमान ही था जो बड़ा होकर कट्टर जेहादी भी बन सकता था. वो ख़ुश हैं कि एक संभावित जेहादी कम हुआ और अब वो पहले से ज़्यादा सुरक्षित हैं.
डेढ़ अरब सुन्नी मुसलमानों के लिए एक कुर्द मुसलमान यानी कमतर दर्ज़े का मुसलमान था. उसके डूबकर मरने से उनकी एक गोली बच गई.
एक अरब हिंदुओं के लिए वो मलेच्छ मुसलमान था जिसके पूर्वजों ने सदियों तक हिंदुओं को ग़ुलाम बनाकर रखा. तेज़ी से बढ़ रही मुसलमानों की आबादी में आई इस कमी से वो ज़रूर ख़ुश ही हुए होंगे.
और जो बाकी कथित मानवतावादी हैं. जो सोशल मीडिया पर विलाप कर रहे हैं. घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं. अपनी मानवता का फूहड़ प्रदर्शन कर रहे हैं.
उनके लिए वो खोखली मानवता के प्रदर्शन के एक और मौक़े के अलावा और क्या था? सोशल मीडिया पर तस्वीर साझा करो, आँखों से आँसू निकलने के दावे करो और मानवता के प्रति ज़िम्मेदारी पूरी.
मध्यपूर्व में आग क्यों लगी है, किसने लगाई है, इसके पीछे कौन हैं. लाखों लाशों के जलने से किनके घरों की गर्मी बढ़ रही है ये सवाल नहीं पूछे जाएंगे.
बड़े देशों के बड़े नेता युद्ध की आपदा के कारण अपना वतन छोड़ने के लिए मजबूर शरणार्थियों को बेहतर मौक़े की तलाश में आए अप्रवासी बताकर इस संकट से निबटने पर चर्चा करके अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लेंगे.
संपादक बार-बार उसकी तस्वीर प्रकाशित करेंगे और सोशल मीडिया एटिडर से पूछेंगे- ज़रा बताओ तो फ़ेसबुक पर कितने शेयर मिले. कुछ कथित मानवतावादी तो अब भी अपनी पोस्ट पर आए लाइक और कमेंट गिन रहे होंगे या रीट्वीट का आंकड़ा निकाल रहे होंगे.
और इसी बीच मध्यपूर्व में कहीं और कोई और बच्चा किसी बम के धमाके में चिथड़े बनकर बिखर रहा होगा. किसी गोली के आगे ढेर हो रहा होगा. काम वासना में डूबे हथियारबंद दैत्य के आगे सहम रहा होगा. भूक से तड़प रहा होगा. अपनों की लाश देखकर बिलख रहा होगा. जान बचाकर दुबक रहा होगा.
लेकिन इस सबसे हमें क्या मतलब… युद्ध की आग अभी हमारी दहलीज तक नहीं पहुँची है. इसलिए हम धड़ाधड़ शेयर बटन दबा रहे हैं. बिना ये सोचे की इस युद्ध को रोकने में हमारी भूमिका क्या हो सकती है.
ज़रा सोचिए और आप ही बताइये कि इस युद्ध को रोकने में हमारी भूमिका क्या हो सकती है?
