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तो क्या अब मस्जिद अल-अक़्सा को ध्वस्त कर इसे मंदिर बनाया जाएगा?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 5, 2019
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7 Min Read
Photo by : Sundus
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By Dr Mohammad Makram Balawi

मेरे एक दोस्त के पास एक बहुत ही ‘नायाब तोहफ़ा’ है. वो अपनी ज़िन्दगी की किसी घटना को, चाहे उसकी शादी हो, उसके बच्चों का जन्मदिन हो, उसके ग्रेजुएट होने की तारीख़, अपनी नौकरी खोने का समय, या फिर कोई भी दर्दनाक हादसा, सबको फ़िलिस्तीनी इतिहास से जोड़ कर देख सकता है.

मिसाल के तौर पर वह आपको बताएगा कि उसकी बेटी का जन्म उसी दिन हुआ था जिस दिन महमूद अबू हन्नौद की हत्या इज़रायली प्राधिकारियों के ज़रिए कर दी गई थी. या ये कि वह उस तारीख़ को अपना नया बिज़नेस शुरू करना नहीं चाहता था क्योंकि उस दिन शेख़ अहमद यासीन की हत्या की वर्षगांठ थी, या यासर अराफ़ात का निधन, इसलिए ये मुनासिब तारीख़ नहीं होगी.

कभी-कभी मेरे दिमाग़ में ये ख़्याल आता है कि मेरी ज़िन्दगी में मेरे क्षेत्र में हुए तमाम जंगों की फ़हरिस्त तैयार करूं, लेकिन ये एक थकाऊ काम है. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि सबसे पहले मुझे किसे याद करना चाहिए.  अक्टूबर, 1973 की इज़रायल के साथ जंग, या  लेबनानी सिविल वार जो 1976 में शुरू हुआ था, या फिर 1982 में लेबनान पर इज़राइल का आक्रमण…

चुनने के लिए तो यहां बहुत कुछ है, लेकिन वो घटना जो किसी की ज़िन्दगी को सीधा प्रभावित करती है, ज़्यादातर वही सबसे ज़्यादा याद आती है. ये मेरा नीजि विचार है कि क़ब्ज़ा एक बदतरीन चेहरा है, और इज़रायल के क़ब्ज़े के साथ मेरी समस्या हक़ीक़त में व्यक्तिगत है. जैसा कि प्रसिद्ध फ़िलिस्तीनी कवि समीह अल-क़ासिम भी कहा करते थे.

अगस्त की शुरूआत में, मैंने अपना 50वां जन्मदिन सेलीब्रेट किया. मेरे पैदा होने के कुछ दिनों बाद देश का तीसरा और फ़िलिस्तीन के सबसे पवित्र स्थान ‘मस्जिद अल-अक़्सा’ में  डेनिस माइकल रोहन नामक एक ऑस्ट्रेलियाई ने आग लगा दी थी. लेकिन एक इज़राइली अदालत ने यह साबित कर दिया कि रोहन, जो उस समय एक इज़राइली कीबुत्स पर रहता था, न तो इज़रायली है और न ही यहूदी. इससे भी आगे जाकर अदालत ने उसे पागल घोषित कर दिया. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, अगर आप इस बात से परिचित हैं कि इज़रायल में “लीगल सिस्टम” कैसे काम करता है.

ख़ैर, जब भी अल-अक़्सा पर आगज़नी की सालगिरह आती है, मैं खुद को बहुत मायूस पाता हूं, ख़ासकर मेरा मन रोज़ होने वाली घटनाओं को लेकर और भी मायूस हो जाता है.  1948 में जब फ़िलिस्तीन पर सबसे बड़े क़ब्ज़ा के बाद जब 1967 में इज़रायल ने वेस्ट बैंक पर भी क़ब्ज़ा कर लिया, तो इसने यरुशलम ख़ास तौर से अल-अक़्सा के आस-पास अपनी पकड़ मज़बूत कर ली. हालांकि ये इलाक़ा जॉर्डन के संरक्षण के तहत है और वेस्ट बैंक को 1948 से 1967 तक जॉर्डन द्वारा प्रशासित किया जा रहा था. या फिर ये कहा जा सकता है कि इज़राइल ने हमेशा ये दिखाने की कोशिश की कि असल मालिक वही है. 

बता दें कि 1993 में जॉर्डन ने इज़रायल के साथ एक शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद भी इज़रायली क़ब्ज़े ने अल-अक़्सा में मुस्लिम उपस्थिति और उनको नियंत्रण करने का काम व्यवस्थित रूप से जारी रखा. क़ब्ज़े वाले इलाक़े के अधिकारियों ने इज़रायली पुलिस की नज़र और सुरक्षा के तहत मस्जिद में यहूदी रहने को इजाज़त दी है.

हालांकि संयुक्त राष्ट्र रिज़ोलूशन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अल-अक़्सा की हरम शरीफ़ एक इस्लामिक स्थल है, फिर भी ये पूरी तरह इज़राइल के नियंत्रण में है. स्टेट ने इज़राइली पुलिस को अल-अक़्सा के दरवाज़ों पर और हरम शरीफ़ के भीतर तैनात करके अल-अक़्सा प्रशासन के ज़रिए नियुक्त फ़िलिस्तीनी गार्ड्स की अहमियत को एक सिरे से ख़त्म कर दिया है. 

बता दें कि यहां 40 साल से कम उम्र, और कभी-कभी 50 साल से कम उम्र के मुसलमानों के अंदर जाने पर पाबंदी है. दूसरी तरफ़ इज़राइली पुलिस हर उम्र के यहूदियों व अन्य धर्म के लोगों को जाने की अनुमति देती है. यही नहीं, यहुदियों को उनके त्योहारों के दौरान अपने धार्मिक कामों को करने की भी इजाज़त दी जाती है. इससे स्वाभाविक तौर पर मुसलमानों के नमाज़ में भी खलल पड़ती है.   

इज़राइल के पूर्व प्रधामंत्री एरियल शेरोन ने तो साल 2000 में ही खुले तौर पर ये संदेश दे दिया कि जल्द ही इज़राइल पूरे तरीक़े से अल-अक़्सा पर क़ब्ज़ा कर लेगा, और फिर इसे ध्वस्त करके इसके खंडहरों पर यहूदी मंदिर बनाया जाएगा. 

2013 में इज़राइल के डिप्टी फॉरेन मिनिस्टर डैनी एयलॉन द्वारा निर्मित “मैजिक ऑफ़   यरुशलम” नामक वीडियो में डोम ऑफ़ द रॉक मस्जिद को अल-अक़्सा के हरम शरीफ़ का अभिन्न अंग दर्शाती है. इसमें ये दिखाया गया है कि इसे एक यहूदी मंदिर द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है. जब इस पर नेगिटिव फीडबैक मिला तो विडियो को संपादित करके फिर से इस ऑनलाइन रिपोरस्ट किया गया था. लेकिन इसके पीछे नीयत का अंदाज़ा बख़ूबी लगाया जा सकता है.    

कुछ दिनों पहले इज़राइल के पब्लिक सिक्यूरिटी मिनिस्टर गिलाद एर्दन ने मांग की कि यहूदियों को अल-अक़्सा की यात्रा करने और उन्हें वहां अपनी प्रार्थना करने की अनुमति दी जानी चाहिए. अभी इसी साल ईद अल-अज़्हा के दिन यहूदियों को हरम शरीफ़ में प्रवेश करने की इजाज़त देने के बाद इज़राइली सुरक्षा अधिकारियों ने 60 से अधिक फ़िलिस्तीनियों को घायल कर दिया. वहीं 17 साल के नासीम अबू रूमी को मार डाला गया.

ज़्यादातर फ़िलिस्तीनी या तो अपने कम से कम एक रिश्तेदार को इज़रायल के क़ब्ज़े वाली ताक़तों के साथ मुठभेड़ में खो चुके हैं, जेल में हैं या उन्हें बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा से वंचित कर दिया गया है. यही इज़राइल के क़ब्ज़े की वास्तविकता है. विदेशी क़ब्ज़े में हर दिन नए दिन की शुरूआत विवरण से परे एक अजीब सा अहसास है.

(लेखक ने ये लेख मिडल ईस्ट मॉनिटर पर लिखा है, उनकी अनुमति के बाद इसका अनुवाद करके इसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है.)

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