मौलवी मोहम्मद बाक़िर : अंग्रेज़ी हुकूमत में शहीद होने वाले पहले भारतीय पत्रकार

Beyond Headlines
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मौलवी बाक़िर 1857 की क्रांति के पहले पत्रकार थे जिनके नाम से ब्रिटिश सरकार थरथर कांपती थी. आज़ादी की लड़ाई में पत्रकारिता के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई मौलवी मोहम्मद बाक़िर ने…

By Tushar Parashar

“क़लम…

हथियार तो बहुत से हैं

मगर, क़लम सी तलवार नहीं

क्रन्तिकारी परिवर्तन लाए

पत्रकार की शान यही.”

भले ही आज देश की मीडिया अपनी विश्वसनीयता को लेकर बड़े संकट से गुज़र रही है. फिर चाहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया. सब बस आज एक व्यवसाय बन गए हैं और सब मीडिया की मूल बातें छोड़कर पैसे कमाने की होड़ में लगे हुए हैं. मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता था पर आज उसकी परिभाषा ही अब बदल गई है. अब चैनल और अख़बार को चलाने का न कोई मिशन है और न ही कोई आन्दोलन, ये बस पैसे कमाने का एक ज़रिया बन गया है. ‘जो बिकता है, वही दिखता है’ के इस दौर में पत्रकारिता अब केवल व्यवसाय है, जिस पर किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, बल्कि बड़े और छोटे व्यावसायिक घरानों का क़ब्ज़ा है. कुल मिलाकर मीडिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, वो केवल पूंजीवाद को बढ़ावा देना है और इसके ठीक होने की अब कोई उम्मीद नज़र नहीं आती.

लेकिन वो समय था जब आज़ादी की लड़ाई जारी थी. उस समय उस लड़ाई में पत्रकारों और पत्रकारिता ने बहुत ही अहम भूमिका निभाई. उस दौर को पत्रकारिता का स्वर्णकाल भी कहा जाता था. इस दौर में मीडिया बिकाऊ नहीं थी, बल्कि सच में एक ऐसा आईना थी, जिसमें लोगों को समाज की वो सच्चाई दिखती थी जो उनके लिए देखना बेहद ज़रूरी था. आज़ादी की लड़ाई में पत्रकारिता के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई मौलवी मौहम्मद बाक़िर ने. मौलवी बाक़िर 1857 की क्रान्ति के पहले शहीद पत्रकार थे, जिसके नाम से ब्रिटिश सरकार थरथर कांपती थी. 

1857 की क्रांति में मौलवी मौहम्मद बाक़िर एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपनी पत्रकारिता से विद्रोह किया. ये भी कहा जाता है कि उन्होंने बिना तलवार उठाए अपनी क़लम की ताक़त से अंग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया था.

कौन थे मौलवी मोहम्मद बाक़िर

मौलवी मोहम्मद बाक़िर का जन्म 1790 में दिल्ली के एक रसूखदार घराने में हुआ. मोहम्मद बाक़िर चर्चित इस्लामी विद्वान के साथ-साथ फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेज़ी के जानकार थे. उस समय के प्रमुख शिया विद्वान मौलाना मोहम्मद अकबर अली उनके वालिद थे. धार्मिक शिक्षा हासिल करने के बाद मौलवी बाक़िर ने दिल्ली कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की. बाद में उन्होंने उसी कॉलेज में फ़ारसी पढ़ना शुरु किया और उसके बाद उन्होंने आयकर विभाग में तहसीलदार का ओहदा संभाला. पर इन कामों में मौलवी का मन नहीं लगता था. इसी समय 1836 में जब सरकार ने प्रेस एक्ट में संशोधन कर लोगों को अख़बार निकालने का अधिकार दिया तो मौलवी मोहम्मद बाक़िर 1837 में देश का दूसरा उर्दू अख़बार ‘उर्दू अख़बार दिल्ली’ के नाम से निकाला जो उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ.

इस साप्ताहिक अख़बार के माध्यम से मौलवी बाक़िर ने सामाजिक मुद्दों पर लोगों को जागरूक करने के अलावा अंग्रेज़ों की नीतियों के विरुद्ध जमकर लिखा. वहीं दिल्ली और आस-पास के इलाक़े में अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जनमत तैयार करने में ‘उर्दू अख़बार दिल्ली’ की बड़ी भूमिका रही थी.

1857 की क्रांति में ‘उर्दू अख़बार दिल्ली’ की भूमिका

जहां एक तरफ़ मौलवी बाक़िर ‘उर्दू अख़बार दिल्ली’ के ज़रिए भारतीयों को आज़ादी का सपना दिखा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ़ भारतीय सेनानियों ने क्रांति छोड़ दी. इसके चलते स्वतंत्र भारत का सपना कहीं दूर होता जा रहा था. लेकिन इसे देखकर मौलवी घबराए नहीं बल्कि वे और सक्रिय हो गए. अख़बार के ज़रिए मौलवी ने अंग्रेज़ों की लूटमार और ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ खुलकर लिखना शुरु किया. यह भी माना जाता है कि इस अख़बार के तीखे तेवर ने बाक़ी अख़बारों के संपादकों और लेखकों के अंदर आज़ादी का जोश भर गया था. वहीं अख़बार में आज़ादी के दीवानों की घोषणा पत्रों और धर्म गुरुओं के फ़तवे को भी जगह दी जाती थी.

बता दें बाक़िर ने कई बाग़ी सिपाहियों को मेरठ से दिल्ली बहादुर शाह ज़फ़र तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. जब अंग्रेज़ों को इस बात की भनक पड़ी तो बाक़िर उनकी नज़रों में चढ़ गए जिस वजह उनका अख़बार और जीवन दांव पर लग चुका था, लेकिन वह डरे नहीं बल्कि डटे रहे और अपने काम को करते रहे. बाक़िर हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्ष में थे. वे अपने अख़बार में जहां एक तरफ़ हिन्दू सिपाहियों को अर्जुन और भीम बताते थे, वहीं दूसरी तरफ़ मुस्लिम सिपाहियों को रुस्तम, चंगेज़ और हलाकू जैसे अंग्रेज़ों पर कहर बरपाने की बात करते थे. इसी के साथ ‘उर्दू अख़बार दिल्ली’ ने बाग़ी सिपाहियों को सिपाही-ए-हिन्दुस्तान की संज्ञा भी दी.

आज़ादी की लड़ाई में शहीद होने वाले पहले भारतीय पत्रकार थे बाक़िर

1857 की क्रांति में न जाने कितनी मांओं की गोद सूनी हुई. कितनी औरतों ने अपने सुहाग की आहुति चढ़ा दी. इसके बावजूद भी क्रांति की ये आग दहकती रही. इन्हें दबाने के लिए अंग्रेज़ों का अत्याचार बढ़ता जा रहा था. लेकिन ये आग कम होने का नाम नहीं ले रही थी.

अंग्रेज़ों ने बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को बंदी बनाकर दिल्ली पर अपना दोबारा क़ब्ज़ा कर लिया. इसके बाद ब्रिटिश ताक़तों ने एक-एक भारतीय सिपाहियों को ढूंढ-ढूंढ कर कालापानी, फांसी और तोपों से उड़ाने का काम करने लगी. इसी के चलते अंग्रेज़ों ने 14 सितम्बर 1857 को मौलवी मोहम्मद बाक़िर को भी गिरफ्तार कर लिया और उन्हें 16 सितम्बर को कैप्टन हडसन के सामने पेश किया गया और कैप्टन हडसन ने मौलवी मोहम्मद बाक़िर को मौत का फ़रमान सुनाया दिया और दिल्ली गेट के सामने मौलवी को तोप से उड़ा दिया गया. हालांकि कुछ लोगों का मानना यह भी है कि मौलवी साहब को तोप से नहीं बल्कि फांसी दी गई थी.

मौलवी बाक़िर को हमारा शत-शत नमन!

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