Edit/Op-Ed

तुम्हारी इस जीत को सलाम दामिनी…

Abhishek Upadhyay for BeyondHeadlines

दामिनी, ये जो अभी अभी एक वहशी जोर से भौंका है, इसकी बिल्कुल भी परवाह मत करना. ये तुम्हारे गुनहगारों का वकील है. आखिर ये अपने खोल से बाहर आ ही गया. आखिर इसने अपनी पहचान जाहिर कर ही दी. अपनी औकात दिखा ही दी. यही तो तुम्हारी जीत है, दामिनी!

तुमने सिर्फ इसे ही नहीं, औरत को अपनी घटिया सोच के मर्दवादी संदूक में दफनकर अपने नपुंसक पुरूषत्व की डींग हांकते एक पूरे के पूरे तबके के चेहरे से नकाब नोंच लिया है, दामिनी! ये सबके सब आज बेपर्दा हो चुके हैं. कल तक ये हमारे ही बीच समाज के भद्रलोक में छिपे थे. बंद कमरों में अपने नथुनों की दुर्गंध उलीचते हुए… नैतिकता के खोल में छिपकर अपने रिश्ते की बहन बेटियों तक के लिए लार गिराते, घोंटते हुए… सब के सब छिपे थे…

The victory salute you daaminiइनके चेहरों पर एक तथाकथित सभ्य समाज की भीड़ का नकाब था, दामिनी! मगर बेनकाब तो तब हुए, जब इन्होंने तुम पर सवाल उठाना शुरु किया. जब तुमसे जानना चाहा कि तुम रात के 11 बजे अपने ब्वाय फ्रेंड के साथ क्या कर रही थीं? जब इन्होंने धमकियां दी कि अगर तुम्हारी जगह इनकी बहन बेटी होती तो सरेआम फार्म हाउस पर पेट्रोल छिड़क उसे जिंदा जला देते.

यही तो इनकी वास्तविक पहचान थी, दामिनी! यही तो इनकी असली औकात थी, जिसे ये सभ्यता की चाशनी में छुपाए बैठे थे. इस नकाब के खोल में इनकी पहचान करने में बड़ी दिक्कत हो रही थी. तुमने अपनी जान देकर ये कर दिया, दामिनी! ये कर दिया कि एक ही झटके में हमे इन मनोरोगी बलात्कारियों की पहचान करा दी. ये चाहकर भी अपनी पहचान छिपा नहीं सके, हालांकि कोशिश इन्होंने हजार की.

सालों साल से जो एक तथाकथित सभ्यता का घटिया नकाब इन्होंने ओढ़ रखा था, तुम्हारी एक लड़ाई ने उस नकाब के परखच्चे नोंच लिए. दामिनी, ये काम तो इस देश की कोई भी मशीनरी नहीं कर पाई थी. पुलिस, जज, मीडिया, जनता सभी एक अज्ञात लड़ाई लड़ रहे थे. दुश्मन हमारे बीच छिपा था, मगर हम सब सिर्फ उसे पांच-छह आरोपियों के चेहरों में देखकर संतुष्ट हो रहे थे. सिर्फ पांच-छह चलताऊ किस्म के पिछलग्गू दरिंदे ही हमारी पहचान का सबब बन रहे थे.

मगर इस बात को कोई देख ही नहीं पा रहा था कि इन दरिंदों की बदबू उलीचती सोच को खाद पानी देने वाले बड़े और सफेदपोश बलात्कारी तो हमारी ही कुर्सियों पर हमारे साथ बैठे हैं. हमारे साथ ही चाय-पानी पी रहे हैं. हमारे साथ ही उठ बैठ रहे हैं. कहकहे लगा रहे हैं. मुंह पर इत्र भरा रुमाल लपेटकर बलात्कार की शिकार तुम जैसी कितनी ही दामिनियों की टूटन का जश्न मना रहे हैं. ओछी फब्तियां कस रहे हैं.

दामिनी, ये काम तो देश की कोई भी मशीनरी नहीं कर सकी थी. ये तुमने कर दिखाया… यही तुम्हारी जीत है, दामिनी! शायद सबसे बड़ी जीत. अपनी उम्र के एक एक कतरे से हम तुम्हें सलाम करते हैं. और ये जो वहशी भौंक रहे हैं, इनकी परवाह मत करना दामिनी! क्योंकि ये तो अपनी पैदाइश से ही बलात्कारी हैं. इन्होंने तो सबसे पहले अपनी ही मां की कोख का बलात्कार किया है, क्योंकि तुम्हें दी गई इनकी गाली की शुरुआत तो इनकी मां की कोख से ही होती है, न! सबसे पहले इन्होंने उसी कोख को कलंकित किया है.

इन्होंने तो अपनी बहनों को भी नहीं बख्शा. उनकी उमंगों, उम्मीदों और सपनों की दुनिया पर होश संभालते ही इनकी नपुंसक मर्दानगी ने कब्जा कर लिया. ये तो अपनी बहनों के हिस्से की ज़मीन निगल गए. उनका फैलाव निगल गए. उनका विस्तार निगल गए। उनका आकाश निगल गए. ये अपनी बेटियों के अरमानों पर भी कुंडलियां मारकर बैठ गए. अपनी ही बेटियों के अरमानों की भ्रूण हत्या की है, इन बलात्कारियों ने…

अपने नपुंसक पुरुषत्व के गंदलाए पानी के साथ ये अपनी मां, बहन, बेटी और बीबी सभी के हिस्से की दुनिया निगल गए, घोंट गए. नैतिकता और धर्म की खोल में छिपे बैठे यही बहरूपिए… समाज की बदबूदार नालियों में घुलकर हमारी धमनियों के रक्त में मिलते यही विषाणु… यही वायरस… तुमने तो सिरे से ही इस खोल की सिलाई खोल दी, दामिनी!

हम सब तुम्हारे ऋणी हैं. हम सब तुम्हारे कृतज्ञ हैं. सच्चाई तो यह है कि हम तुम्हारे लिए कुछ भी न कर सके और तुम अपने जैसी अनगिनत दामिनियों की खातिर एक और अहसान कर गईं. खोल में छिपे बैठे इन अजगरों को मुंह बाहर निकालने पर मजबूर कर गईं. अब सिर्फ ऐसे अजगरों का मुंह कुचलना बाकी है. तुम्हारी इस जीत को सलाम दामिनी…

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