तुर्किये भूकंप: मैंने ऐसा मंज़र ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा…

Afroz Alam Sahil
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Photo Credit: Shady Aslassar

7 फ़रवरी… रात के क़रीब बारह बजने वाले हैं. इरफ़ान इस सर्द-बर्फ़ीली रात में मस्जिद की तरफ़ जा रहे हैं, क्योंकि जिस हॉस्टल में वो रात गुज़ारने के वास्ते बड़ी उम्मीदों के साथ गए थे, वहां इनके रहने की कोई गुंजाइश नहीं बन सकी. अब ये मस्जिद ही उनका सहारा है, जहां इन्होंने कल की रात भी गुज़ारी थी.

इरफ़ान काफ़ी थके से लग रहे हैं. उनका कहना है कि आज पूरे दिन एयरपोर्ट पर था. यहां ये सोचकर गया था कि इस्तांबुल या अंकारा की कोई फ़्लाइट मिल जाए या फिर कल की कोई टिकट. लेकिन इन्हें इन दोनों में से कुछ भी नहीं मिला.

इरफ़ान अख़्तर नेपाल के वीरगंज शहर के रहने वाले हैं. पिछले छह सालों से तुर्की के ऐतिहासिक शहर उर्फ़ा में रह रहे हैं. यहां हर्रान यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के बाद अब मास्टर की पढ़ाई कर रहे हैं. 6 फ़रवरी को तुर्की में आए भूकंप का शिकार इनका शहर भी बना था. बता दें कि उर्फ़ा को ‘पैग़म्बरों का शहर’ कहा जाता है. माना जाता है कि पैग़म्बर इब्राहिम (अलै.) का जन्म यहीं हुआ था और वे यहां रहते थे. इसी क्षेत्र में पैग़म्बर मूसा (अलै.) का भी घर था, जिन्होंने मिस्र लौटने से पहले सात साल तक इस क्षेत्र में चरवाहे के रूप में काम किया था.

ये झटका हमारी बिल्डिंग में भी दरार डाल गया…

इरफ़ान बताते हैं कि नेपाल के बाद उर्फ़ा मेरे लिए दूसरा घर बन चुका है. ये शहर मुझे पसंद है. यहां के लोग काफ़ी अच्छे हैं. ये पूछने पर कि क्या नेपाल का कोई और शख़्स भी इस शहर में रहता है? इस पर उनका कहना है, “मेरे शहर में नेपाल, भारत या पाकिस्तान से कोई नहीं है. मैं अकेला हूं.”

इरफ़ान ने एक लंबी बातचीत में बताया कि “जब 6 फ़रवरी को सुबह के 4.17 पर भूकंप आया, तब मैं सो रहा था, लेकिन जैसे ही लगा कि कोई मुझे हिला रहा है तो मैं तुरंत उठकर बाहर भागा. इस वक़्त के झटके में हमारी बिल्डिंग सही-सलामत बच गई. जब सबकुछ नॉर्मल हुआ तो मैं फिर वापस जाकर अपने कमरे में सो गया. लेकिन जब आंख खुली तो नेपाल के भूकंप की कुछ यादें ख़ुद-बख़ुद ज़ेहन में आ गईं, जिसका तर्जुबा मैंने साल 2015 में किया था. मैं जल्दी से उठा और अपने दोस्तों को कहा कि हमें बाहर चलना चाहिए, क्योंकि कई बार भूकंप के बाद भी झटके आते हैं. और हम जैसे ही बाहर निकले, भूकंप का दूसरा झटका आया. और ये झटका हमारी बिल्डिंग में भी दरार डाल गया.”

इरफ़ान आगे कहते हैं, “अब हम अपनी बिल्डिंग में नहीं जा पा रहे हैं. क्योंकि उस बिल्डिंग के अंदर जाने की मनाही है. यहां ज़्यादातर लोग कैम्पों में रह रहे हैं. खाने-पीने की तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन दिक्कत ये है कि बारिश और बर्फ़बारी की वजह से ठंड बहुत ज़्यादा है. सड़कें टूट जाने की वजह से किसी दूसरे शहर जाना भी मुश्किल है.”

बड़ी-बड़ी आलीशान बिल्डिंग ताश के पत्तों की तरह गिरी हुई थीं…

वहीं गाज़ियानतेप में रहने वाले बिहार के अल्तमश रहमान का अपनी कहानी सुनाते-सुनाते गला रूंध सा जाता है. इनका कहना है कि “मैंने ऐसा मंज़र ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा था.”

दरअसल, अल्तमश की कहानी इरफ़ान से थोड़ी अलग है. अल्तमश उस रात सफ़र में थे. कोनिया से गाज़ियानतेप की तरफ़ जा रहे थे.

वो बताते हैं कि “जब भूकंप आया तो बस में सब लोग सो रहे थे. मैं भी उन्हीं लोगों में शामिल था. पूरी बस को भूकंप का कोई अहसास नहीं हुआ. जब कुछ मिनट बाद बस उस्मानिया पहुंची तो पता चला कि आगे का रास्ता बंद है, क्योंकि काफ़ी ख़तरनाक भूकंप आया है.”

अल्तमश कहते हैं, “यहां से मेरी मंज़िल अधिकतम दो घंटे की दूरी पर थी, लेकिन पहुंचने में बारह घंटे लगे. इस दौरान मैंने रास्ते में जो मंज़र देखा, वो ज़िन्दगी में अपनी खुली आंखों से कभी नहीं देखा था. बड़ी-बड़ी आलीशान बिल्डिंग ताश के पत्तों की तरह गिरी हुई थी. ज़मीनों में दरार पड़ी हुई थी. बड़ी-बड़ी चट्टान नीचे गिरी हुई थी. सड़कों पर पुलिस की भारी तादाद, एम्बुलेंस के बजते सायरन, चींखते-चिल्लाते लोग, लोगों के चेहरे पर इस तरह की दहशत या सदमा मैंने पहले कभी नहीं देखा था. हालांकि इसी दरम्यान लोग एक दूसरे की मदद करने में लगे हुए थे. ज़्यादातर जगहों पर टूटे घरों का मलबा सड़कों पर आ गया था. जब मैं गाज़ियानतेप पहुंचा तो वहां का मंज़र भी बदला हुआ था. और इस मंज़र ने भी मुझे अंदर तक झकझोर कर रख दिया.”     

अल्तमश गाज़ियानतेप यूनिवर्सिटी में मेडिकल के छात्र हैं. फिलहाल एक हॉस्टल में हैं और यहां से निकलने के लिए बेक़रार हैं. वो कहते हैं, “हॉस्टल में खाने-पीने की दिक्कत नहीं है. हालांकि यहां ज़्यादातर दुकानें बंद हैं. अगर कोई दुकान खुली है तो वहां लंबी क़तार है, इतनी लंबी कि आपका नंबर एक-दो घंटे के बाद ही आएगा.” उनके मुताबिक़ गाज़ियानतेप में अब तक वो ही एक अकेले भारतीय छात्र थे, लेकिन इस साल भारत से कोई एक लड़की भी पढ़ने के लिए आई है.

इसी गाज़ियानतेप यूनिवर्सिटी में नेपाल के शकील अहमद भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं. पिछले पांच साल से वो इसी शहर में हैं. हाई स्कूल की पढ़ाई भी उन्होंने यहीं से की है.

शकील एक लंबी बातचीत में बताते हैं कि “जब बाहर हंगामा मचा तो हम जैसे थे, वैसे ही निकल गए. उसके बाद किसी को अंदर नहीं जाने दिया गया, क्योंकि दस फ्लोर की हॉस्टल की इस बिल्डिंग में भी दरार आ चुकी है.  यूनिवर्सिटी प्रशासन पहले यहां से हमें म्यूज़ियम लेकर गया, लेकिन जब वहां स्थानीय लोगों की तादाद बढ़ने लगी तो हमें शहर से दूर एक दूसरे हॉस्टल में रखा गया है.”

तुर्किये के एक हॉस्टल में रह रहा नेपाल का शकील…

पुराना एक्सपीरियंस काम आया…

शकील और इरफ़ान दोनों ने साल 2015 में नेपाल के भूकंप को अपनी आंखों से देखा है. इन दोनों का कहना है कि तुर्की का ये भूकंप नेपाल के भूकंप से भी ज़्यादा ख़तरनाक था. नेपाल के मुक़ाबले यहां क्षति ज़्यादा हुई है. 

इरफ़ान कहते हैं कि “मेरा नेपाल का एक्सपीरियंस काम आया. मैंने अपने एक्सपीरियंस के आधार पर अपने दोस्तों को बिल्डिंग के बाहर चलने को कहा था, और हमारे बाहर निकलते ही भूकंप का झटका आया और हमारी बिल्डिंग में दरार डाल गया.”

वो यह भी बताते हैं कि उर्फ़ा शहर के आस-पास के इलाक़ों में कुछ नई मस्जिदें बनी हैं, उनमें भी दरार पड़ गई हैं, जबकि ज़्यादातर पुरानी मस्जिदें अभी भी महफ़ूज़ हैं. यही बात इस्तांबुल के उमेर कुज़ू भी बताते हैं कि इस भूकंप में कई ऐसी बिल्डिंगें भी गिरी हैं, जो सिर्फ़ एक साल पहले बनी थी.

अब (बुधवार दोपहर) तक के प्राप्त आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ इस विनाशकारी भूकंप के झटकों की वजह से तुर्की के 8,574 लोगों की जान जा चुकी है और घायलों की तादाद 49,133 है. ग़ौरतलब रहे कि इस भूकंप से लगभग 100,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में 12 मिलियन लोग प्रभावित हुए हैं. वहीं एक अंदाज़े के मुताबिक़ मरने की तादाद बीस हज़ार से भी ऊपर जा सकती है. 

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