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Reading: कंपनियों के क़ब्ज़े में बच्चों का पोषण आहार
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कंपनियों के क़ब्ज़े में बच्चों का पोषण आहार

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published July 31, 2018 5 Views
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10 Min Read
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By Javed Anis

पिछले क़रीब दो सालों से मध्य प्रदेश में आंगनबाड़ी केन्द्रों से मिलने वाले पूरक पोषण आहार सप्लाई को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है. जिसकी वजह से पोषण आहार वितरण व्यवस्था प्रभावित रही है.

मध्य प्रदेश में इसके क़रीब 95 लाख हितग्राही हैं जिसमें बच्चे, किशोरियां और गर्भवती महिलायें शामिल हैं. इस दौरान प्रदेश के कई ज़िलों में टेक होम राशन का स्टॉक ख़त्म होने, महीनों तक आंगनबाड़ियों में पोषण आहार नहीं पहुंचने के मामले सामने आए हैं, जबकि खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू होने के बाद से अब यह एक क़ानूनी हक़ है. आंगनबाड़ी केन्द्रों से बच्चों व महिलाओं को मिलने वाले पोषण आहार को किसी भी स्थिति में रोका नहीं जा सकता है.

दरअसल, मध्य प्रदेश में आंगनबाड़ियों के ज़रिए कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली पोषणाहार व्यवस्था को लेकर लम्बे समय से सवाल उठते रहे हैं.

क़रीब 12 सौ करोड़ रुपए बजट वाले इस व्यवस्था पर तीन कंपनियों —एम.पी. एग्रो न्यूट्री फूड प्रा. लि., एम.पी. एग्रोटॉनिक्स लिमिटेड और एम.पी. एग्रो फूड इंडस्ट्रीज़ का क़ब्ज़ा रहा है. जबकि 2004 में ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि आंगनबाड़ियों में पोषण आहार स्थानीय स्वयं सहायता समूहों द्वारा ही वितरित किया जाए.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस व्यवस्था को लागू करने की ज़िम्मेदारी मुख्य सचिव और गुणवत्ता पर निगरानी की ज़िम्मेदारी ग्राम सभाओं को दी गई थी. लेकिन कंपनियों को लाभ पहुंचाने के फेर में इस व्यवस्था को लागू नहीं किया गया.

इस दौरान कैग द्वारा भी मध्य प्रदेश में पोषण आहार व्यस्था में व्यापक भ्रष्टाचार होने की बात लगातार उजागर किया जाता रहा है, जिसमें 32 फ़ीसदी बच्चों तक पोषण आहार ना पहुंचने, आगंनबाड़ी केन्द्रों में बड़ी संख्या में दर्ज बच्चों के फ़र्ज़ी होने और पोषण आहार की गुणवत्ता ख़राब होने जैसे गंभीर कमियों की तरफ़ ध्यान दिलाया जाता रहा है, लेकिन सरकार द्वारा हर बार इस पर ध्यान नहीं दिया गया.

इसी पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा 6 सितंबर 2016 को प्रदेश में पोषण आहार का काम कम्पनियों के बजाए स्वंय सहायता समूहों को दिए जाने की घोषणा की गई, जिसके बाद महिला एवं बाल विकास द्वारा 15 दिनों के भीतर में नई व्यवस्था तैयार करने की बात कही गई थी. लेकिन इन सबके बावजूद ठेका लेने वाली कंपनियों, अफ़सरों और नेताओं की सांठ-गांठ ने नया रास्ता निकाल ही लिया और फिर तैयारी के नाम पोषण आहार की पुरानी सेंट्रलाइज्ड व्यवस्था को ही 31 दिसंबर 2016 तक लागू रखने का निर्णय ले लिया गया, जिसके बाद बाद 1 जनवरी 2017 से अंतरिम नई विकेंद्रीकृत व्यवस्था लागू करने की समय सीमा तय की गई.

लेकिन इस दौरान पोषण आहार का काम सहायता समूहों को दिए जाने के फैसले को चुनौती देते हुए इंदौर हाईकोर्ट में एक याचिका लगाई गई, जिसके बाद पोषण आहार सप्लाय करने वाली संस्थाओं को स्टे मिल गई. कंपनियां की रणनीति इस पूरे मामले को क़ानूनी रूप से उलझाए रखने की रही, जिससे पोषणाहार सप्लाई करने का काम उनके हाथों में बना रह सके और वे इसमें कामयाब भी रहीं.

इस दौरान पोषाहार की पुरानी व्यवस्था को बनाए रखने में सरकार का भी सहयोग उन्हें मिलता रहा. पोषण आहार की पुरानी व्यवस्था निरस्त कर सरकार को नई व्यवस्था की प्रक्रिया शुरू करने को लेकर सितंबर 2017 में हाई कोर्ट द्वारा आदेश भी दिए गए थे, जिसका पालन नहीं किए जाने पर कोर्ट द्वारा महिला बाल विकास के प्रमुख सचिव, एम.पी. एग्रो को अवमानना का नोटिस भी जारी किया जा चुका है.

इस साल 9 मार्च को इस मामले की सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट की डिवीज़न बेंच ने इस पूरे मामले में मध्य प्रदेश की भूमिका पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि “आदेश के बावजूद निजी कंपनियों से पोषण आहार लेना यह साबित करता है कि सरकार उन्हें लाभ पहुंचाना चाहती है.”

बहरहाल वर्तमान स्थिति यह है कि बीते 25 अप्रैल को सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की ओर से कोर्ट को बताया गया है कि शॉर्ट टर्म टेंडर के तहत सात कंपनियों को पोषण आहार सप्लाई का काम दे दिया गया है, जो अगले पांच महीनों तक ये काम करेंगी.

शॉर्ट टर्म टेंडर की समय सीमा आगामी सितम्बर माह में पूरी हो रही है. इसके बाद स्व-सहायता समूहों के माध्यम से पोषण आहार बांटा जाना है, लेकिन ऐसा लगता है कि हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद अफ़सरशाही और निजी कंपनियों का गठजोड़ सितम्बर के बाद भी पोषण आहार वितरण में कंपनी राज को ही बनाए रखना चाहती है.

स्व-सहायता समूहों को वितरण का काम देने से पहले सात सरकारी प्लांट बनाया जाना था, जिसमें से अभी तक एक भी प्लांट तैयार नहीं हो सका है और अब इन्हें तैयार होने में 6 माह से ज्यादा का समय लग सकता है. ऐसे में सितम्बर के बाद निजी कंपनियों को दिए गए टेंडर की समय-सीमा आगे बढ़ाने के बहाने पहले ही तैयार है.

इसके बाद मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के चलते आचार संहिता लग जाएगी और इस तरह से नई सरकार के गठन तक यह मामला अपने आप अटक जाएगा और कंपनी राज चलता रहेगा.

इस दौरान पोषण आहार की नई व्यवस्था लागू होने तक वितरण जारी रखने के लिए बुलाई गई शॉर्ट टर्म टेंडर भी सवालों के घेरे में आ चुकी है. इसको लेकर महाराष्ट्र की वेंकटेश्वर महिला सहकारी संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मंज़ूर करते हुए मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया है और यथास्थिति को बनाए रखने को कहा है.

मध्य प्रदेश के लिए कुपोषण एक ऐसा कलंक है, जो पानी की तरह पैसा बहा देने के बाद भी नहीं धुला है. पिछले दस-पंद्रह सालों से मध्य प्रदेश में कुपोषण की भयावह स्थिति लगातार सुर्खियां बनती रही हैं. इसको लेकर विपक्ष और राज्य सरकार पर लापरवाही और भ्रष्टाचार का आरोप लेकर घेरे में लेता रहा है.

साल 2005-6 में जारी तीसरे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश 60 फ़ीसदी बच्चे काम वज़न के पाए गए थे और अब ऐसा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस-2015-16) के अनुसार यहां अभी भी 42.8 प्रतिशत प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं.

एनुअल हेल्थ सर्वे 2016 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) के मामले में मध्य प्रदेश अग्रणी है, जहां 1000 नवजातों में से 47 अपना पहला जन्म दिन नहीं मना पाते हैं.

सुधार की धीमी रफ़्तार

(राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 और 4 की तुलनात्मक स्थिति )

सूचकांक 2005-06

एनएफएचएस-3

2015-16

एनएफएचएस-4

कम वज़न के बच्चे 60 42.8
गंभीर कुपोषित बच्चे 12.6 9.2
ठिगने बच्चे 50 42
बच्चों में खून की कमी 74.1 68.9
महिलाओं में खून की कमी 56 52.5

ज़ाहिर है तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों और बजट के बावजूद बदलाव की स्थिति धीमी है.

भाजपा के बुजुर्ग नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर भी मानते हैं कि सरकार कुपोषण को मिटाने के लिए धीरे-धीरे काम कर रही है. साथ ही उन्होंने पोषण आहार के लिए दी जाने वाली राशि को लेकर भी सवाल उठाते हुए कहा है कि “8 रूपये में चाय नहीं आती दूध और दलिया कहां से आएगा? यह राशि काफ़ी कम है. इसे बढ़ाकर कम से कम 20 रुपए प्रति बच्चा प्रतिदिन के मान से निर्धारित की जाए.”

बीते 26 जून को विधानसभा के मानसून सत्र में बाबूलाल गौर द्वारा पूछे गए सवाल पर महिला और बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस ने बताया है कि, ‘मध्य प्रदेश में अति कम वज़न वाले बच्चों की संख्या क़रीब एक लाख से ज्यादा है और सूबे में कुपोषण सहित अन्य बीमारियों से औसतन 61 बच्चे हर रोज़ मौत का शिकार हो रहे हैं.’

सितम्बर 2016 “कुपोषण की स्थिति” पर मध्य प्रदेश सरकार ने श्वेत-पत्र लाने की जो घोषणा की थी उसका भी कुछ आता-पता नहीं है. इसके लिए समिति का गठन किया जा चुका है, लेकिन इसकी अभी तक एक भी बैठक भी नहीं हो पाई है.

तमाम प्रयासों के बावजूद मध्य प्रदेश आज भी शिशु मृत्यु दर में पहले और कुपोषण में दूसरे नंबर पर बना हुआ है, जो कि सरकार की लापरवाही, अक्षमता और यहां जड़ जमाए भ्रष्टाचार की स्थिति को दर्शाता है. ज़ाहिर है इसमें भ्रष्टाचार का बड़ा खेल है जिसका ज़िक्र अदालत द्वारा अपनी सुनवाई और कैग की रिपोर्टों में लगातार किया जाता रहा है.

(जावेद अनीस भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. उनसे javed4media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

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