क्या शराब पर पीएम मोदी के विचार बदल गए हैं?

Istikhar Ali
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‘मैं आपके साथ यह चिंता प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में साझा कर रहा हूं जो आपके ही बीच में पला-बढ़ा है. क्या आप इस बारे में ख़बर नहीं सुनते कि युवा पीढ़ी ख़ासकर हमारे लड़के शराब और ऐसी चीज़ों के चंगुल में फंस रहे हैं, जिनसे हमारे पूर्वज घृणा करते थे. यदि हम इस प्रवृत्ति को बढ़ते रहने देंगे तो 20-25 साल में हमारा समाज तबाह हो जाएगा.’

ये बातें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मां उमियाधाम आश्रम के उद्घाटन अवसर पर कभी शराब पर चिंता जताते हुए कहा थी. लेकिन क्या अब पीएम मोदी के विचार बदल गए हैं? या फिर ये कह लीजिए कि मोदी जी का समाज को देखने क़ा तरीका बदल गया है. और अगले कुछ सालों में इस बदले समाज को और बदल डालना चाहते हैं.

ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि शराब एक ख़तरनाक नासूर है, जो धीरे-धीरे इंसान ही नहीं पूरे समाज को बर्बाद कर देता है. इसलिए कई धर्मों व समाज में शराब प्रतिबंधित है. चंद राज्यों ने भी शराब बिक्री पर प्रतिबंध लगाया है.

लॉकडाउन में जहां लोगों ने खुद को शराब से दूर रखकर साबित कर दिया कि शराब के बिना भी जिया जा सकता है. वहीं सरकार ने शराब की दुकान खुलने को इजाज़त देकर साबित कर दिया कि शराब के बिना सरकार की अर्थव्यवस्था नहीं चल सकती.

ये सच है कि देश और राज्य के राजस्व में शराब की कमाई का एक बड़ा हिस्सा होता है. लेकिन जब देश इतने बड़े संकट से गुज़र रहा है, उस संकट के सामने तो इस राजस्व की क़ुर्बानी देने के लिए सरकारों को ज़रूर सोचना चाहिए था. क्योंकि इस राजस्व के चक्कर में न सिर्फ़ आप कोरोना संकट को बढ़ावा देने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, बल्कि इसकी वजह से दूसरी कई परेशानियां भी शुरू हो गई हैं.

सच तो ये है कि जब तक शराब की दुकानें बंद थीं तो ख़ास तौर पर गरीब मज़दूर की दो पैसे की बचत थी. वो सोच रहा था कि हाथ में कुछ पैसे हैं, इससे कुछ दिन गुज़ारा तो किया ही जा सकता है. लेकिन जैसे ही उसके सामने शराब मिलने का विकल्प आया, वो तमाम बातें भूल गया. अब नतीजे में सड़कों पर पैदल चल रहा है, क्योंकि उसके पास कुछ बचा नहीं है.

इस लॉकडाउन में वैसे ही घरेलू हिंसा की बेशुमार कहानियां सुनने को मिल रही थीं, लेकिन इस शराब की बिक्री ने इस हिंसा को और भी बढ़ा दिया है. जो मर्द अब तक लॉकडाउन में ठीक-ठाक घरों में बने हुए थे, वो अब जमकर उत्पात मचा रहे हैं. और उनके हिंसा की शिकार उनके घर की महिलाएं ही बन रही हैं. और शराब के नशे में किसी को कोरोना कहां याद रहेगा. ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग क्या है और सफ़ाई से जुड़ी जो आदतें बनी थीं, वो अब ख़त्म होने के कगार पर हैं.

अब तो शराब पीने से मौत की ख़बरें भी फिर से आने लगी हैं. बता दें कि उत्तर प्रदेश के सीतापुर में एक युवक की मौत अधिक शराब पीने की वजह से हो गई. ये युवक लॉकडाउन में आर्थिक तंगी से परेशान था. लेकिन जैसे ही शराब की बिक्री शुरू हुई वो घर से निकल गया और घर शराब के नशे में पहुंचा. घर वालों का कहना है कि अपने इस ग़म में अधिक मात्रा में शराब पी गया. इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई.

उन्नाव के वीरेंद्र प्रताप सिंह की मौत भी इसी शराब की वजह से हो गई. बताया जाता है कि पत्नी से शराब पीने को लेकर कहासुनी और हाथापाई हो गई थी. इसके बाद वीरेंद्र ने खुद को कमरे में बंद करके फांसी लगाकर जान दे दी. ऐसी कई कहानियां लगातार सुनने को मिल रही हैं.

सवाल उठता है कि केन्द्र सरकार का शराब की दुकान खुलवाने के पीछे मक़सद क्या था? क्या केन्द्र सरकार के पास पैसा नहीं था या लोगों के स्वास्थ्य के बजाए कमाई पर ध्यान दिया गया? सरकारी कार्यवाही और इरादों में विरोधाभाष कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है.

शराब स्वाथ्य के लिए ख़तरनाक है. ये बात प्रधानमंत्री से लेकर स्कूल के प्राथमिक किताबों तक में लिखा गया है. जब शराब इतना घातक है तो फिर दुकान खोलने की इजाज़त देकर प्रधानमंत्री ने अपनी प्राथमिकता को स्पष्ट कर दिया. दूसरी तरफ़, भारतीयों (व्यक्तिगत और समूहिक रूप से गरीबों के मदद करने वाले) ने अपने अथक प्रयास से साबित कर दिया कि सरकारी सहयोग के बिना भी काम किया जा सकता है. सरकार के असुनियोजित व्यवस्था के बाद भी लोगों ने कोरोना के महामारी में व्यक्तिगत रूप से गरीबों के साथ खड़े हुए. व्यक्तिगत रूप में सामने आकर इंसानियत की मिसाल क़ायम किया. वहीं लोगों ने अपने थोड़ी कमाई का बड़ा हिस्सा लोगों की मदद में खर्च किया. महीनों बिना रूके और थके दिन-रात पुरज़ोर तरीक़े से लोगों की मदद में जूटे रहे. लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि शराब की बिक्री ने इस काम पर भी कुछ हद तक विराम ज़रूर लगाया है. 

कितने दिनों से बने-बनाए रिश्ते कहीं दम ना तोड़ा दें. क्योंकि लोग सिर्फ़ खाना ही नहीं देते थे, बल्कि दोनों के बीच इंसानियत का रिश्ता भी क़ायम हो गया था. सुबह उठ कर समान लेने निकल जाना, फिर लोगों के मदद से खाना बनाना और पहुंचाना. उसके बाद शाम के इंतेज़ाम में फिर से लग जाना और रात को सोते वक़्त सुबह की फ़िक्र में रहना. उनके बारें में सोचना कि कैसे और क्या किया जा सकता है?

यही सोचते हुए महीनों गुज़र गए, लेकिन सुकून से सोता था. लेकिन शराब बिक्री की ख़बरों ने बेचैन कर दिया. ऐसे महसूस होता है कि जैसे सरकार की एक कार्यवाही ने सारी मेहनत और विश्वास पर पानी फेर दिया.

हद तो ये है कि कोरोना महामारी के वक़्त दुनिया गरीबों के लिए लड़ रही है. वहीं भारत गरीबों से लड़ रही है. कोरोना की लड़ाई में हर बार गरीबों को ही निशाना बनाया जा रहा है, मज़दूरों के साथ दुर्व्यवहार से लेकर शराब की लाईन में खड़े होने तक, गरीबों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार चलाया जा रहा है कि ‘शराब के लिए पैसा है लेकिन रेल भाड़े के लिए नहीं.’

महीनों से ज़्यादा हो गया, ग़रीब अपनी ग़रीबी से लड़ रहा था और देश (देश का मतलब सरकार बिलकुल न समझे) उनके साथ खड़ा था और है. फिर भी देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा मजबूर व लाचार है जिसके पास खाने-पीने और रहने को छत नहीं है. उसके बावजूद सरकारी प्रचार-प्रसार उनके ख़िलाफ़ चलाया जा रहा है.

कोरोना एक बीमारी ही नहीं, एक इंतेहा है जो हर तरीक़े से इंसान को परख रही है. इस इंतेहा में हमेशा की तरह कोई जीतता या कोई हारता, लेकिन विश्वास या इंसानियत का हार जाना समाज के लिए शराब से ज़्यादा ख़तरनाक है. 

(लेखक इस्तिखार अली जेएनयू के सेंटर ऑफ़ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में पीएचडी स्कॉलर हैं. इनसे ISTIKHARALI88@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.)

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