भारत में कितना मज़बूत है विपक्ष?

Masihuzzama Ansari
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लोकतांत्रिक देशों में विपक्ष की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. विपक्ष का काम जन-विरोधी सरकारी नीतियों का विरोध करने के साथ-साथ प्रतिरोध की आवाज़ों के साथ खड़े रहना और उन्हें मज़बूत करना भी होता है. दुर्भाग्य से भारत का विपक्ष अपने इस रोल को भूल गया है या सत्ता पक्ष द्वारा डरा दिया गया है.

भारत में केन्द्रीय या राज्य स्तर पर विपक्ष की मज़बूत आवाज़ों का अकाल सा पड़ गया है. विपक्ष की ताक़त को देश में कहीं भी महसूस नहीं किया जा रहा है. जनता के बीच से उठने वाली प्रतिरोध की आवाज़ों को दबाया जा रहा है, उन पर गंभीर धाराओं में मामला दर्ज किया जा रहा है, उन्हें जेल में डाला जा रहा और विपक्ष कहीं नज़र नहीं आता.

शाहीन बाग़ आन्दोलन से किसान आन्दोलन तक विपक्ष शून्य रहा:

देश में संविधान की मूल भावना के विपरीत जाकर सरकार ने संविधान विरोधी क़ानून CAA बनाया जिसका देशभर में विरोध शुरू हुआ. पहले छात्रों से शुरू होकर मुस्लिम महिलाओं ने इस आन्दोलन की बागडोर संभाली. पुलिस की लाठियों के जवाब में संविधान की प्रस्तावना पढ़ी गई. सरकारी शह पर चलाए गए षड्यंत्र को शांतिपूर्ण आन्दोलन ने नाकाम बनाया. देखते-देखते इस आन्दोलन में सभी वर्ग के लोग साथ आए और देश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले ऐसे आन्दोलन का साक्षी बना जिसमें हिंसा का अंश मात्र भी देखने को नहीं मिला. इस आन्दोलन ने देश को प्रतिरोध का एक नया रास्ता दिया, गांधी के विचारों और संघर्षों को पुनर्जीवित किया. लेकिन इस पूरे आन्दोलन में विपक्ष दर्शक दीर्घा में बैठकर ट्वीट करता रहा.

इसी आन्दोलन में 19 दिसंबर 2019 को देशभर में प्रदर्शन हुआ, 22 प्रदर्शनकारी मुसलमानों को पुलिस ने गोली मार दी, हज़ारों को जेल में बंद किया गया और उन्हें जेलों में प्रताड़ित किया गया. लेकिन फिर भी विपक्ष ख़ामोश रहा और अपनी भूमिका को ईमानदारी से नहीं निभाया.

आन्दोलन में बैठी महिलाओं का चरित्र-हनन किया जाता रहा. उन पर आरोप मढ़े गए. उनको जिहादी और न जाने क्या-क्या कहा गया. मगर विपक्ष ने यहां भी अपनी भूमिका नहीं निभाई. जो आन्दोलन सड़कों पर विपक्ष को शुरू करना चाहिए था उसे छात्रों और मुस्लिम महिलाओं ने शुरू किया.

किसान आन्दोलन भी विपक्ष की नाकामी का गवाह है:

शाहीन बाग आन्दोलन के बाद केन्द्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया जो देश के इतिहास में याद रखा जाने वाला आन्दोलन है. इस आन्दोलन में शामिल महिलाओं ने शुरुआत में ख़ुद को शाहीन बाग आन्दोलन से प्रेरित बताया. इस आन्दोलन में 700 से अधिक किसानों की जानें गई. किसानों ने गर्मी, बरसात और ठण्ड के मौसम की मार झेलते हुए निरंकुश सरकार से मुक़ाबला किया, लेकिन कहीं भी विपक्ष के ज़रिए किसानों के मुद्दों को लेकर किसी क्षेत्रीय स्तर पर भी आन्दोलन शुरू नहीं किया गया.

इस आन्दोलन को भी शाहीन बाग आन्दोलन की तरह अलग-अलग तरीक़े से बदनाम किया गया. कभी ख़ालिस्तान समर्थक आन्दोलन बताया गया तो कभी सरकार विरोधी साज़िश क़रार दिया गया. इन सब आरोपों के बीच किसान डटा रहा और सरकारी दमन का विरोध करता रहा. किसानों ने अपने दम पर आन्दोलन खड़ा किया, लड़ा और जीत हासिल की. इस पूरी प्रक्रिया में कोई पार्टी, नेता या विपक्ष कहीं भी मुख्य भूमिका में नज़र नहीं आया. हालांकि, किसानों के मुद्दे पर विरोध शुरू करना विपक्ष का काम है, लेकिन विपक्ष की नाकामी के कारण किसानों को अपना खेत-खलिहान छोड़कर एक साल के क़रीब धरने पर बैठना पड़ा.

जनता के मुद्दों पर संघर्ष का अभाव:

एक बात जो साफ़ तौर पर देखी जा रही है, वो ये कि विपक्ष सत्ता की लालसा तो रखता है, लेकिन संघर्षों से डरता है. लोकतंत्र पर बात रखते हुए लोहिया ने कहा था कि सड़कें सूनी हो गईं तो संसद आवारा हो जाएंगी. आज सड़कें सूनी हैं, लेकिन संसद में बैठने वाला विपक्ष नज़र नहीं आता. जनता के छोटे-छोटे मुद्दे पर कोई क्षेत्रीय पार्टी ज़मीन से जुड़कर संघर्ष करती दिखाई नहीं देती.

जज़्बाती मुद्दे सभी को आकर्षित करते हैं, लेकिन रोज़मर्रा के बुनियादी मुद्दों पर किसी भी विपक्षी पार्टी का ध्यान नहीं है. विपक्ष पुलिस की लाठियों से डरता है. विपक्ष अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे ज़ुल्म पर खुलकर बोलने से डरता है. लेकिन विडंबना है कि यही विपक्ष अल्पसंख्यकों के वोट से सत्ता सुख भोगना चाहता है.

महंगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों विपक्ष कमज़ोर साबित हुआ है:

यूं तो विपक्ष की नाकामी की लम्बी लिस्ट है. लेकिन अगर मुख्य मुद्दों पर बात करें तो महंगाई और बेरोज़गारी जैसे गंभीर मुद्दे पर भी विपक्ष गंभीर नहीं दिखता.

अगर इसी देश में छात्र सरकार से आंख में आंख डालकर उनकी नीतियों का विरोध कर सकते हैं, महिलाएं शाहीन बाग जैसा एतिहासिक आन्दोलन खड़ा कर सकती हैं, किसान आन्दोलन कर सरकार को गुठने टेकने पर मजबूर कर सकते हैं, तो लाखों कैडर, ज़मीनी नेटवर्क और संसाधन वाली पार्टियां आम जनता के महंगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दे पर कोई बड़ा विरोध-प्रदर्शन क्यों शुरू नहीं कर सकते? विपक्ष की कामचोरी, नाकामी और इच्छा-शक्ति की कमी नहीं तो और क्या है?

ऑनलाइन एक्टिविज़्म बनाम सड़क संघर्ष:

जनता अपने मुद्दों को लेकर बिना किसी नेतृत्त्व के सड़कों पर उतरती है. पुलिस की लाठियां खाती है. सरकार की ग़लत नीतियों से मुक़ाबला करती हैं और लोकतंत्र की परिधि में संविधान के अधिकार को उपयोग करते हुए प्रदर्शन करती हैं. हालांकि, यह काम तो विपक्ष का है कि वह जनता के मुद्दों पर संघर्ष करे. पुलिस की लाठियां खाए. जेल जाए. निरंकुश होती सरकारों का डटकर मुक़ाबला करे. पूर्व में ऐसा होता भी रहा है.

लेकिन वर्तमान में आराम तलब होते नेता और सुविधा भोगी हो चुकी पार्टियों से संघर्ष का मद्द्दा ख़त्म हो चुका है. वे ट्विटर पर संविधान की प्रस्तावना तो साझा करते हैं, लकिन उसे ज़मीन पर लागू करवाने के लिए सड़कों पर नज़र नहीं आते.

जनता बेबस, विपक्ष चेतना शून्य:

देश के विभिन्न हिस्सों में आम लोगों, ख़ासकर मुस्लिम दलित और आदिवासियों को निरंतर सरकारी ज़ुल्म और प्रताड़ना का सामना करना पड़ रहा है. इसी रमज़ान के पवित्र माह में मध्य प्रदेश और देश के अन्य राज्यों में रामनवमी और हनुमान जयंती के मौक़े पर हिंसा की साज़िश के बाद मुसलमानों को निशाना बनाया गया. उन पर हमले हुए. सरकार ने उनके घरों को गिरा दिया. रमज़ान के महीने में तपती धुप में मुसलमानों को एक साज़िश और पूर्वनिर्धारित रणनीति के तहत बेघर कर दिया गया, लेकिन विपक्ष नाम की चिड़िया कहीं भी नज़र नहीं आई.

देश में बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के मुसलमानों के घरों को निशाना बनाया जा रहा, लेकिन विपक्ष के कान में जूं तक नहीं रेंग रही. इसे भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय कहा जाए तो ग़लत न होगा. सरकारी ज़ुल्म से देश की जनता बेबस है, लेकिन विपक्ष चेतना शून्य नज़र आता है.

क्या विपक्ष सत्ता सुख भोगने का आदी हो चुका है?

पूर्व में मिले सत्ता सुख ने विपक्ष के नेताओं को संघर्ष से दूर कर दिया है. नेता आराम-तलब हो गए हैं. ऐसे में सड़कों पर पुलिस की लाठियां खाने का आत्मबल ख़त्म हो चुका है. नेता और विपक्षी पार्टियां इस इंतज़ार में रहती हैं कि जनता ख़ुद आन्दोलन खड़ा करे और उनके लिए मंच मुहैया हो सके. शाहीन बाग और किसान आन्दोलन इसके गवाह हैं. विपक्ष के नेता स्वयं कोई मंच खड़ा नहीं करते, स्वयं किसी आन्दोलन की बागडोर नहीं संभालने, स्यवं धरने पर नहीं बैठते और ख़ुद कोई अनशन नहीं करते, क्योंकि उनके विचारों का आंदोलन और संघर्ष मर चुका है.

आमजन के हितों का रखवाला कब बन पाएगा विपक्ष?

देश की आम जनता को विपक्ष की नाकामी और निठल्लेपन ने काफ़ी निराश किया है. लेकिन सवाल यह है कि क्या विपक्ष आम जन के मुद्दों पर गंभीर हो पाएगा? फ़िलहाल तो ऐसा नहीं दिखता. लेकिन यह कहना सही नहीं है कि भविष्य में भी विपक्ष ऐसे ही नाकाम साबित होगा. क्योंकि सरकार ने कुछ दिनों पहले कई नए क़ानून बनाए हैं. जानकारों का कहना है कि इसके द्वारा विपक्ष के नेता निशाना बनेंगे. जो नेता मुखर हैं और जिनका राजनीतिक करियर दागदार नहीं है, उन्हें सरकार दूसरे तरीके से ख़ामोश करेगी. छात्र और जनता को पहले ही जेलों में भरा जा रहा, उन पर देशद्रोह के आरोप लगाए जा रहे और दहशत फैलाई जा रही लेकिन इन क़ानूनों के तहत विपक्ष के नेता भी सरकारी ज़ुल्म का स्वाद चख पाएंगे. आशा है कि तब शायद निरंकुश सरकार के विरोध में विपक्षी पार्टियां जागें और कोई बड़ा जन आन्दोलन खड़ा हो.

विपक्ष की जवाबदेही तय करने के लिए जनता को ख़ुद विपक्षी नेताओं से सवाल करना होगा. उनका विरोध करना होगा ताकि जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके. घर बैठे संविधान की प्रस्तावना को ट्वीट करने वाले नेताओं को जनता के बीच जाकर उनके मुद्दे सुनने होंगे और बिना किसी लाग लपेट के उसे ईमानदारी से उठाना होगा. एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए विपक्ष का सक्रिय, ईमानदार और संघर्षशील होना बहुत ज़रूरी है. जनता तो अपने हिस्से की लड़ाई लड़ लेगी और लड़ ही रही है, लेकिन देश के लोकतांत्रिक ढांचे को बचाए और बनाए रखने के लिए विपक्ष को अपने चिंतन शिविर और आरामगाह से निकल कर सड़कों पर आना होगा.

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