सरकार खाद्य सुरक्षा का ढिढोरा ऐसे पीट रही है जैसे जनता को महंगाई से निजात दिलाने की जादू की छड़ी ही उसे मिल गई हो. आज देश में घटती कृषि उपज सबसे बड़ी चुनौती है. किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं. खेती-बारी ही किसानों को खुदकुशी के रास्ते पर ले जा रही है. क्या ये ख़तरे की घंटी नहीं है ? घटती उत्पादकता और किसानों की आय में गिरावट को सरकार नज़र अंदाज कर बाजीगरी दिखाना चाहती है. इतना ही नहीं, जो अनाज खेतों में पैदा होता है उसे समुचित तरीके से रखने का प्रबंध भी सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं रहा है तो कैसे मान लें कि सरकार वाकई हर आदमी के पेट में अनाज डालना चाहती है ?
Akhilesh Krishna Mohan for BeyondHeadlines
देश की दो तिहाई आबादी को भोजन की गारंटी के बहाने कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आने की पूरी कोशिश में जुट गई है. लोकसभा में खाद्य सुरक्षा का विधेयक पास कर कांग्रेस वाहवाही लूट रही है और बता रही है कि देश की गिरती अर्थव्यवस्था यानी आर्थिक मुद्दों पर राजनीतिक मुद्दे भारी पड़ेंगे.
लोकसभा चुनाव करीब है देश की जनता हताश और निराश है. वह वोट किसे भी दे लेकिन वास्तव में देश की सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रिय पार्टियों ने जनता के सरोकार को दरकिनार कर वोट बैंक के इजाफे की ही कोशिश में रहीं हैं. अब देश की आर्थिक हालात डवांडोल है. रुपया लगातार तेजी से नींचे गिर रहा है. खाने पीने की समाग्री के भाव आसमान छू रहे हैं, फसल तैयार होने पर अनाज खलिहानों और खेतों में सड़ रही हैं या बाढ़ रोकने के इंतजाम न होने की वजह से बाढ़ से लाखों करोड़ रुपए का अनाज खराब हो रहा है, तब केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा का दावा कर रही है. जिसके लिए सरकार को हर साल 6.20 करोड़ टन अनाज की ज़रूरत पड़ेगी. इसके तहत हर महीने ग्रामीण इलाके में 75 फीसदी और शहरी इलाके में 50 फीसदी लोगों को हर महीने पांच किलो अनाज मिलेंगे.
कांग्रेस को पिछले लोकसभा चुनाव 2009 में मनरेगा का जो फायदा मिला उसे यूपीए आज भी भुना रही है. अब कांग्रेस को लगता है कि खाद्य सुरक्षा की बैसाखी उसे तीसरी बार सत्ता में वापसी करा सकती है. लेकिन वास्तव में कांग्रेस की बड़ी नाकामी भी इसी में छुपी है. बीते लोकसभा चुनाव के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने खाद्य सुरक्षा का वादा किया था लेकिन इस वादे को पूरा करना तो दूर साढ़े चार साल तक इसे केवल अगले लोकसभा चुनाव के लिए चुनावी हथकंडा बनाने की वजह से बचा कर रखा गया.
इन साढ़े चार सालों में महंगाई और सरकार की नाकामी को लेकर सड़क से सदन तक प्रदर्शन और भारत बंद भी हुआ लेकिन न तो क्षेत्रिय पार्टियां इसे मुद्दा बनाकर सरकार को झुका पाई और न ही भाजपा और वामदल के प्रदर्शन का ही कोई असर केंद्र सरकार पर हुआ. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भले ही महंगाई और एफडीआई को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ दिखीं लेकिन समाजवादी पार्टी ने तो विधानसभा चुनाव में इस मुद्दे को खूब भुनाया. व्यापारियों को एक जुट कर वोट लिया और पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई.
यूपी में पोस्टरबाजी और नारेबाजी ही नहीं पुतला फूंकने और मायावती के ऊपर एफडीआई को यूपी में लाने का आरोप भी समाजवादी पार्टी लगाती रही है. लेकिन हकीकत में समाजवादी पार्टी ने लगाकर फायदा भी लिया और खुद केंद्र सरकार का साथ बाहर से देती रही, आज भी दे रही है. यानी कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि क्षेत्रिय पार्टियों ने भी जनता के लिए कांग्रेस से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. पूरे साढ़े नौ सालों में कांग्रेस भाजपा और अन्य क्षेत्रिय पार्टियों पर भारी दिखीं आज भी हैं. लोकसभा हो या राज्यसभा विपक्ष का वजूद केवल सदन की कार्रवाही में हिस्सा लेने मात्र ही हो कर रह गया.
यूपीए के दूसरे कार्यकाल को खाद्य सुरक्षा के तराजू पर तौलने की कोशिश की जा रही है. सिने तारिका प्रियंका चोपड़ा को इसका ब्रांड अम्बेसडर बनाया गया है. यानी जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपए प्रियंका की झोली में अनायास ही डाले जा रहे हैं. सवाल ये है कि प्रियंका चोपड़ा को खाद्य सुरक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों अरबों रुपए देकर ब्रांडिंग की जिम्मेदारी क्यों दी गई? क्या देश का गरीब आदमी ब्रांड अम्बेसडर नहीं हो सकता? जो खुद भूख से पीड़ित है, दो वक्त की रोजी रोटी के लिए हाड़ मांस गला रहा है इसके बाद भी भूखा है.
प्रियंका चोपड़ा को खाद्य सुरक्षा की परिभाषा भी बताई गई हो ये संभव नहीं है. भूख की तकलीफ क्या होती है इसे प्रियंका को कैसे पता होगी जब वो छरहरी काया के लिए महीनों डायटिंग करने को मजबूर हो जाती हैं और सेब और पाइन एपल का जूस ही लेना उनकी डाइट में होता है. यानी सरकार एक अभिनेत्री को चुनावी प्रचार-प्रसार के लिए चुन ही लिया. जो चुनावी शंखनाद के पहले ही कांग्रेस का झंडा लेकर रोड शो करेगी. प्रियंका चोपड़ा की ज़रूरत समझ में शायद ही जनता को आए.
बेहतर होता कांग्रेस इस बहुप्रचारित योजना का ब्रांड अम्बेसडर उसे बनाती जहां युवराज राहुल गांधी कभी-कभी खाना पीना किया करते हैं और दलितों के हितैशी होने की दलीलें देते हैं. अगर यह नहीं तो समाज के हाशिए पर खड़ा कोई भी खिलाड़ी हो सकता था जो खेल भावना को आगे बढ़ाता और योजना का प्रचार भी बेहतर तरीके से करता.
पोलैंड में चार दिन पहले हुए तीरंदाजी के विश्वकप में स्वर्ण पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ाने वाली दीपिका कुमारी को भी अम्बेस्डर बनाया जा सकता था. इससे कमजोर आर्थिक स्थिति से जूझ रही दीपिका की मदद भी हो जाती और सरकार को एक बेहतर प्रचारक भी मिल जाता. हां इससे कांग्रेस के युवराज राहुल दलित प्रेम की तीर भी सही निशाने पर लगा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
हकीकत में पेट की आग बुझाने की जो कोशिश की जा रही है वह हवा हवाई है. न तो सरकार के पास इसका कोई समुचित प्रबंध है और न ही राज्यों को विश्वास में लेने की कोई कोशिश की गई है. जबकि राज्य सरकार के सहयोग से ही गरीब परिवारों की पहचान होगी. ये तो वैसे ही है कि योजना कागजों में चलेगी, प्रचार-प्रसार में करोड़ों-अरबों रुपए खर्च होंगे, इसका फायदा केवल उनको मिलेगा सत्ता के चटुकार होंगे.
सरकार खाद्य सुरक्षा का ढिंढोरा ऐसे पीट रही है जैसे जनता को महंगाई से निजात दिलाने की जादू की छड़ी ही उसे मिल गई हो. आज देश में घटती कृषि उपज सबसे बड़ी चुनौती है. किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं. खेती-बारी ही किसानों को खुदकुशी के रास्ते पर ले जा रही है क्या ये ख़तरे की घंटी नहीं है? घटती उत्पादकता और किसानों की आय में गिरावट को सरकार नज़र अंदाज कर बाजीगरी दिखाना चाहती है. इतना ही नहीं जो अनाज खेतों में पैदा होता है उसे समुचित तरीके से रखने का प्रबंध भी सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं रहा है तो कैसे मान लें कि सरकार वाकई हर आदमी के पेट में अनाज डालना चाहती है? वास्तव में इसे तो राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ही समझ और समझा सकते हैं.
(लेखक डीडीसी न्यूज़ नेटवर्क के पत्रकार हैं.)