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इंटर्नशिप का सफ़र…

Aina Tomar for BeyondHeadlines 

पत्रकारिता के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी इंटर्नशिप को करिअर के विकास का अहम हिस्सा माना जाता है. वैसे पत्रकारिता के छात्रों के लिए इंटर्नशिप पाना आसान नहीं है. जिन्हें इंटर्नशिप मिल भी जाती है उन्हें इंटर्न अवधि के दौरान कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. भारत में पत्रकारिता की पढ़ाई अभी भी पूरी तरह संगठित नहीं हो पाई है, इसलिए यहां मीडिया में इंटर्नशिप की अवधरणा भी अपेक्षाकृत नई है. पर यह जानना काफी दिलचस्प है कि आखिर इंटर्नशिप की शुरुआत कैसे हुई और कैसे यह हर किसी के करिअर का अहम हिस्सा बन गया.

इंटर्नशिप के मूल में पेशेवर प्रशिक्षण को माना जा सकता है. बजाहिर, हर काम के लिए एक खास तरह के प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है. पहले व्यावसायिक तालीम की व्यवस्था भी नहीं थी. इसलिए हुनरमंद बनने के लिए काम करना ज़रूरी था. इसी बात को दिमाग में रखते हुए यूरोपीय देशों में इसकी शुरुआत ग्यारहवीं सदी में हुई थी. वहां के कारोबारी नए लोगों को अपने यहां रखते थे और उन्हें हल्के काम दिए जाते थे. इसे काम सीखने का पहला पड़ाव माना जाता था. नए लोगों को आम तौर पर फाइल तैयार करने और फोटो कॉपी करने का काम दिया जाता था. उस वक्त एक प्रशिक्षु को सालों तक किसी कारोबारी के साथ काम करना पड़ता था. जब वह काम सीख जाता था तब उसे जाकर रोजगार के अवसर उपलब्ध हो पाते थे.

आम तौर पर होता यह था कि जो प्रशिक्षु जिस कारोबारी के यहां प्रशिक्षण लेता था वहीं उसे नौकरी मिल जाती थी. उस समय इस प्रशिक्षण को अप्रेंटिसशिप कहा जाता था. लंबे समय तक ऐसा ही चलता रहा. कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ.

जब दुनिया में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई तो व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता काफी तेजी से बढ़ने लगी. 1890 से 1920 के बीच में मेडिकल की पढ़ाई में अप्रेंटिसशिप को शामिल कर लिया गया. हालांकि, वह प्रशिक्षण ज्यादा वैज्ञानिक और लेक्चर आधरित था. यानी मेडिकल के छात्रों की पढ़ाई में इसके ज़रिए व्यावहारिक प्रशिक्षण को शामिल किया गया. मेडिकल के छात्रों को अप्रेंटिसशिप के दौरान भी काम करने से ज्यादा लेक्चर सुनना पड़ता था, लेकिन उसका  व्यावहारिक पहलू उनके आंखों के सामने होता था. इसके बाद सोशल वर्क, इंजीनियरिंग और बिजनेस की पढ़ाई में भी अप्रेंटिसशिप को शामिल किया गया. 19 वीं सदी के आखिरी में ही इसे इंटर्नशिप का नाम दे दिया गया. पर सही मायने में इंटर्नशिप को औपचारिक रूप दिया गया 1960 के आसपास…

उस समय दुनिया में औद्योगिकरण काफी तेज़ गति से बढ़ रही थी. कई देशों की अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव हो रहा था. इसकी वजह से योग्य लोगों की ज़रूरत बढ़ी. कंपनियों और कारोबारियों के लिए इंटर्नशिप देना एक अच्छा विकल्प बन गया. इसका सबसे बड़ा फायदा यह था कि कंपनियां और कारोबारी इंटर्न को अपनी ज़रूरत के हिसाब से ढालकर उसे अपना कर्मचारी बना लेते थे. इसे कर्मचारियों को भर्ती करने का एक ज़रिया मान लिया गया. आज भी कई कंपनियां इंटर्नशिप के आधार पर नौकरियां देती हैं. भारत के कई मीडिया संगठन भी इंटर्नशिप के दौरान किए गए प्रदर्शन के आधार पर नौकरियां दे रही हैं. हालांकि, मीडिया में इंटर्नशिप के ज़रिए नौकरी पाने वालों की संख्या दूसरे क्षेत्रों की तुलना में अपेक्षाकृत कम है.

बहरहाल, 1960 से 1980 के बीच सबसे ज्यादा इंटर्नशिप वित्त, मनोरंजन और स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में बढ़ा. सत्तर के दशक में इंटर्नशिप की प्रवृत्ति काफी तेजी से बढ़ी. दुनिया भर के शिक्षण संस्थानों में छात्रों को इंटर्नशिप दिलाने के लिए होड़ मच गई. 1980 के बाद बिज़नेस स्कूलों ने इंटर्नशिप को और ज्यादा पेशेवर रूप दिया. इंटर्नशिप को व्यावहारिक प्रशिक्षण के साथ-साथ संबंध बनाने का भी अहम ज़रिया माना जाने लगा. खास तौर पर प्रबंधन और मीडिया के छात्रों के लिए संबंध बनाने का यह अवसर अहम हो गया.

इंटर्नशिप का फायदा सिर्फ कंपनियों ने ही नहीं उठाया, बल्कि छात्रों ने इस रास्ते का इस्तेमाल कई तरह से किया. नौकरी पाने के लिए तो इंटर्नशिप का इस्तेमाल किया ही गया, साथ ही साथ किसी क्षेत्र को समझने के लिए भी छात्रों ने इंटर्नशिप का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. इंटर्नशिप के दौरान छात्र संबंधित क्षेत्र के काम करने के ढंग से वाकिफ हो जाते हैं और फिर उसके मुताबिक अपना फैसला लेते हैं. इसके बाद जो क्षेत्र जितना संगठित हुआ उस क्षेत्र में इंटर्नशिप भी उतना ही पेशेवर रूप ले पाया. प्रबंधन की शिक्षा भी संगठित हुई और इस क्षेत्र में इंटर्नशिप भी एक बेहतर आकार ले पाया. जबकि मीडिया शिक्षण असंगठित ही रहा. इस वजह से मीडिया में इंटर्नशिप पेशेवर रूप नहीं ले पाया. प्रबंधन और मेडिकल के छात्रों को इंटर्नशिप के दौरान पैसा भी मिलता है. जबकि मीडिया के छात्रों को पैसा मिलना तो दूर उन्हें इंटर्नशिप पाने के लिए भी नौ दिया तेल जलाना पड़ता है.

मीडिया में इंटर्नशिप की व्यवस्था की बदहाली का आलम तो यह है कि कई चैनल इंटर्न के सहारे ही चल रहे हैं, लेकिन मेहनताने के नाम पर इंटर्न को एक फूटी-कौड़ी तक नहीं दे रहे हैं. हां, अगर ऐसे मीडिया संस्थान इंटर्नशिप करने वालों को कुछ देते हैं तो वह है भयानक निराशा… हालांकि, कुछ मीडिया संस्थान ऐसे भी हैं जहां इंटर्नशिप करने वालों को पैसा तो नहीं मिलता लेकिन प्रशिक्षुओं को ज़रूरी प्रशिक्षण और सम्मान दिया जाता है. पत्रकारिता की सेहत सुधरने के लिए मीडिया में इंटर्नशिप की व्यवस्था को सुधरना भी बेहद ज़रूरी है.

(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं.)

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