Edit/Op-Ed

न्याय से दूर होती न्यायपालिका

Abubakr Sabbaq Subhani for BeyondHeadlines

आज बटला हाउस हत्याकांड की पांचवी बरसी है. इन पांच सालों में न्यायपालिका के न्याय को हमने बहुत करीब से देखा है. सच पूछे तो पिछले कई वर्षों से भारतीय न्यायपालिका बार-बार समाज के एक बडे वर्ग की आलोचना का निशाना बनती  रही है कि वह पुलिस के पक्ष में ही आखं मूंद कर विश्वास एंव फैसला करती है, जो किसी भी लोकतंत्र के लिये सही नहीं हो सकता है. यह आलोचनायें बहुत से तर्कों के आधार पर की जा रही हैं जिनको हम सहलता पुर्वक रद भी नहीं कर सकते.

इसका एक उदाहरण है जनता के किसी भी केस में जांच की मांग को यह कह कर टाल दिया जाना कि इससे पुलिस व सुरक्षा बलों का मनोबल गिरेगा. हमने बटला हाउस मामले के अलावा भी बहुत से मामलों में सरकार का यह तर्क देखा, जबकि जनता की मांग संवैधानिक थी. इसमें न्यायपालिका की भूमिका भी पुलिस के पक्ष में साफ देखने को मिली, यह एक लोकतंत्र के लिए आश्चर्यजनक बात है.

चाहे  जर्मन बेकरी ब्लास्ट मामले में हिमायत बेग का फैसला हो या फिर बटला हाउस में शहजाद का, जिस तरीके  से कोर्ट ने उन्हें मुजरिम साबित किया, ये सभी फैसले न्याय देने के बजाय न्याय से न्यायालयों की बढ़ती दूरी ही दर्शाते हैं. आज हमें जजों के सांप्रदायिक जेहनियत को समझने की ज़रूरत है.

Need to Change the Judicial & Political System, Resolves People’s Conventionक्या बटला हाउस ‘हत्याकांड’ का फैसला सच छुपाने की कोशिश है क्योंकि बचाव पक्ष के महत्वपूर्ण तर्कों मसलन बटला हाउस जैसे भीड़-भाड़ वाले इलाके जहां यह घटना हुई में पुलिस द्वारा किसी भी स्वतंत्र गवाह को न पेश कर पाना, मोहन चंद्र शर्मा की कथित हत्या में प्रयुक्त असलहे जो पुलिस के मुताबिक शहजाद का था का बरामद न होना, और न ही उस हथियार के इस्तेमाल का कोई सुराग घटना स्थल से मिलना, और पुलिस की इतनी बंदोबस्त के बावजूद आरोपी शहजाद का भाग जाना, घटना स्थल से शहजाद का एक भी फिन्गर प्रिन्ट ना मिलना जैसे सवालों का उत्तर सरकारी पक्ष द्वारा नहीं दिया गया, एवं ना ही फैसले में दर्ज किया गया. बल्कि बाटला हाउस जैसे अति भीड़-भाड़ वाले इलाके के लोगों को इस मामले में गवाह इसलिए नहीं बनाया गया कि वहां के अधिकतर लोग उसी धर्म को मानने वाले थे जिस धर्म से आरोपी सम्बंध रखते हैं, तर्क को मान लेना  कोर्ट के साम्प्रदायिक जेहनियत को उजागर करता है.

ऐसे में शहजाद को मुजरिम बताने वाले फैसले को न्यायिक फैसला जो तथ्यों के आधार पर तय होता है, मानना मुश्किल हो जाता है. क्या इस फैसले को भी बाबरी मस्जिद और अफज़ल गुरु पर आए फैसलों की तरह ही तथ्यों के बजाए समाज के बहुसख्यंक तबके के सांप्रदायिक हिस्से की मुस्लिम विरोधी चेतना को संतुष्ट करने की कोशिश की गई है.

बटला हाउस फर्जी एनकाउंटर पर जनता द्वारा न्यायिक जांच की मांग को जिस तरह अदालत और मानवाधिकार आयोग ने खारिज कर दिया था तभी यह तय हो गया था कि अदालतें इसी तरह का फैसला देंगी. बाबरी मस्जिद फैसले से शुरु हुई यह पूरी प्रकिया भारत में न्यायपालिका के ज़रिए हिन्दुत्वादी फांसीवाद थोपने की राज्य मशीनरी की साजिश को दर्शाता है.

आज हमारे देश का एक बड़ा वर्ग इस फैसले को न्याय पर आधारित नहीं बल्कि न्यायपालिका द्वारा न्याय और लोकतंत्र पर साम्प्रदायिकता के बढ़ते प्रभाव का उदाहरण ही मानता है. हमारे सामने इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जब हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को फिजुल क़रार देते हुए नकार दिया. 2001 संसद भवन केस  के अभियुक्त प्रोफेसर गीलानी को फांसी की सजा हुई थी परन्तु हाई कोर्ट ने निर्दोष क़रार दिया.

21 मई 1996 लाजपत नगर, दिल्ली धमाके में सैय्यद मकबूल शाह को 14 वर्ष के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय से 2012 में मुक्ति प्राप्त हुई. इस केस में शाह के इलावा अब्दुल गनी, लतीफ अहमद वाजा और मिर्जा इफ्तिखार हुसैन को भी अभियुक्त बनाया गया था. यह सभी बाद में सभी आरोपों से मुक्त कर दिये गये.

एक अन्य उदाहरण पंजाबी बाग, दिल्ली में होने वाले 30 दिसम्बर 1997 का धमाका केस है, जिसमें पुलिस ने मोहम्मद हुसैन उर्फ जुल्फिखार अली को अभियुक्त बनाया. निचली एवं उच्च न्यायालय ने कठोर उम्र कैद की सजा सुना दी, परन्तु मामला जब उच्चतम न्यायालय में गया तो सब कुछ उलट गया, उच्चतम न्यायालय के अनुसार अभियुक्त को निचली न्यायालयों में न तो निष्पक्ष एवं न्यायोचित ट्रायल का अवसर नहीं मिला और न ही कोई वकील. इस तरह 2013 में एक लम्बी कानुनी लडाई के बाद बरी हो गया.

इस तरह के फैसले सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लिये ही नहीं, बल्कि पिछडे वर्ग के साथ-साथ सरकार की समाज दुश्मन नीतियों के विरोधी समाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति भी ऐसा ही सुलूक होता है. उद्धाहरण स्वरुप कि  कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने मानवाधिकार कार्यकर्ता  विनायक सेन पर एवं उत्तर प्रदेश में सीमा आजाद एवं विशवारंजन के खिलाफ माओवादी गतिविधियों के नाम पर गलत सजा सुना दी थी, परन्तु बाद में उपरी अदालतों ने बरी कर दिया था.

दस से बीस साल कारागार मे जीवन नष्ट होने के बाद अगर कोई बेगुनाह रिहा होता है तो यह प्रश्न सवभाविक ही है कि क्या निर्दोषों के 15-20 साल की बबार्दी की वजह निचली अदालतों की साम्प्रदायिकता एवं पुलिस प्रेम या राजनीतिक प्रभाव तो नहीं है. ऐसे बहुत से मामलों जिनमें निर्दोषों को लंबे समय बाद बरी कर दिया गया एवं उच्चतम न्यायालय आदि ने निचली अदालतों की कार्यशाली पर भी परश्न चिन्ह लगाये हैं. यह बहुत चिंता का विषय है कि किसी भी नागरिक पर  राज्य एवं देश द्रोही का आरोप लगे फिर वह अपनी आधी जिन्दगी खुद को बरी कराने में लगा दे और आधी जिन्दगी मुआवजा की लड़ाई लड़ने में.

शहजाद प्रकरण पर आए फैसले के बाद यह ज़रुरी हो जाता है कि लोकतंत्र को बचाने के लिए अदालतों की सांप्रदायिकता के खिलाफ लोग एक जुट खडे हों, अन्याय के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीको से आवाज़ उठायें, अभी समय निकला नहीं है.

(लेखक .पी.सी.आर. से जुडे हैं)

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