गुरू! अगर खेलना है तो खुलकर खेलो…

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By Abhishek Upadhyay

ज़ी ग्रुप के मालिक डॉ. सुभाष चन्द्रा राज्य सभा पहुंच गए. बीजेपी के समर्थन से. तो क्या हुआ? लॉयल्टी है तो खुलेआम है. इसमें छिपाना क्या! NDTV के परम पवित्र मालिकों से तो लाख गुना बेहतर है ये…

आप 2G केस के चार्जशीटेड आरोपी की कंपनी से साझेदारी करो. आप विदेशों में अंधाधुंध कम्पनियां खोलकर भारत में उस कमाई का हिसाब ही न दो. आप आरबीआई के निर्देशों की ऐसी की तैसी कर दो. आपकी मरी हुई दुकान के शेयर आसमान छूती बोलियों में खरीद लिए जाएँ और कोई एजेंसी आपसे सवाल तक न पूछे? कि भइया! ये चमत्कार हुआ कैसे?

आप माल्या के साथ “Good times” का सुहाना सफ़र भी कर लो. नीरा राडिया से भी सट लो. सारे करम कर लो. पर आपके सारे ख़ून माफ़! क्यों? इसीलिए न आप 10 जनपथ के चरणों में नतमस्तक हो! इसीलिए न कि कांग्रेस ऑफिस की ईंटों में ही आपको अपना काबा और काशी नज़र आता है.

राजनीतिक सरपरस्ती के इस सुख के आगे तो राज्य सभा जाना बहुत छोटी बात है. फिर किस दौर में नहीं रही है ये लॉयलिटी. बस हिम्मत रखो खुशवंत सिंह की तरह सच क़ुबूल करने की.

महान लेखक खुशवंत सिंह ने खुद ही ज़ाहिर कर दिया था कि वे संजय गांधी की सिफारिश पर हिन्दुस्तान टाइम्स के एडिटर बने थे. इससे उनकी महानता घट नहीं गई. राजीव शुक्ला ने ‘रविवार’ मैगज़ीन में राजा मांडा वीपी सिंह की ऐसी की तैसी की. तो की… खुलकर राजीव गांधी का साथ दिया.

सन्तोष भारती, उदयन शर्मा, एम.जे. अकबर, दीनानाथ मिश्र, चन्दन मित्रा, शाहिद सिद्दीकी राजनीतिक पार्टियों के साथ आए. तो खुलकर आए. ये लुकाछिपी का खेल क्यूं?

ये पूरा लेख इस मसले पर लिखा ही नहीं है कि पत्रकार का राजनीति में आना सही है या ग़लत… सही गलत की परिभाषाएं वैसे भी समझ नही आतीं. सबके अपने-अपने सत्य होते हैं. यहां तो मुद्दा सिर्फ़ इतना है कि गुरू अगर खेलना है तो खुलकर खेलो. नक़ाब पहनकर मैच नहीं खेले जाते. फाउल हो जाएगा एक दिन!

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