Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
देश के चुनिंदा शिक्षण संस्थानों में से एक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में ऐसा भी हो सकता है? जामिया के सेन्ट्रल कैन्टिन में जाने के बाद दिमाग़ चकराने सा लगता है. जिस संस्थान से पढ़कर निकले देश व दुनिया के नामी विद्वान बच्चों को देश का भविष्य बताते रहे हैं. जिस विश्वविद्यालय में चाइल्ड लेबर पर बड़े-बड़े सेमिनार व कांफ्रेस आयोजित किए जा चुके हों. जहां के प्रोफेसरों ने चाइल्ड लेबर पर न जाने कितने रिसर्च व किताबें लिख डाली हों, वहां 9 साल के एक मासूम के साथ ऐसा भी हो सकता है?
आज से तकरीबन 3 महीने पहले सेन्ट्रल कैन्टिन में घूसते ही मेरे निगाहों के सामने यह 9 साल का मासूम गंदे बर्तनों को उठाते और उसे साफ करता दिखाई पड़ा. थोड़ी देर बाद उसकी नाज़ुक उंगलियां झाड़ू संभाले फर्श साफ करती दिखाई दी. इसे देखकर काफी हैरानी हुई. मैंने उसे बुलाया. उसे पूछा कि यह सब क्यों कर रहे हो? कब से कर रहे हो? कौन करवा रहा है? कहां घर पड़ता है? मां-बाप कहां रहते हैं? कितने भाई-बहन हो? खाना खाया कि नहीं?….
मेरे सवालों के वार से वो घबड़ा सा गया. पहले तो वो भाग गया और जाकर अपने एक रिश्तेदार को बताया कि हम उसकी फोटो ले रहे हैं. उसके रिश्तेदार तुरंत हमसे मिलने आ गए और बताया कि यह मेरा रिश्तेदार है, दो-चार दिनों के बाद चला जाएगा. प्लीज़ आप इसकी फोटो डिलीट कर दीजिए.
हमने उन्हें समझाया कि आप घबराईए नहीं, हम कुछ नहीं कर रहे हैं. फिर हमने उनसे इसकी पढ़ाई की बात की तो उन्होंने बाताया कि हां इसका बस अब नाम लिखवाना ही है. उस बच्चे में भी मैंने पढ़ने की चाहत देखी. वो पढ़कर इनजीनियर बनना चाहता है. हमने उसके लिखने के लिए एक कलम व कापी गिफ्ट किया ताकि वो कुछ पढ़-लिख सके.
लेकिन अब भी मेरे सवालों का जवाब नहीं मिल पाया था. मैं उसके बारे में सब कुछ जानने के लिए परेशान था, जो कि उसके रिश्तेदार मुझसे छिपा रहे थे. खैर, उस बच्चे के दिल से हमारा डर निकल चुका था और उसके रिश्तेदार भी अपने कामों में व्यस्त हो चुके थे. मौके का ग़नामीत समझते हुए मैंने अपना सवाल फिर दुहराया. मेरे सवालों के जवाब में उसने अपनी जो दास्तान सुनाई वो अभी तक दिमाग़ को झकझोरे हुए है. दिमाग़ की नशे रह-रह कर झनझना उठती हैं.
उसने अपना नाम आकिब बताया था. वो बिहार के किशनगंज ज़िला का रहने वाला है. जामिया के सेन्ट्रल कैन्टिन में प्लेट उठाने व धोने की काम इसलिए करता है ताकि उसकी कमाई से उसकी दोनों बहने स्कूल जा सके और बीमार मां भी आराम से रह सके. आकिब बताता है कि उसके बाप को जुआ व शराब पीने से फुर्सत नहीं है. इसलिए वो अपने बहनोई व दूसरे रिश्तेदारों के साथ जामिया आ गया. उसने कभी स्कूल नहीं देखा है. जामिया आकर वो भी पढ़-लिख कर इंजीनियर बनना चाहता है. वो बताता है कि कैन्टिन में पहले जामिया के कुछ लड़के कैन्टिन वालों को पढ़ाते थे, तब वो भी पढ़ता था पर सब उसके साथ मज़ाक करते थे, उसे छेड़ते थे. इसलिए उसने पढ़ना छोड़ दिया. हालांकि अब जामिया के बच्चों ने भी कैन्टिन के लोगों को पढ़ाना भी छोड़ दिया है.
आकिब को यहां काम करने के 1500 रूपये मिलते हैं और साथ में खाना भी मिल जाता है. वो सारा पैसा घर पर दे देता है. हमने दुबारा उसके गार्जियन से बात की. यहां उसके गार्जियन जो कि इसी कैन्टिन में काम करते हैं, बताते हैं कि आकिब का यहां काम करना मजबूरी है. अगर वो काम नहीं करेगा तो उसका घर नहीं चल पाएगा. उसकी मां हमेशा बीमार ही रहती है और बाप को घऱ से कोई मतलब नहीं है.
आकिब का यहां काम करना एक मजबूरी है. उसकी स्टोरी पिछले तीन महीनों से इसलिए नहीं लिख रहे थे कि क्योंकि मीडिया में यह कहानी आते ही सारा गाज़ आकिब व उसके रिश्तेदारों पर गिरेगा. हमने समाज सेवा की दुहाई देने वाले कई लोगों से इस बारे में बात भी की, लेकिन अफसोस! कोई काम नहीं आ सका.
3 महीने के बाद आज फिर कैन्टिन गया था. उसके नाज़ुक हाथों में कलम-किताब की जगह झाड़ू था. खुद को रोक नहीं पाया और इस पूरी कहानी लिखने की सोच डाली जो आपके सामने हैं. लेकिन आज यह कहानी इस उम्मीद के साथ लिख रहा हूं कि इसे पढ़ने के बाद आप आकिब व उसके परिवार के बारे में ज़रूर सोचेंगे. आखिर हम सब पाठक मिलकर उसके लिए क्या कर सकते हैं.
वैसे इस विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर इससे पूर्व भी पॉलिटिकल अपरोच के बाद जामिया में एक कश्मीरी बच्चें को दाखिला दे चुके हैं. मेरे उस खबर के बाद उन्होंने मीडिया में यह बयान दिया था वो मानवीय आधार 20 कश्मीरी व सड़कों पर रहने वाले बच्चों को दाखिला दे चुके हैं. और वो गरीब बच्चों के लिए हमेशा ऐसा करते रहेंगे. हालांकि यह बात अलग है कि जिस बच्चे की कहानी हमने लिखी था वो कश्मीर के एक विधायक का बेटा था. खैर मुझे पूरा उम्मीद है कि अगर यह खबर उन तक पहुंच जाएगी तो वो आकिब का दाखिला भी ज़रूर कराएंगे और एक दिन ज़रूर आएगा जब आकिब इसी जामिया से एक कामयाब इंजीनियर बनकर निकलेगा. (आप पहले वाली खबर को यहां पढ़ सकते हैं: Admission in JMI on Political Recommendation!)
जामिया में यह कहानी सिर्फ आकिब की ही नहीं है. बल्कि जामिया में काम करने वाले कंट्रक्शन वर्कर के बच्चे भी अभी तक शिक्षा से महरूम थे. जामिया के सोशल वर्क विभाग के कुछ बच्चों के पहल पर इनमें से कुछ का दाखिला पास सरकारी स्कूल में हो गया और कई अभी नहीं पढ़ पा रहे हैं. वो अपने मां-बाप का काम में हाथ बंटाते हैं.
वैसे एक सच्चाई यह भी है कि जामिया में ऐसा मामला कोई पहली बार नहीं हो रहा है. इससे पहले भी जामिया के हाइजेनिक कैन्टिन में 10 साल का एहतराम भी 1200 की सैलरी काम करता था. एहतराम की वीडियो आफरीन ग़नी नामक एक छात्र ने बनाकर यू-ट्यूब पर डाली थी, उसके बाद एहतराम की छुट्टी कर दी गई. पता नहीं एहतराम अभी कहां होगा और क्या कर रहा होगा? यही नहीं, बाल मजदूरी के आरोप में जामिया के सायकॉलजी डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर मोहम्मद गाजी शहनवाज को 25 हजार रुपये का जुर्माना चाइल्ड वेलफेयर कमिटी की ओर से लगाया जा चुका है.
