Anurag Bakshi for BeyondHeadlines
सजायाफ्ता सांसदों और विधायकों के बचाव के लिए अपनी ही सरकार के अध्यादेश के खिलाफ राहुल गांधी ने जिस तरह आवाज बुलंद की. वह अप्रत्याशित भी है और सुखद भी… राहुल गांधी के बयान के बाद सरकार को सांप सा सूंघ जाना स्वाभाविक है. आखिर उन्होंने यह सोच भी कैसे लिया कि ऐसे किसी क़दम को भारत की जनता सहन कर लेगी, जो सिर्फ और सिर्फ दागी नेताओं के हित में उठाया गया हो? राहुल गांधी का यह बयान, चाहे जैसी रणनीति और उद्देश्य, के तहत हो,-“उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए.”
एक राजनेता से ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा की जाती है. राजनेताओं का पहला कर्तव्य है अपने दल और देश के लोगों को दिशा देना. राहुल गांधी ने यह साहसिक बयान देकर अपनी सरकार को भले ही शर्मिदा किया हो, लेकिन उन्होंने जिस तरह आम जनता की भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. यह अध्यादेश तो जीती मक्खी निगलने के समान है. यह केवल लोकतांत्रिक चेतना और राजनीतिक नैतिकता के खिलाफ उठाया गया क़दम ही नहीं, बल्कि परोक्ष रूप से न्यायपालिका को दी जाने वाली चुनौती भी है.
देर से ही सही कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को दागी राजनेताओं को अयोग्यता से बचाने के संदर्भ में केंद्र सरकार की नासमझी का अहसास हुआ. उन्होंने जिस तरीके से सजायाफ्ता राजनेताओं को अयोग्यता से बचाने के लिए लाए जा रहे अध्यादेश को रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक बताया वह और कुछ नहीं. एक अनर्थ से कांग्रेस की खाल बचाने की कोशिश मात्र है. राजनीति का अपराधीकरण और अपराधियों का राजनीतिकरण भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता का विषय है. इस अध्यादेश के संदर्भ में इस पर गौर किया जाना चाहिए कि यह व्यापक विचार-विमर्श के बाद लाया गया. पहले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलटने के लिए संसद में विधेयक लाने की कोशिश की गई और जब उससे बात नहीं बनी तो लोक-लाज त्यागकर अध्यादेश ले आया गया. मनमोहन सिंह सरकार ने यह अध्यादेश लाकर तो देश-दुनिया को यही संदेश दिया कि उनकी सरकार की दिलचस्पी सजायाफ्ता नेताओं को सुरक्षा कवच प्रदान करने की है. केंद्रीय सत्ता अपने स्वार्थो को पूरा करने के फेर में यह भी भूल गए कि इस समय ऐसा अध्यादेश लाने की परिस्थितियां दूर-दूर तक नहीं थीं. अध्यादेश का सहारा तो तब लिया जाता है जब कोई आपात स्थिति आ खड़ी हुई हो अथवा राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए संसद के सत्र की प्रतीक्षा करना संभव न हो.
क्या कोई स्पष्ट करेगा कि ऐसी कौन सी ज़रूरत आ पड़ी थी कि संसद के अगले सत्र का इंतजार करने के बजाय केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने अध्यादेश जारी करने का फैसला किया? चूंकि केंद्रीय सत्ता इस सवाल का जवाब देने में असमर्थ है इसलिए उसकी जो बदनामी हो रही है उसके लिए वह किसी अन्य को दोष नहीं दे सकती. निश्चित रूप से राहुल गांधी के बयान को लेकर भी सवाल उठेंगे. यदि इस अध्यादेश के बारे में उनकी यही राय थी तो इसे उन्होंने पहले क्यों सार्वजनिक नहीं किया..? और पार्टी उपाध्यक्ष होने के नाते यह क्यों नहीं सुनिश्चित किया कि सजायाफ्ता नेताओं को बचाने के लिए अध्यादेश न आने पाए? सवाल यह भी है कि उस समय वह कहां थे जब सरकार सजायाफ्ता नेताओं को बचाने के लिए विधेयक पारित करने की जुगत कर रही थी?
दागी नेताओं को बचाने के लिए लाए गए अध्यादेश पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बयान के बाद हवा का रुख बदलता नज़र आ रहा है. इस अध्यादेश को समर्थन करने वाली कांग्रेस अब बैकफुट पर नज़र आ रही है. दागी नेताओं को बचाने के लिए लाए गए इस अध्यादेश पर राहुल गांधी सरकार के इस क़दर खिलाफ हो जाएंगे यह बात किसी ने नहीं सोची थी. जो भी हो… उन्होंने एक गलत काम के विरुद्ध जैसी दृढ़ता दिखाई वह उल्लेखनीय है.