Meraj Ahmad for BeyondHeadlines
किसी भी प्रकार के युद्ध अथवा खेल की अपनी सीमायें होती है. यदि सीमायें न हों तो खेल का कोई अर्थ नहीं है. नियम पूर्वनिर्धारित होते हैं और इसी माध्यम से खेल संचालित होता है. नियमों को उल्लंघन करने वाला खिलाडी खेल से बाहर का हिस्सा मान लिया जाता है. पर क्या राजनीति का खेल भी कुछ नियमों से बंधा होता है?
निश्चित ही उत्तर है हाँ… यह नियम सामान्यतः देश के संविधान से ही अपनी वैधता और तार्किकता लेते हैं, और इससे बाहर जाने का अर्थ है राजनीति के खेल से बाहर. लेकिन राजनीति के लिए कोई समय निर्धारित नहीं है. ये सदैव चलने वाली प्रक्रिया है. मुद्दे की असीमितता नियमों के तोड़-मरोड़ की सम्भावना भी बनाये रखती है. मुद्दे की प्राथमिकता और वरीयता राजनीति का हिस्सा है और होना भी चाहिए. लेकिन विमर्श यदि उन प्राथमिकताओं और वरीयताओं के इर्द-गिर्द ही घूमता रहे जो जिससे सामाजिक न्याय के विमर्श का सफाया हो जाये, तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है के विमर्श की राजनीति तथा उसके नियमो से छेड़-छाड़ हो रही है.
मानो एक विशेष परिधि का निर्माड़ कर राजनीति के खेल की सीमा कृत्रिम रूप से निर्धारित कर दी गयी हो. समय रहते, इस प्रकार की निर्धारित सीमायें लोक-विमर्श का हिस्सा बन कर उन्हें वैधता भी देने के लिए बाध्य बन जाते हैं. साथ ही साथ प्रश्न यह भी उठने लगता है कि आखिर राजनीति में नियमो की शब्दावली कौन तय करता है?
साम्प्रदायिकता एक ऐसा ही विमर्श है जिसकी राजनीति आज लोक विमर्श का सबसे बड़ा मुद्दा बन कर सामने आ गया है. दो पाले खिंच गए है और दोनों के ही अपने राजनीतिक स्वार्थ हैं. खेल अब नैतिक मूल्यों की लड़ाई बनकर संविधान को जीतना या हराना चाहता है. प्रश्न यही है के ये खेल कब तक खेला जाएगा? विमर्श की संकुचित परिधि कब दीर्घ रूप लेकर राजनिति की अन्य प्राथमिकताओं जैसे सामाजिक न्याय, शिक्षा तथा रोज़गार को आदर्श रूप में प्राथमिकता देंगी?
सम्प्रादायिकता का कृत्रिम विमर्श आज की राजनीतिक विमर्श का मुख्या हिस्सा हो चुका है. संचार माध्यमों (मीडिया) की गला-काट प्रतिस्पर्धा “विमर्श की राजनिति” को “राजनीति का विमर्श” बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. इसलिए ऐसा भी कहा जा सकता है के कहीं न कहीं मीडिया का कुछ हिस्सा भी इस खेल का अभिन्न बन चुका है जो विमर्श तथा नियमो का न सिर्फ तय करता है बल्कि जीवित भी रखता है. मुख्य रूप से मीडिया का उद्देश्य है, नैतिकता के आधार पर, प्राथमिकताओं को तय कर राज्य तथा सरकार से जवाबदेही तय करे. लेकिन आज की पूंजीवादी परिस्थिति में ऐसा संभव नही दिखता है.
वैसे तो नागरिक-समाज का आदर्श स्थिति में राजकीय कार्यों में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, लेकिन विमर्श की अधिकता, विभिन्नता और प्राथमिकता की मार ने ये प्रयोग भी कर के देख लिया. शोध का विषय होना चाहिए. आज तक नागरिक समाज ने कुछ कितनी विश्वास की कुल जमा पूँजी कितनी बटोर रखी है. आज के नागरिक-समाज भी क्या कृत्रिम विमर्श का हिस्सा बन उसी कृत्रिम विमर्श का हिस्सा तो नहीं? अगर उत्तर सकारात्मक मिलता है तो ये नकारात्मक दिशा का संकेत है.
आज इस परिधि के दुष्चक्र में फंसा हुआ नागरिक उत्तरदायित्व को निर्धारित करने वाले संस्थानों के हाथ कठपुतली मात्र बन कर रह गया है. मजबूर है ऐसे खेल का हिस्सा बनने को जो खेला उसी लिए जा रहा है लेकिन वह इस खेल का हिस्सा नहीं रहा. क्या कभी दलित, पिछड़ा तथा पसमांदा विमर्श राजनीति के नियमों को तय करेगी? क्या कभी प्रचलित विमर्श से अवगत समाज “विमर्श की राजनिति” तथा “राजनिति के विमर्श” के दुष्चक्र से बाहर आकर खुली हवा में सांस ले पाएगा? क्या कभी भारतीय नागरिक चुनाव के अतिरिक्त भी शासन-प्रशासन का हिस्सा माना जाएगा? यदि समय रहते ऐसे नहीं हुआ तो संभवतः विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र संविधान में निहित उद्देश्यों की प्राप्ति के लक्ष्य से भटक जाएगा.”
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध-छात्र हैं.)