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क्यों बेहद घटिया फ़िल्म हैं प्रकाश झा की ‘सत्याग्रह’

Afroz Alam Sahil

खाली हॉल में कुछ गिने-चुने दर्शकों के साथ हमने प्रकाश झा की फ़िल्म सत्याग्रह का पहला शो देखा.  कमजोर कहानी के निर्देशन में प्रकाश झा भटके नज़र आए. शायद उनका ध्यान फ़िल्म में दिखाए गए प्रॉडक्ट्स को बेचने की ओर ज़्यादा था.  चावल, कच्छा-बनियान, न्यूज़ चैनल, सीमेंट और साइकिल जैसे कई प्रॉडक्टों के विज्ञापनों को ज़बरदस्ती फ़िल्म में फिट किया गया था.

यह प्रायोजित सत्याग्रह कोई असर छोड़ने में नाकाम रही. वैसे भी प्रकाश झा का तर्क है कि लालच नहीं करेंगे तो तरक्की कैसे करेंगे? तो ज़ाहिर है ब्रांड नहीं दिखाएंगे तो फिल्में कैसे बनेगी? दरअसल, यह प्रकाश झा की व्यावसायिक ‘सत्याग्रह’ थी जिसका सत्याग्रह के मूल मूल्यों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है.

Why are vastly inferior film Prakash Jha's 'Satyagraha'फिल्म में मुख्य किरदार द्वारका आनन्द को लगता है कि ग़रीबों के हक़ का पैसा मारकर लोग अमीर बनते हैं. इस बात में कितना दम है, यह हमें नहीं पता. पर इतना ज़रूर है कि प्रकाश झा ने अपने गांव के गरीब किसानों को चीनी मिल का सपना दिखाकर उनका हक़ ज़रूर मारा है.

फ़िल्म के अभिनेता अमिताभ बच्चन एक गरीब औरत व उसके मासूम बच्चों के पेट की भूख को समझ जाते हैं, और आमरण अनशन का ऐलान कर बैठते हैं.  ऐसे दृश्यों का निर्देशन करने वाले प्रकाश झा उन गरीब मज़दूरों (जो कभी किसान थे) की भूख को कब समझेंगे जिन्हें पिछले तीन महीनों से वेतन नहीं मिला है.

वो मज़दूर जो कभी अपनी ज़मीन के मालिक थे. खेती करके घर-बार चल रहा था. लेकिन प्रकाश झा की राजनीति व चीनी मिल के जाल ने उनसे उनका सबकुछ छीन लिया. बच्चों को नौकरी देने का सब्ज़बाग दिखाकर प्रकाश झा ने औने-पौने दामों में उनकी ज़मीने हथिया ली. सुना है पैसे तो हाथ की मैल होती है. जब इन गरीबों का पैसा खत्म हो गया तो उन्हें ‘फार्म हाउस’ में नौकर बना लिया. मछली पालन के काम लगा दिया. बेचारे दिन भर ‘भाई जी’ के लिए केले की रखवाली करते हैं. और उनके लिए बांस उगाते हैं.

जिस  तरह से फिल्म में मुवाअजे की रक़म के लिए अमृता राव सरकारी दफ्तर का चक्कर लगाती हैं, ठीक उसी तरह असल जिंदगी में ओम प्रकाश अपने बूढ़े पिता की प्रकाश झा के घर पर काम करने के दौरान हुई मौत के बाद इंश्योरेंस के पैसे के लिए प्रकाश झा के घर व इंश्योरेसं कम्पनी का चक्कर लगा रहा है. ये अलग बात है कि फ़िल्मी सत्याग्रह के दौरान अमृता राव को साथ मिल जाता है, लेकिन वास्तविक जीवन में ओम प्रकाश को न किसी का साथ मिल रहा है और न ही सहारा.

जिस तरह प्रकाश झा की फ़िल्म में मंत्री बलराम यानी मनोज वाजपेयी सत्याग्रह का दमन करते हैं उसी तरह रियल लाइफ़ में प्रकाश झा सत्याग्रह का दमन करना जानते हैं.

दरअसल, प्रकाश झा के यहां काम रहे लोगों को तीन महीने से सैलरी नहीं मिल रही थी. उन्होंने चेतावनी दे रखी थी कि अगर 30 अगस्त तक पगार नहीं मिली तो वो असल में सत्याग्रह करेंगे. इस बारे में BeyondHeadlines पर ख़बर प्रकाशित किए जाने के बाद उनका मुंह बंद करने के लिए फिलहाल उन्हें एक महीने की आधी सैलरी यानी 2500 रूपये दे दिए गए हैं.

लेकिन गाँव के लोगों को मलाल इस बाता का है कि प्रकाश झा की फ़िल्म की पत्रकार किरदार यासमीन खान यानी करीना कपूर टाइप कोई बड़े चैनल की पत्रकार उनका हाल जानने नहीं आई. गांववालों को लगता है कि स्थानीय पत्रकारों से कुछ होने वाला नहीं है. उनके लिए तो वही पत्रकार कुछ कर सकता या सकती है जो प्रधानमंत्री के साथ जाने के बजाए इनके गांव आना पसंद करे. पता नहीं उनके सपने कब पूरे होंगे. कब कोई बड़े चैनल का नामी गिरामी पत्रकार प्रकाश झा के गाँव जाएगा और उनके फरेब का पर्दाफाश़ करेगा.

प्रकाश झा व उनके भाई प्रभात झा की एक खासियत यह है कि वो इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि सच को अगर खरीद लिया जाए तो गलत को गलत कहने वाले खुद ही खत्म हो जाएंगे. और फिर उन्हें भी गलत कहा जाने लगेगा, जो अब तक गलत को गलत कहते आ रहे हैं. जो वकील साहब प्रकाश व प्रभात झा के खिलाफ कभी सबसे पहले विरोध में उठे थे वो आज इनकी मैनेजरी कर रहे हैं और बोनस में कानूनी सलाहकार भी हैं.

चलते-चलते बस हम इतना ही कहेंगे कि प्रकाश झा ने एक बेहद घटिया फ़िल्म बनाई है. फ़िल्म घटिया सिर्फ इसलिए नहीं है कि इसकी कहानी कमज़ोर है, बल्कि इसलिए भी है क्योंकि जिन सिद्धांतों को फ़िल्म में दिखाने का प्रयास किया गया है उन स्वयं फ़िल्म बनाने वाला खरा नहीं उतर पा रहा है.

(यह लेखक के अपने विचार हैं.)

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