तो फिर मुंबई हाई कोर्ट में क्यों है जिन्ना की तस्वीर?

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अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines के लिए

नई दिल्ली : मुल्क की सियासत में जिन्ना को लेकर सियासी घमासान मचा हुआ है. एक ओर कांग्रेस व अन्य पार्टियां जहां इस मुद्दे पर ख़ामोश नज़र आ रही हैं, वहीं भारत का बुद्धिजीवी वर्ग बीजेपी के इस ‘जिन्ना सियासत’ पर सवाल खड़े कर रहा है.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के प्रोफ़ेसर एस.एन. मालाकार कहते हैं कि, 1930-40 के दौर में इस देश में एक अलग ‘दलिस्तान’ की भी मांग उठी थी, तो क्या आप बाबा साहब अम्बेडकर के पोट्रेट को भी हर जगह से हटा दोगे?

वो कहते हैं, हमें ये सोचना चाहिए कि क्या देश के बंटवारे के लिए अकेले जिन्ना ज़िम्मेदार थे? उस समय देश के बाक़ी नेता क्या कर रहे थे? देश के अन्य नेताओं ने विभाजन को कैसे और क्यों स्वीकार लिया? साथ ही यह भी देखना होगा कि उस वक़्त हिन्दू महासभा और जिन लोगों की विचारधारा को बीजेपी व आरएसएस ढो रहे हैं, वो क्या कर रहे थे? क्या वो बंटवारे के पक्ष में नहीं थे? इतिहास के पन्नों से धूल-मिट्टी हटाएंगे तो यक़ीनन यही लोग सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार नज़र आएंगे. जिन्ना तो 1940 के आस-पास तक भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे, लेकिन इनके लोग तो अंग्रेज़ों के साथ थे. उनकी मुख़बिरी कर रहे थे.

एस.एन. मालाकार आगे कहते हैं कि, एएमयू पर सवाल खड़ा करने से पहले बीजेपी को अपने नेता लाल कृष्ण आडवानी को पार्टी से बाहर निकाल फेंकना  चाहिए. और उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि वो पाकिस्तान में जिन्ना की मज़ार पर क्यों गए थे.

बता दें कि लालकृष्ण आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता जिन्ना को देशभक्त कह चुके हैं. लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान में जिन्ना के मक़बरे पर जाकर मत्था टेका था और उन्हें धर्मनिरपेक्ष बताया था.

पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवंत सिंह ने भी अपनी किताब में जिन्ना की प्रशंसा करते हुए उन्हें देशभक्त बताया था. ये भी कराची में जिन्ना के मक़बरे पर मत्था टेक चुके हैं. और भाजपा के वर्तमान कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य भी जिन्ना को भारत का महापुरुष बता रहे हैं.

जेएनयू से पाकिस्तान के ऊपर पीएचडी कर चुके आशीष शुक्ला कहते हैं कि लोगों को पाकिस्तान जाकर देखना चाहिए. भारत के कई स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें वहां हर जगह देखने को मिलेंगी. इस्लामाबाद में आज भी गांधी की मूर्ति लगी हुई है. भगत सिंह को आज भी वहां धूमधाम से याद किया जाता है.

जाने-माने इतिहासकार व जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर रिज़वान क़ैसर कहते हैं कि, एएमयू में मोहम्मद अली जिन्ना की वो तस्वीर 1947 के बाद नहीं लगाई गई है. वो फोटो 1938 में ही लगाई गई थी, जब जिन्ना ने ‘टू नेशन’ का सवाल खड़ा नहीं किया था.

प्रोफ़ेसर क़ैसर आगे कहते हैं, जिन्ना का पोट्रेट आप एएमयू से हटाना चाहते हैं, हटा दीजिए, लेकिन साथ में ‘आईकॉन ऑफ़ हेट्रेड’ विनायक दामोदर सावरकर का फोटो भी पार्लियामेंट से हटा दीजिए. क्योंकि सावरकर और जिन्ना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.

हालांकि वो ये भी बताते हैं कि सावरकर की तस्वीर आज़ादी के बहुत बाद एनडीए-एक के ज़माने में लगाई गई है, जबकि जिन्ना की ये तस्वीर एएमयू में 1938 में ही लगाई गई थी.

बता दें कि एएमयू में जिन्ना की तस्वीर एएमयू के स्टूडेंट यूनियन हॉल में साल 1938 से लगी हुई है, जब जिन्ना को आजीवन सदस्यता दी गई थी. ये आजीवन मानद सदस्यता एएमयू स्टूडेंट यूनियन देता है. पहली सदस्यता महात्मा गांधी को दी गई थी. बाद के सालों में डॉ भीमराव आंबेडकर, सीवी रमन, जय प्रकाश नारायण, मौलाना आज़ाद को भी ये सदस्यता दी गई. इनमें से ज़्यादातर की तस्वीरें अब भी हॉल में लगी हुई हैं. यहां ये भी स्पष्ट रहे कि एएमयू में आजीवन सदस्यता छात्रसंघ की ओर से दी जाती है. हालांकि हर साल जिन लोगों को आजीवन सदस्यता दी जाए, उनकी तस्वीर लगे ये ज़रूरी नहीं है.

नीतिश कुमार कराची में जिन्नाह के मज़ार पर फातिहा पढ़ते हुए (Photo Courtesy : www.telegraphindia.com)

एएमयू में इतिहास के प्रोफ़ेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं, आज सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या इतिहास को मिटा दिया जाए? मुंबई हाई कोर्ट के म्यूज़ियम में भी जिन्ना का प्रोट्रेट है. और इस म्यूज़ियम का उद्घाटन पीएम नरेन्द्र मोदी ने ही किया है. तो जब हाई कोर्ट में जिन्ना का पोट्रेट लगना सही है तो एएमयू में लगना ग़लत कैसे हो गया?

प्रोफ़ेसर सज्जाद भी सवाल उठाते हैं कि क्या बंटवारे के लिए जिन्ना अकेले ज़िम्मेदार हैं? या फिर इतिहास की पेचीदा प्रक्रियाएं, उस समय की साम्प्रदायिकता की राजनीति ज़िम्मेदार है?

वो कहते हैं कि, एएमयू ने इतिहास के तथ्यों को मिटाया नहीं है. और यहां जिन्ना को कोई ग्लोरिफ़ाई नहीं किया जा रहा है. ‘टू नेशन थ्योरी’ का विरोध करने वालों में ज़्यादातर मुसलमान भी थे. एएमयू में भी इसका खूब विरोध हुआ था.

इस पूरे विवाद को प्रो. सज्जाद राजनीति बताते हैं. वो कहते हैं कि, दरअसल देश में भूखमरी, बेरोज़गारी, किसानों-मज़दूरों के हालात, दलित उत्पीड़न और बढ़ते बलात्कारों पर सवाल उठ रहे हैं. इन सवालों को खड़ा ही न किया जाए, इसके लिए ज़रूरी है कि पूरा देश हिन्दू-मुसलमान में बंट जाए. बीजेपी बस यही कर रही है.

वहीं जेएनयू में ‘विभाजन और जिन्ना’ को लेकर शोध कर रहे रिसर्च स्कॉलर शरज़ील ईमाम बताते हैं कि, मुहम्मद अली जिन्ना ने अपनी पूरी ज़िन्दगी मज़लूम हिन्दुस्तानियों और ख़ास तौर पर अक़लियत के अधिकारों के लिए लड़ते हुए बिताई है. उनका काम दोहरा था. वो न सिर्फ़ अंग्रेज़ों से लड़ रहे थे. बल्कि आख़िरी दस साल में इस देश के बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यक अधिकार की भी बहस कर रहे थे.

शरज़ील बताते हैं कि, 1938 में जब जिन्ना की तस्वीर एएमयू के स्टूडेंट यूनियन हॉल में लगाई गई, तब जिन्ना मुस्लिम सियासत के सबसे बड़े रहनुमाओं में थे. क्योंकि 1937 चुनाव में उनकी अध्यक्षता वाली मुस्लिम लीग मुसलमानों की अकेली नेशनल पार्टी बनकर उभरी थी.

वो यह भी कहते हैं कि, इसके अलावा हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जिन्ना ने अपनी वसीयत में अपनी बची हुई मिल्कियत, जिसमें एक बड़ी रक़म और किताबें वगैरह शामिल थीं, एएमयू के साथ दो तालीमी इदारों में तक़सीम की थी. बंटवारे के बावजूद जिन्ना ने अपनी वसीयत कभी तब्दील नहीं की. मेरी नज़र में बंटवारे की रंगीन कहानी को समझने के लिए हमें तहक़ीक़ और रिसर्च की दरकार है.

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