वोट बैंक की राजनीति से कब उबरेगा मुस्लिम समाज?

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Rajiv Sharma for BeyondHeadlines 

कुछ ही दिन हुए भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने टेलीविज़न पर एक बातचीत में कहा था कि हमें पता है कि मुस्लिम समाज हमें वोट नहीं देता, लेकिन फिर भी हम उनका विरोध नहीं करते. पहली बात तो ये कि यह बात सरासर झूठी है. समय-समय पर ये मिथक टूटा है. सबसे पहले 1977 में ऐसा हुआ, फिर 1998 में और उसके बाद 2014 के लोकसभा चुनावों में. 

सन् 2014 में जिसे मोदी लहर कहा गया था उसमें उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के दूसरे हिस्सों में भी मुस्लिम युवाओं ने भाजपा और मोदी की झोली वोटों से भर दी. यदि ऐसा न होता तो ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश में चुनाव परिणाम इतने एकतरफ़ा न होते. यह वही मुस्लिम युवा हैं जो देश की 65 फ़ीसदी युवा आबादी का हिस्सा है और उसके भी कुछ सपने हैं. 

मुस्लिम युवाओं या समाज ने दो वजहों से भाजपा और मोदी के पक्ष में मतदान किया था. पहली वजह तो यह थी कि मोदी आए तो नौकरी पक्की और दूसरे हर आम भारतीय की तरह सपने पालने वाला यह मुस्लिम युवा भी देश में रोज़-रोज़ सामने आ रहे भ्रष्टाचार के घोटालों से आजिज़ आ चुका था. मुस्लिम युवाओं का नौकरी का सपना तो पूरा हुआ या नहीं हुआ, लेकिन शायद भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम लगी. 

इस तरह यह मिथक तो टूटा है कि मुस्लिम समाज सिर्फ़ कांग्रेस या अन्य पार्टियों का ही वोटर है, लेकिन जागरूकता बढ़ने के बाद भी उसे पहले की तरह ही वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, यह बात आज भी सौ फ़ीसदी सच है. 

भारत में चुनाव धर्म और जाति की आड़ में लड़े जाते हैं, लेकिन इनमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज ख़ास तवज्जो की मांग करता है, क्योंकि यह समाज पिछड़ा हुआ भी है, गरीब भी और अशिक्षित भी.

अब सवाल यह है कि जिस भाजपा सरकार और मोदी को मुस्लिम युवा समाज ने वोट किया, उसके लिए पिछले पांच सालों में किया क्या गया? ऊपर माननीय रविशंकर जी के जिस बयान का ज़िक्र किया गया है, वह बात उन्होंने तीन तलाक़ बिल का ज़िक्र करते हुए कही थी. 

क्या यह तीन तलाक़ ही पिछले पांच सालों में मुस्लिम समाज को सरकार से मिला तोहफ़ा है, जिसके लिए अध्यादेश तक लाए गए हैं. सवाल यह है कि इस क़ानून तक कितनी मुस्लिम महिलाओं की पहुंच होगी? अपने घर-परिवार और उलेमाओं को छोड़कर कितनी महिलाएं क़ानून के रखवालों के चक्कर लगाएंगी. यह काम सिर्फ़ और सिर्फ़ वही महिलाएं करेंगी या कर सकती हैं जिन्हें न तो अपने घर-परिवार-रिश्तेदारी की परवाह हो और न ही अपनी ज़िन्दगी की. वैसे तो मोदी सरकार ने मुस्लिमों के कल्याण के लिए लंबी-चौड़ी योजनाओं की क़तार लगा रखी है, लेकिन ज़मीन पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा. 

इन्हीं रविशंकर प्रसाद जी से एक सवाल और ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि जब उन्हें मुस्लिम समाज का वोट नहीं मिलता और उन्हें इसकी कोई परवाह भी नहीं तो फिर टेलीविज़न पर सजाए जाने के लिए वे अपनी ही ज़ुबान बोलने वाले दो-तीन मुस्लिम नेताओं का इंतज़ाम क्यों रखते हैं, जिनका न कोई ज़मीनी आधार है और न ही वजूद. 

इन नेताओं की मौजूदगी से भाजपा क्या हासिल करना चाहती है. इन नेताओं की संख्या इतनी कम है कि भाजपा तो उनके लिए यह झूठ भी नहीं बोल सकती कि मुस्लिम बहुल इलाक़ों में चुनाव जीतने के लिए मुस्लिम नेताओं की ज़रूरत पड़ती है, इसीलिए ये मुस्लिम नेता उनकी जमात का हिस्सा हैं. क्या इन मुस्लिम नेताओं के भाजपा की ओर से उनके टेलीविज़न पर दिखने से उन्हें कोई मौलिक फ़ायदा होता है. 

असल में ये सभी नेता एक तरह से भाजपा का मुलम्मा या मुखौटा हैं, जो लगातार अपनी शक्ल दिखाकर यह साबित करते रहते हैं कि एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर मुसलमान भी उसके साथ हैं, लेकिन खुद भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने इसका खंडन कर दिया है. 

हम सिर्फ़ कुछ शहरी मुसलमानों को ही देख-सुन पाते हैं, लेकिन इसी बात से यह अंदाज़ा लगाया जाना चाहिए कि निरीह और गरीब मुसलमान वोट बैंक की राजनीति की चक्की में किस तरह पिस रहा है. यही मुस्लिम समाज देश का सबसे पिछड़ा हुआ और गरीब तबक़ा है इसीलिए उसका वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करना बेहद आसान है. 

इस बार तो उस समय इस खेल ने तब सारी हदें पार कर दीं जब मेनका गांधी अपने चुनावी क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं को सरेआम यह धमकी देती नज़र आईं कि यदि उन्हें उनके चुनाव जीतने के बाद उनसे कोई काम लेना है तो वे उन्हें ही वोट करें. यानी मेनका गांधी मतदाताओं से सशर्त वोट मांग रही थीं. अगर वोट दोगे तो चुनाव के बाद आपका कोई काम होगा, नहीं तो नहीं होगा. 

अल्पसंख्यकों के लिए ऐसा तीखा और कड़ा रुख इस लोकतंत्र में आज तक किसी लोकसभा चुनाव में देखने को नहीं मिला है. एक ऐसा भगवाधारी मुख्यमंत्री भी यह देश शायद पहली ही बार झेल रहा है जो सरेआम यह ऐलान करता है कि एक हाथ में माला रखते हैं तो दूसरे हाथ में भाला भी.

यह तो हुई भाजपा की बात, लेकिन 60 वर्षों के शासन में मुस्लिमों का सबसे ज़्यादा दोहन कांग्रेस ने ही किया है. भाजपा बार-बार कांग्रेस पर मुस्लिमों के प्रति तुष्टीकरण का आरोप लगाती है. यह आरोप सही है तो गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे करोड़ों अल्पसंख्यक मुसलमानों की हालत आज भी जस की तस क्यों है? उन्हें आज तक क्यों कुछ नहीं मिला? 

कांग्रेस के राज में ही अल्पसंख्यक मुसलमानों को गरीबी की रेखा के नीचे से ऊपर उठाने के लिए अनेकों कमेटियां और आयोग बने. जब भी इनकी रिपोर्टों की चर्चा होती है तो यही कहा जाता है कि वे तो न जाने कहां धूल फांक रही हैं. इस राजनीतिक साज़िश को अंजाम देने के लिए राजनीतिक पार्टियों ने अपने फ़ायदे के लिए दो शब्द भी गढ़े-धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता. कांग्रेस इन शब्दों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती है, लेकिन इन शब्दों के बीच की लकीर इतनी बारीक कर दी गई है कि पता ही नहीं चलता कौन कब किधर चला गया. 

कभी कोई मुस्लिमों की राजनीति करता हुआ सांप्रदायिकता की तरफ़ चला जाता है और कभी कोई हिंदुओं की राजनीति करता हुआ. यही हाल धर्मनिरपेक्षता का भी है. इन दो शब्दों की तयशुदा परिभाषाएं हैं जो बड़े-बड़े शब्दकोषों में भी दर्ज हैं, लेकिन भारतीय राजनीति में इन दो लफ़्ज़ों का मतलब कोई नहीं जानता. सबकी अपनी-अपनी सांप्रदायिकता है और अपनी-अपनी धर्मनिरपेक्षता! 

इसी के चलते देश के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीति उस जगह पहुंच गई कि वोटों का ध्रुवीकरण होने लगा. हिन्दू का वोट हिंदुत्व के एजेंडे पर चलने वाली भाजपा को पड़ने लगा और मुस्लिमों के वोट कांग्रेस और अन्य पार्टियों को. धर्म के बाद आने वाली जातियां उससे भी ऊपर निकल गईं और उन्होंने राजनीतिक ध्रुवीकरण को और बड़ा और कड़ा बनाने का काम किया. धर्म और जाति ही यह तय करने लगे कि किसका वोट किसे पड़ेगा.

इस ध्रुवीकरण पर सच का एक ठप्पा तब लगा जब सन् 2014 के चुनाव में कांग्रेस ने शर्मनाक हार के बाद उसकी वजह तलाशने के लिए ए.के. एंटनी कमेटी बनाई. इस एंटनी कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया कि एक आम हिंदू अब कांग्रेस को मुसलमानों की पार्टी मानता है, इसलिए उसने कांग्रेस को वोट देना बंद कर दिया है. 

ज़ाहिर है कि यह एक कांग्रेस की ही बनाई हुई कमेटी का उसी के लिए एक हैरतअंगेज़ खुलासा था. जब यह रिपोर्ट आई तो नेताओं से लेकर मीडिया तक ने इस पर कोई संशय दिखाने के बजाए इस पर भरोसा किया. कांग्रेस को तो इस पर भरोसा करना ही था. 

इसका राजनीतिक असर यह हुआ कि नरेंद्र मोदी को जिस मुस्लिम टोपी से परहेज़ था राहुल गांधी ने वह तो पहनकर दिखा दी, लेकिन साथ ही वह जनेऊ पहनकर इस चुनाव में खुद को दत्तात्रेय ब्राहम्ण बताते हुए मंदिर-मंदिर घूमने लगे. अचानक या काफ़ी सोच-विचारकर चुनाव प्रचार में उतारी गईं उनकी बहन प्रियंका वाड्रा ने भी यही किया. वे जहां भी गईं मंदिर में पूजा करना नहीं भूलीं. ये कांग्रेस का नया चेहरा-मोहरा है, लेकिन पिछले 60 सालों में तो वह लगातार धर्मनिरपेक्षता की ही अलंबरदार रही है और मुस्लिमों के प्रति ज्यादा नरमदिल भी. फिर कांग्रेस 60 सालों में इस अल्पसंख्यक और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी के नीचे का जीवन जीने वाले आम मुसलमान का कोई भला क्यों नहीं कर पाई? 

अब तक इस देश में दो-चार बार अन्य दलों की जो सरकारें रही हैं, वे तो बहुत थोड़े समय के लिए रही हैं, लेकिन कांग्रेस ने तो इस देश पर दशकों राज किया है और वह भी मुसलमानों की मेहरबानी से. कांग्रेस के पास मुस्लिमों का भला चाहने वाले मुस्लिम नेताओं की लंबी क़तार भी है. फिर भी यदि भारत के आम मुसलमान का यह हाल है तो उसके लिए सबसे ज्यादा कांग्रेस ही ज़िम्मेदार है.

इसके लिए बहुत कुछ कांग्रेस की वंशवादी राजनीति भी ज़िम्मेदार है. उसने अपनी राजनीति में कभी ज़मीन से जुड़े उन मुस्लिम नेताओं को पनपने का मौक़ा ही नहीं दिया जो कांग्रेस के साथ-साथ मुस्लिमों का भी भला कर सकते थे. उसने मुस्लिम नेता भी चुने तो गुलाम नबी आज़ाद और सलमान खुर्शीद जैसे, जिन्हें कभी अपने भले से ही फ़ुरसत नहीं थी. कांग्रेस गुलाम नबी आज़ाद जैसे मुस्लिम नेताओं को किसी भी क़ीमत पर किसी के भी समर्थन से चुनवाकर राज्यसभा भेजती रही और उन्हें वहां पार्टी का नेता भी बनाती रही. आप स्वयं यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि गुलाम नबी आज़ाद जैसे नेता सदन में पार्टी का नेता बनकर आम मुस्लिम का क्या भला कर सकते हैं! उन्हें तो एक बार राज्यसभा पहुंचने के बाद इस बात की चिंता सताने लगती होगी कि अगली बार वहां पहुंचने का जुगाड़ क्या होगा? 

दो बार देश के प्रधानमंत्री रह गए मनमोहन सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन में सिर्फ़ एक बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और हार गए. उसके बाद यह जोखिम नहीं उठाया गया. उनका जन्म पाकिस्तानी पंजाब का है, लेकिन वे राज्यसभा में असम से चुनकर आते हैं. ऐसे बिना जनाधार वाले नेता देश को क्या समझते होंगे और उसका क्या भला कर सकते हैं, यह खुद ही समझा जा सकता है. 

इसी के अनुसार अल्पसंख्यक गरीब मुसलमानों के हाल को समझा जा सकता है. हमने ऊपर वंशवादी राजनीति का ज़िक्र किया है यह भी किसी एक पार्टी की समस्या नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी रोज़ ही वंशवाद पर हल्ला बोल रहे हैं, लेकिन वे यह बिल्कुल भूले रहते हैं कि पंजाब में वह जिस अकाली दल से हाथ मिलाए हुए हैं, उसे सिर्फ़ पिता, पुत्र और बहु ही चला रहे हैं और उसे सिर्फ़ उनकी ही बपौती माना जाता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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