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क्या पीड़ित के साथ इंसाफ हो पायेगा?

Sonika Sharma for BeyondHeadlines

मौका परस्त व दबंग, बाहुबलियों को अगर मौका मिले तो वे चंगुल में फँसे शिकार का मरते दम तक खून चूसने से बाज़ नहीं आते. अगर इन्हें पता चले कि सामनेवाला बड़ी आसानी से उसके चंगुल में फँस सकता है और वह उसका शोषण बिना किसी ज़ोर-जबरदस्ती व मेहनत-मशक्कत के आसानी से कर सकते हैं, तो वे ऐसा करने से कभी बाज़ नहीं आते. जैसे आर्थिक रूप से परेशान व्यक्ति का कम कीमत पर मकान हड़पना, कम कीमत देकर अधिक श्रम करवाना, मजबूर व्यक्तियों के बच्चों या बच्चियों से बेगारी करवाना, मौका मिले तो मजबूर कमज़ोर महिला का शारीरिक शोषण करना.

इन सभी मामलों में पीड़ित व्यक्ति यह समझता है कि मालिक उसका शोषण नहीं, बल्कि उस पर एहसान कर रहा है. यह खेल देश में सभी जगह बदस्तूर जारी है. देश में हर क़दम पर पुलिस प्रशासन की भ्रष्ट-नीति व व्यवस्था, स्वार्थी मानसिकता का कारण है, कि शोषित होने के बाद भी पीड़ित थाने जाकर मामला दर्ज करवाने की हिम्मत नहीं कर पाता. क्योंकि अगर वह वहाँ जाता है, तो भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से दोषारोपण पीड़ित पर ही लगा दिया जाता है. और कई बार “शोषित” गरीबी की वजह से मामला दर्ज करने की हिम्मत नहीं कर पाता. ठीक ऐसा ही मामला थाना बस्ती जोधेवाल, ताजपुर रोड़, लुधियाना का है.

एक महिला का डेढ़ महीने से शोषण तो हो ही रहा था. साथ ही उसकी 2.5 वर्षीय बच्ची का भी बलात्कार करने की कोशिश की गई, जिसमें बच्ची को दाँतों से जाँघों व पेट पर बुरी तरह काटा गया और निजी अंगों पर गंदगी भी साफ दिखाई दी.

Will do justice to the afflicted?बदनामी के डर की वजह से मामला उस समय दर्ज नहीं किया गया. संबंधित मामले में हमारी संगठन ने जाँच-पड़ताल करते हुये शिकायत-पत्र संबंधित विभागों में भेजे थे, जिसकी वजह से संबंधित जाँच अधिकारियों ने पीड़ित को पुलिस थाने तो बुलाया. मगर बयान भी नहीं लिया और जैसा कि पुलिस कमीश्नर के पत्र द्वारा कहा गया था कि बच्ची वापस आयेगी तो उसका मेडिकल करवाया जायेगा मगर कुछ भी नहीं किया गया. जाँच अधिकारियों द्वारा पीड़ित से जिस प्रकार का व्यवहार किया, उससे यह नज़र आ रहा है कि पीड़ित शोषित नहीं बल्कि अपराधी है और जाँच अधिकारी एक आरोपी से पूछ-ताछ कर रहे हैं.

संबंधित मामले की हमारे संगठन द्वारा विश्लेषण व विवेचना करने पर यह कहानी बनती नज़र आ रही है, जो पूर्णतया सत्य होने में अविश्वसनीय नहीं लगती. जैसे आरोपी का कहना है कि “मैंने 25000/- रु. पीड़ित को दिये थे जो लौटाना न पड़े इसलिये मुझ पर गलत आरोप लगाया जा रहा है.” जाँच विभाग के एक अधिकारी ने कहा है कि “25000/- रु. की रसीद भी आरोपी के पास मौजूद है” हमारी समझ में या किसी की भी समझ में यह आसानी से आ जायेगा कि “आरोपी सच्चा है या झूठा” उसके लिये उस रसीद की जाँच (जो पीड़ित से आरोपी द्वारा ली गई होगी) करवाकर बड़ी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि “यह असली है या नकली” जब आगे जाँच पड़ताल की गई तो पता चला कि आरोपी एक क्लब (रॉयल क्लब) में साफ-सफाई का काम करता है, जिसका उसे 2000/- रु. प्रति महीना मिलता है, उसी क्लब(रॉयल क्लब) के मालिक राजू से आरोपी ने 25000/- रु. नकद लेकर पीड़ित को दिये थे, जब संबंधित क्लब के मालिक राजू से बातचीत की गई तो उसने बताया कि मेरे से 25000/- रु. आरोपी जितेन्दर ने लिये थे और कहा था कि उसके “किरायेदार के रिश्तेदार की तबीयत खराब है उसके लिये 25000/- रु. चाहिये.” जब क्लब के मालिक राजू से पूछा गया कि “2000/- रु. कमाने वाले अपराधी को आपने 25000/- रु. जितनी बड़ी रक़म कैसे दे दी”? तो उसका जवाब था कि “यह कोई बड़ी रकम नहीं है, उसने एक-एक हज़ार रु. करके देने के लिये कहा है.” जब उससे अग्रिम राशि (Advance) दिये गये Ledger(बहीखाता) की कॉपी माँगी गई तो दो दिन के बाद वह कॉपी मिली, जिसे देखने के बाद एक बच्चा भी कह सकता है कि इस Ledger पर लिखा गया बहीखाता किसी ने रातों-रात (एक दिन, एक ही समय) बैठ कर लिखा है जो शायद संबंधित मामले के जाँच अधिकारियों को दिखाई नहीं दिया.

शायद ही कोई ऐसा मालिक होगा जो बमुश्किल पूरे महीने भर में ज्यादा से ज्यादा 15000/- के Collection में से, जिसमें चार से पाँच हज़ार रु. का सामान्य खर्चा भी होता होगा, के यहाँ नौकरी करने वाले को जिसकी तनख्वाह 2000/- रु. हो उसे 25000/- रु. अग्रिम राशि(Advance) के रूप में दे सके जबकि यह 25000/- वे खुद के लिये नहीं बल्कि दूसरे को देने के लिये ले रहा हो और वह भी बिमारी का नाम लेकर…

हाँ, हमारे देश में ऐसे कई दयालु प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं मगर वे भी अगर किसी को बीमारी के नाम पर उधार देंगे तो कम से कम उस बीमार व्यक्ति का नाम, पता व उसे कौन सी बीमारी में खर्च करना पड़ रहा है. यह अवश्य पता करेंगे. साथ ही यह भी देखेंगे कि कम से कम खर्चे में उसकी बीमारी का इलाज हो जाये मगर इस मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
चलिये मान लिया जाये कि मालिक ने आरोपी को पैसा दिया और आरोपी का कहना है कि उसने 25000/- रु. पीड़ित को ब्याज पर दिया था तो इसका मतलब यह हुआ कि आरोपी ब्याज पर रु. के लेन-देन का धंधा करता है. मतलब इस तरह का व्यवहार(ब्याज पर पैसा लेन-देन का) और भी कई व्यक्तियों के साथ भी किया होगा, क्या जाँच अधिकारियों ने इस बात की तस्दीक की है? क्या आरोपी के पास ब्याज पर रु. लेन-देन का लायसेन्स है? अगर नहीं, तो क्या आरोपी ने पीड़ित के साथ के लेन-देन का व्यवहार क्या “सरकारी मान्यता प्राप्त Franking के तहत” बनवाया था? अगर नहीं, तो क्या Stamp paper पर उसने लिखा-पढी की थी? अगर वह भी नहीं तो क्या किसी प्रकार की लेन-देन की रसीद दोनों के बीच बनी थी? अगर जाँच अधिकारी ने बिना इस बात की तस्दीक किये पीड़ित के आरोप को झूठा करार दिया है तो इसका साफ मतलब है कि जितने भी जाँच अधिकारी संबंधित मामले से जुड़े हैं उस सभी ने मामले को दबाने के लिये निश्चित तौर पर भ्रष्टाचार का सहारा लिया है. अन्यथा संबंधित मामले में खुद न्याय करने के बजाये आरोपी के खिलाफ Charge Sheet दाखिल करके खुद न्याय करने की अपेक्षा अदालत को न्याय करने का मौका देते. जिसकी वजह से आज मामले के 1 वर्ष होने के बावजूद पीड़ित को न्याय नहीं मिल पाया है.

पूरे देश का हर पुलिस महकमा यह बात जानता है कि 10% से 15% महीने का ब्याज लेने वाले देश के हर क्षेत्र में फैले हैं, जिनकी कार्यप्रणाली के बारे में पुलिस प्रशासन को पूरी जानकारी रहती है, ऐसे साहूकार पैसा अधिकांशतः दलालों के जरिये पैसा देते हैं या जिनसे उनकी काफी पुरानी पहचान होती है, उन्हें देते हैं. यहाँ आरोपी के कथनानुसार न तो आरोपी ने खुद ब्याज पर पैसा दिया है न कि दलाली करते हुये पैसा ब्याज पर दिलवाया है. आरोपी की पीड़ित से सिर्फ तीन महिना पुरानी ही मुलाकात है इसका मतलब आरोपी, पीड़ित से ज्यादा जान-पहचान वाला भी नहीं है, यह सारे विश्लेषण आरोपी के पीड़ित पर लगाये गये आरोप को संदेहास्पद बनाते हैं, क्या जाँच अधिकारी ने इस पर गौर नहीं किया? अगर गौर नहीं किया तो वे अपने पद बने रहने की काबलियत ही नहीं रखते. मतलब उनकी पदावनति (Demotion) होनी चाहिये.

संबंधित मामले में जाँच अधिकारी पीड़ित से कहती हैं कि “पूरा मौहल्ला झूठा है और सिर्फ तुम लोग सच बोल रहे हो.” इस बात पर हमारे संगठन का कहना है और यह सर्वविदित भी है कि दबंगों के खिलाफ क्षेत्र का कोई भी निवासी कभी भी कुछ नहीं बोलता है. जबकि आरोपी जतिन्दर अपनी माँ और बहन को भी गंदी-गंदी गालियाँ देता है और हमेशा झगड़ता रहता है, जिसके बारे में उसकी माँ खुद कहती है कि “इसे तो उसने (पड़ोस में रहने वाली महिला) जाल में फँसा रखा है”, साथ ही जो व्यक्ति अपनी बहन के पास काम के सिलसिले में आने वाली महिलायों से भी अभद्र शब्दों का उपयोग करता हो(पीड़िता और उसके पति के कथनानुसार), जिन्हें अगर उन महिलाओं के पति या घरवाले सुनें तो कभी घर की महिलायों को इस दबंग की बहन के पास काम लेने के लिये भेजें ही नहीं, मगर हम सब यह जानते हैं कि यह इस प्रकार की अभद्र व अश्लील शब्दों का उपयोग हर वह मालिक या बॉस अपने उस प्रतिष्ठान में इस्तेमाल करता है जो उसके अतंर्गत होते हैं, चाहे वह सरकारी हों या निजि.

यह मामला बाहर आने के बाद हालात यह है कि कोई भी इस दबंग से उसके सामने तो कुछ कहता नहीं है मगर अपनी पत्नी, महिलायों या बच्चियों को इस आरोपी से दस कदम दूर ही रखता है, जिसकी जाँच अगर ईमानदारी से की जायेगी तो बड़ी आसानी से पता चल जायेगा. बहाना बनाया जा रहा है कि 25000/- रु. न देना पड़े इसलिये यह आरोप लगाया जा रहा है, तो जाँच अधिकारी इतना तो पता कर ही सकते हैं कि पीड़ित का मकान में छूटा हुआ सामान ही लगभग 15000/- रु. से 25000/- रु. के आसपास है(जो दबंग की दादागिरी व गुंडागर्दी की वजह से निकाला नहीं जा पा रहा है).

संबंधित मामले में जब पीड़िता के पति को पता चला था कि बच्ची के साथ-साथ मेरी पत्नी का भी डेढ़ महीने से शोषण किया जा रहा है (जो सबूतों के साथ उसे पता चला था). यह सर्वविदित है कि हमारे देश में एक पुरूष जितना भी व्यभिचार करे मगर उसको सामाजिक प्रताड़ना का शिकार नहीं होना पड़ता, मगर महिला के साथ उसकी मर्जी के बिना भी उसकी अस्मत लूटी जाये तो भी उस महिला को सामाजिक प्रताड़ना के साथ-साथ बेघर होने का खामियाज़ा भी भुगतना पड़ता है. उसी परिस्थिती से दो-चार होते हुये पीड़िता के पति ने पीड़िता के भाई के सामने सबूतों के साथ अपनी पत्नी के संबंधों को रखा, जिसका जवाब पीड़िता का भाई नहीं दे सका और सच को स्वीकारा. जैसा कि, ऐसी स्थिती में होता है कि पीड़िता डर व भय की वजह से अपनी सफाई में कुछ कह नहीं पाती, वैसा ही यहाँ हुआ मगर उसका मन साफ होने की वजह से उस बच्ची को (जिसे उसके पति ने उससे अलग करके अपने माँ-बाप के पास छोड़ दिया था) अपने भाई व मामा के सहयोग से बुलवा लिया और बदनामी व डर की वजह से पति से बातचीत किये बिना अपने मायके चली गई. क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में हमारे समाज में पति अकसर पत्नी की हत्या ही कर देता है. भले ही बाद में उसके साथ कुछ भी हो वो परवाह नहीं करता. ऐसी परिस्थिती में पीड़िता का पति पूरी तरह टूट चुका था और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे? जिसकी वजह से वो अपने अच्छे खासे काम को छोड़कर खुद के गाँव चला गया.

जैसा कि कहा जाता है, कि “वक्त हर घाव का मरहम(दवा) होता है”, ठीक वही पीड़िता के पति के साथ हुआ और वह वापिस आया, तब उसे पता चला कि पूरे मौहल्ले में दबंग जितेन्दर उसका व उसकी पत्नी का मज़ाक उड़ा रहा है और बदनाम करते हुये कह रहा है कि “मैंने इसकी बीवी व बच्ची के साथ इतना सब किया मगर मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका.”

आखिर पीड़िता के पति के दोस्त ने उसे समझाया कि “अगर आप दोषी को सज़ा नहीं दिलवायेंगे तो वह ऐसे ही नये-नये शिकार फँसाता रहेगा जिसे समझ कर पीड़िता के पति ने Complaint (No. cr9609) दर्ज करवाई जिसके वजह से दबंग द्वारा उसे कई धमकियाँ भी मिली और अपमानित भी किया गया, जिसमें पुलिस महकमे के लोग भी शामिल थे.
पीड़िता डर व बदनामी की वजह से ससुराल वापस नहीं आ रही थी, जब हमारे संगठन के पास यह पूरा मामला आया तो मामले की विवेचना करने के बाद पूरी कहानी समझ आई. संगठन द्वारा पीड़िता व उसके पति और दोनों के परिवारों को समझाते हुये टूटते वैवाहिक रिश्ते को बचाया गया और उनसे कहा गया कि “ऐसे दरिन्दे को समाज में खुला छोड़ना यानि मौका देना होगा. अन्य बच्चियों व महिलायों का शोषण करने के लिये, जैसे हम किसी आदमखोर शेर को खुला नहीं छोड़ सकते. उसी प्रकार इस वहशी दरिन्दे को खुला छोड़ना समाज के लिये घातक होगा. अतः कानून पर भरोसा रखो इंसाफ अवश्य मिलेगा.”

हमारे देश के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग की हालत यह है कि वे एक शिकायत मिलने पर उसकी विवेचना तो करते ही नहीं हैं बल्कि खुद की गलती को दूसरे के (पीड़ित) ऊपर थोप कर उसे ही प्रताड़ित करने की कोशिश करते हैं. जबकि इन आयोगों पर देश की जनता का अरबों रुपया खर्च किया जा रहा है, मगर देश के इन आयोगों में बैठे बड़े-बड़े अधिकारी जो अधिकांशतः सेवानिवृत्त न्यायाधीश और IAS अधिकारी होते हैं, लगता है वे सिर्फ घर पर बैठ कर तनख्वाह लेने का ही काम कर रहे हैं. उन्हें जनता की भलाई से कोई मतलब नहीं है.

संबंधित मामले में जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग को पत्र भेजा गया था तब पत्र में पीड़ित का पता साफ-साफ लिखा था. मगर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की तरफ से भेजे गये पत्र में पता गलत लिखा था. मगर आयोग ने विभाग की लापरवाही व गलती को देखे बिना पीड़ित को ही इस मामले में दोषी करार दिया और प्रताड़ित किया. यह हालात हमारे देश के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग की हैं.

(लेखिका भ्रष्टाचार विरूद्ध भारत जागृति अभियान से जुड़ी हुई हैं.)

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