सावित्रीबाई फुले याद हैं, लेकिन फ़ातिमा शेख़ को कैसे भुला सकते हो?

Beyond Headlines
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By Khurram Malick

सावित्रीबाई फुले आज अपने जन्मदिन की वजह से ट्विटर पर टॉप ट्रेंड्स में शामिल हैं. लेकिन जब सावित्रीबाई फुले को आज याद किया जा रहा है और बताया जा रहा है कि ये पहली महिला हैं जिन्होंने लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला. तो ऐसे में फ़ातिमा शेख़ को कैसे भुलाया जा सकता है? मेरे ज़ेहन में बार-बार ये सवाल उठता है कि आख़िर फ़ातिमा शेख़ अब तक गुमनाम क्यों हैं?

सच पूछें तो अगर फ़ातिमा शेख़ न होतीं तो शायद सावित्रीबाई फुले के लिए स्कूल खोल पाना इतना आसान नहीं था. फ़ातिमा शेख़ ने ही ज्योतिबा और सावित्री फुले की स्कूल खोलने की मुहिम में उनका साथ दिया तो ये काम संभव हो पाया.

कहा जाता है कि उस ज़माने में बच्चों को पढ़ाने के लिए टीचर मिलना बहुत मुश्किल होता था. फ़ातिमा शेख़ ने ये काम आसान कर दिया. स्कूल खोलने के लिए न सिर्फ़ जगह दिया बल्कि इस स्कूल में पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी खुद के कंधों पर ले ली.

सिर्फ़ इतना ही नहीं, फुले के पिता ने जब दलितों और महिलाओं के उत्थान के लिए किए जा रहे उनके कामों की वजह से उनके परिवार को घर से निकाल दिया था, तब फ़ातिमा शेख़ के बड़े भाई उस्मान शेख़ ने  उन्हें अपने घर में जगह दी. बताया जाता है कि ये स्कूल उस्मान शेख़ के घर पर ही चलता था.

ये वो दौर था जब महिलाओं को तालीम से महरूम रखा जाता था. पिछड़ी जातियों पर तालीम के दरवाज़े बंद थे. ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने इसके लिए आवाज़ बुलंद की, लेकिन इन्हें अपने इस क़दम का न सिर्फ़ विरोध झेलना पड़ा, बल्कि इन पर जानलेवा हमले भी हुए. क्योंकि अगड़ी जातियों को कभी भी यह गवारा नहीं था कि पिछड़ी जातियां शिक्षित हों.

ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा के लिए जो अलख जगाई उसकी आंच आज भी सुलग रही है. ज़रा सोचिए, सन् 1848 में उस्मान शेख़ के घर अगर लड़कियों का पहला स्कूल न खुला होता तो आज क्या होता.

लेकिन ये भी सोचने का विषय है कि एक तरफ़ आज जब सावित्रीबाई फुले को सम्मान दिया जा रहा है तो ऐसे समय में फ़ातिमा शेख़ को इतिहास से दरकिनार क्यों किया जा रहा है? कहीं कोई पोस्ट, कोई ट्वीट फ़ातिमा शेख़ के बारे में नज़र क्यों नहीं आ रहा है. क्या फ़ातिमा शेख़ को इसलिए याद नहीं किया जा रहा है, क्योंकि वो एक मुस्लिम महिला थीं? आज जब मुस्लिम-दलित भाईचारे की बात हो रही है तो क्या ऐसे समय में दलित भाई इस भेदभाव पर आवाज़ उठाएंगे?

इसमें कोई शक नहीं है कि हम सावित्रीबाई फुले के बलिदानों को हमेशा याद रखेंगे, लेकिन उनके इस बलिदान में तब चार चांद लग जाता तब उनकी सहेली, मोहसिन, दुख-सुख की साथी फ़ातिमा शेख़ की भी बात होती. उनके बलिदानों को भी याद किया जाता. उनको भी वही सम्मान मिलता, जो सावित्रीबाई फुले को मिल रहा है. काश! टॉप ट्रेंड में उनका भी नाम होता.

(लेखक पटना में एक बिजनेसमैन हैं. ये उनके अपने विचार हैं.)

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