लालू प्रसाद यादव के नाम एक खुला ख़त…

Beyond Headlines
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आदरणीय लालू यादव प्रसाद जी,  

अभी चुनाव परिणाम आया है. पार्टी की बड़ी हार हुई है. इसलिए सभी लोग बहुत दुख में हैं. इसलिए पत्र लिखने के लिए यह उचित समय नहीं था. लेकिन मेरी समझ से पत्र लिखने का यही उचित समय है, क्योंकि जब ज़ख्म हरा होता है तब ही ये ज़रूरी है कि उसका उपचार हो जाए. 

पत्र लिखना इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि यही एक मात्र स्रोत है जिसके माध्यम से अपनी बात पहुंचा सकता हूं. क्योंकि आवास पर मानवरूपी इतने फाटक लगे हुए हैं कि मेरे जैसे एक मामूली इंसान के लिए उस फाटक को भेदकर आवास तक पहुंचना लगभग नामुमकिन है. 

पिछले साल एक बार भेदने का कोशिश किया था मगर असफल रहा था. लेकिन हम लालू यादव के सामाजिक न्याय के फॉर्मूला से इतने प्रेरित हो चुके है कि बिना शीर्ष नेतृत्व से मिले भी अपने स्तर पर आपके विचारों को लोगों तक पहुंचाने का एक असफल ही सही मगर प्रयास जारी रखते हैं. लेकिन आज जब परिणाम आया तब पत्र लिखने के लिए विवश हुआ. आशा है कि कोई भी बंधु यह पत्र आदरणीय लालू यादव जी के पास पहुंचा देंगे. 

जब लालू प्रसाद यादव 1990 में बिहार की सत्ता में आए थे, तब अलग-अलग समुदायों में नेतृत्व उभारने का प्रयास किया था. यादव, कोइरी, कुम्हार, हजाम, नोनिया, धोबी, डोम, चमार, मल्लाह, बनिया, पूर्वे, सभी दलों में एक नेतृत्व का उभार किया था. यह नेतृत्व सिर्फ़ ऐसा नहीं था जो कि विधायक या संसद बन सके. बल्कि यह नेतृत्व अपने दम पर वोट ट्रान्सफर कराने की क्षमता भी रखता था. यहां तक कि राजपूत, वैश्य, पंडित में भी राजद के पास मज़बूत नेता थे. बल्कि वह नेता सिर्फ़ ट्वीटर पर पोस्ट लिखने के लिए नहीं बल्कि रघुनाथ झा, सीताराम सिंह, बृजबिहारी प्रसाद के रूप में वोट ट्रान्सफर कराने वाले नेता थे. 

मुझे आज यह बात बोलने में थोड़ी भी हिचक नहीं है कि राजद के पास तेजस्वी के बाद पिछड़ी जाति में कोई भी सेकंड लाईन का नेता नहीं है. कभी भी जनमत एक युवा ही तैयार कर सकता है. क्या राजद ने कभी कोशिश किया है कि अलग-अलग जतियों से युवा नेतृत्व को उभारकर एक प्रयोग किया जाए? क्योंकि केवल नीतीश और भाजपा को कोसकर सत्ता में वापसी बहुत मुश्किल है. समाजवाद को जीवित रखने के लिए समाज के भीतर से युवा नेतृत्व उभारना पड़ेगा. 

राजद स्वयं को एक विचारधारा की पार्टी मानती है. मैं भी बहुत हद तक इस बात को मानने को तैयार हूं. लेकिन विचारधारा का फैलाव समाज में कैसे होता है? क्या बिना छात्र और युवा राजनीति को सशक्त किए विचारधारा का फैलाव संभव है? 

आपने गोपालगंज से रायसीना में लिखा है कि पटना विश्वविधालय में आने के बाद ही आपके भीतर की राजनीतिक चेतना जागृत हुआ था और आपके मस्तिष्क में एक विचारधारा ने स्थान बनाना शुरू किया था. लेकिन, ईमानदारी से सोचा जाए तो आज राजद के पास कोई छात्र विंग या यूथ विंग नहीं है. जब तक छात्रों के मन में विचारधारा का इंजेक्शन नहीं दिया जाएगा तब तक समाज के अंतिम पायदान तक बातें नहीं पहुंच सकती है. फिर एबीवीपी या बजरंग दल के लोग कामयाब क्यों नहीं होंगे? 

यह कितनी शर्म की बात है कि बिहार की मुख्य विपक्षी दल राजद के पास पटना विश्वविधालय में कोई ढ़ंग का संगठन नहीं है. सबसे बड़ी बात है कि आलाकमान कभी भी इस तरफ़ सोचना भी नहीं चाहते हैं. मुझें नहीं मालूम अभी छात्र विंग किसके पास है लेकिन पिछली बार जो लड़का था वह स्वयं को छात्र नहीं समझकर पार्टी सुप्रीमो ही समझ बैठा था. यूथ विंग का तो खैर पूछिए ही मत. यह विंग रैलियों के भीड़ को छोड़ कभी वैचारिक काम के लिए खड़ी नहीं हुई.  

2014 का लोकसभा चुनाव था. प्रत्याशियों की घोषणा हो रही थी. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव स्वयं मीडिया के बीच आए और प्रत्याशियों की घोषणा किए. लेकिन 2019 में क्या हुआ? गठबंधन के सीटों का घोषणा होना था. उस दिन पार्टी के सबसे बड़े नेता तेजस्वी यादव को मीडिया के सामने होना चाहिए था. लेकिन तेजस्वी की जगह प्रो. मनोज झा, अबू दोजाना, फ़ैयाज़ अहमद जैसे बिना जनाधार के नेता मीडिया के सामने सीट बंटवारे की घोषणा करते हैं. जबकि दूसरी तरफ़ दिल्ली में नीतीश कुमार, राम विलास पासवान और अमित शाह संयुक्त रूप से प्रेस वार्ता कर सीटों की घोषणा कर रहे थे. मेरी यह बातें बहुत छोटी लग रही होगी, मगर आम जनमानस पर पहला प्रभाव यही पड़ा कि नेता गठबंधन को लेकर भी बहुत सीरियस नहीं है. 

शिवहर लोकसभा क्षेत्र में हेलीकाप्टर से प्रत्याशी उतारा गया था. कार्यकर्ता रोष में थे. भारी संख्या में कार्यकर्ता पटना स्थित आवास पर पहुंचे हुए थे. सुबह से सभी लोग तेजस्वी से मिलने के लिए इंतज़ार में थे. लेकिन तेजस्वी कार्यकर्ताओं से बिना मिले हुए पीछे के दरवाज़े से सीधे चुनाव प्रचार के लिए निकल गए. आज तक कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर बहुत रोष है. 

उदाहरण के लिए यह एक घटना काफ़ी है. ऐसे दर्जनों घटनाएं हुई हैं. जिस पर चर्चा करके चुनाव की असफलता का मूल्यांकन किया जा सकता है. जब नेता और कार्यकर्ताओं के बीच में संवाद नहीं होगा तब तक ज़मीनी स्थिति को समझना बहुत मुश्किल है. मगर संवाद करेगा कौन? पार्टी के ज़िला अध्यक्ष और विधायक फ़िल्टर करके उतनी बात ही पहुंचाते हैं जितनी उसके टिकट बचे रहने तक की उम्मीद बची होती है. इसलिए एक छोटा सा सुझाव है कि अभी विधानसभा चुनाव में लगभग डेढ़ साल बाक़ी है. इन डेढ़ सालों में पार्टी के शीर्ष नेताओं को पटना का रास्ता भूलकर गांवों की तरफ़ निकलना चाहिए और एक-एक प्रखण्ड का दौरा करके जनसंवाद शुरू कर देना चाहिए.  

पाटलीपुत्र से मीसा भारती को उम्मीदवार बनाने से सिर्फ़ पाटलीपुत्र का नुक़सान नहीं हुआ है. मधुबनी, नवादा, चम्पारण और मधेपुरा के गांव-देहातों में इस बात की खूब चर्चा होती थी कि जिस राजयसभा को आधार बनाकर रामकृपाल को टिकट नहीं दिया गया था, उसी आधार पर आखिर मीसा को टिकट क्यों दिया गया? 

इस तरह की चर्चा गांव में बहुत आम थी. मगर इसके बारे में भी कोई जानकारी आपको नहीं होगी. क्योंकि आपसे मिलने वाले लोग इस तरह की बातों को आप तक पहुंचाने की कोशिश ही नहीं करता है. लेकिन यादव मतदाताओं को तोड़ने में यह बात काफ़ी कारगर साबित हुआ है. जब लगातार परिवारवाद का आरोप लग रहा था उस स्थिति में पहले से राज्यसभा सदस्य मीसा भारती को उम्मीदवार बनाना किसी भी प्रकार से न्यायोचित फैसला नहीं था. एक प्रकार से यह जानबूझकर आत्महत्या करने का फ़ैसला था. अब बिहार के यादव मतदाता भी यह समझ रहा है की भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष, प्रदेश प्रभारी और 5-6 सांसद यादव जाति से मिल रहा है. 

यह दौर 1990 का नहीं है. समाज को एक सशक्त नेतृत्व की ज़रूरत है. ऐसे नेताओं की ज़रूरत है जो घुटनों पर चलकर समाज के बीच जाए और समाज के मुद्दों पर संवाद करे. तेजप्रताप ने पार्टी के नेतृत्व के विरुद्ध जाकर कई बड़े फैसले और बयान दिए. यह एक समय था जब देवगौड़ा जी की तरह तेजप्रताप यादव के विरुद्ध पार्टी को एक मज़बूत फैसला लेना था. जब एचडी कुमारास्वामी ने मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपा से तालमेल किया था तब देवगौड़ा ने भी खुद को कुमारस्वामी से अलग कर लिया था. यह बात भी समाज के बीच में बहुत चर्चा में था कि तेजप्रताप लगातार पार्टी विरोधी गतिविधि में संलिप्त है, मगर पार्टी से नहीं निकाला गया. मगर अली अशरफ़ फ़ातमी को तुरंत निकाल दिया गया. चुनाव के बीच में तेजप्रताप के विरुद्ध एक फैसला लिया जाना चाहिए था. फैसला नहीं लेना भी पार्टी के कमज़ोर नेतृत्व को साबित कर रहा था. 

देश की लगभग दो दर्जन पार्टियां चुनाव हारी हैं. सभी पार्टियों ने विधिवत रूप से मीडिया के सामने आगे आकर अपनी हार को क़बूल किया है. यह सही समय था जब पार्टी का शीर्ष नेतृत्व एक प्रेस वार्ता बुलाता और अपनी बात मीडिया के सामने रखता. इससे पार्टी के कार्यकर्ताओं में भी मोटिवेशन मिलता. चुनाव परिणाम के दिन शाम में ही आवास का दरवाज़ा खोल दिया जाता और एक जनसंवाद किया जाता और हार के कारणों पर कार्यकर्ताओं से सीधे बात की जाती. इससे कार्यकर्ताओं का हौसला बना रहता. पार्टी के विधायकों से शाम तक उसके विधानसभा में पिछड़ने के कारणों पर रिपोर्ट लिया जाना चाहिए था. 

मैं बहुत आश्चर्यचकित हूं कि राजद की तरफ़ से मात्र एक ट्वीट करके हार को स्वीकार किया गया. भाजपा ने पारंपरिक राजनीति के रूप को बदल दिया है. वह अपने भाषणों और मीडिया वार्ता में कार्यकर्ताओं के बलिदानों और मेहनतों का बखान किए बिना नहीं थकती है. इसलिए ही उसके कार्यकर्ता मरने-पीटने को तैयार बैठे होते हैं. राजद को उस मनोविज्ञान को समझना पड़ेगा. अब कार्यकर्ता भी सम्मान चाहता है. 

अंत में एक बात कहना चाहते हैं कि लालू यादव का सन 1990 से सन 2000 के बीच का तिलिस्म टूट चुका है. एक आम कार्यकर्ता के रूप में समाज के बीच जाने पर इस बदलाव का आभास होता है. यदि ऐसा नहीं होता तब राजद का मत प्रतिशत 15.36% नहीं होता. इससे यह बात साबित हो चुका है कि मुस्लिम मतदाताओं को छोड़कर राजद के पास किसी भी दूसरे समुदाय का वोट यथावत नहीं है. 

मुसलमान भी किसी विकल्प की तैयारी में है. शायद जिस दिन मुसलमानों को विकल्प मिला कि खेल समाप्त. इसलिए आवास के मानवरूपी फाटक को तोड़कर परिवारिक मोह से बाहर निकलकर समाज से संवाद स्थापित करके समाज के बीच से नये नेतृत्व का उभार करे. वापसी करने का यही आख़िरी और सही रास्ता है… 

आपका अपना…

तारिक़ अनवर चम्पारणी

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