यह ख़बर कुछ दिनों पुरानी है. जान-बूझ कर इसे देर से लिखा जा रहा है. वजह, जाने या अनजाने आप उस टेलीविज़न चैनल को न खंगालें जिस पर गालियां परोसी गई हैं. अगर आप उसे देखेंगे तो न चाहते हुए भी उसे फ़ायदा ही पहुंचाएंगे. और वो चाहते भी यही हैं.
शर्मसार हरकत को अंजाम देने वाला/वाले शख़्स
भूमिका के बाद, बात मुद्दे की. किसी टेलीविज़न डिबेट में एक गेस्ट का दूसरे गेस्ट को गाली दिया जाना अत्यंत निंदनीय है. और जब लब-ए-शीरीं रखने वाला शख़्स पूर्व सेना अधिकारी हो तो इसे अफ़सोसनाक ही कहा जाएगा.
सूत्र बताते हैं कि सम्मानीय अधिकारी टेलीविज़न डिबेट में आने के अलावा जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में सुरक्षा गार्ड भी मुहैया कराते हैं.
मीडिया की भूमिका पर सवाल
सवाल मीडिया की भूमिका पर है. और वह भी पहला. टीआरपी के चक्कर में आप कितने गिर जाएंगे कि टेलीविज़न डिबेट के मान-मर्यादा को ही दांव पर लगा देंगे? डेमोक्रेसी के चौथे खंभे को हिला ही नहीं रहे हो बल्कि उसे गिरा रहे हो आप. किस बात की खिसियाहट है भाई? क्या यहां पर कह दूं कि खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे!
बात किसी एक चैनल की नहीं है. कभी थप्पड़ चलता है तो कभी पानी का गिलास फेंका जाता है. और सबसे बढ़कर नफ़रतों की बौछार की जाती है. तमाशा देखने और दिखाने का सिलसिला चलता रहा तो पता ही नहीं चलेगा कि कब मुख्यधारा की मीडिया दोयम दर्जे की मीडिया बनकर रह जाएगी. जूतम-पैजार की सभा में जज की भूमिका संदेह के घेरे में देखी जाती है.
गाली खाने के लिए हिस्सा लेने का मौक़ा!
मौलवी, पंडित, शिक्षाविद, विद्वान, वरिष्ठ पत्रकार, अत्यंत वरिष्ठ पत्रकार और अत्यंत से भी अत्यंत वरिष्ठ के अलावा दूसरी प्रजातियों को मुआवज़ा मिलता है. कुछ ग़रीब ऐसे भी जिन्हें कुछ भी नहीं मिलता. सिर्फ़ मिलती है तो मिर्ज़ा ग़ालिब की ये पंक्तियां कि…
“कितने शीरीं हैं तेरे लब, कि रक़ीब
“गालियां खा के बे मज़ा न हुआ”
