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दीवाली: यादों के दो दीए…

Anamika for BeyondHeadlines

वैसे तो हर दीया एक संस्मरण है, एक निजी संस्मरण, सामूहिकता और पंक्तिबद्धता को निवोदित एक निजी स्मृति, एक अकेला आत्मन, पर सबसे ज्यादा आज याद आ रहे हैं दो दीप- एक तो घूरे पर लपक-लपक कर जलने वाली पुरानी जमदियरी जो मां और मुहल्ले की सब औरतें दीवाली के एक दिन पहले घर से बाहर निकालकर कहीं दूर घूरे पर रख आती थीं. घर की हारी-बीमारी, रोग-बलाय, और अकाल मृत्यु के प्रकोप प्रतिक रूप में निष्कासित कर दिए जाते थे. यम को निवेदित इस दियरी पर मैंन एक कविता उस दिन लिखी थी जिस दिन ऐन दिवाली के दिन दिल्ली स्थीत सरोजिनी नगर में बम-विस्फोट हुआ थाः

कहते हैं लोग, बदल गयी दुनिया

घूरे के दिन फिर गये अब तो!

मैं बूढ़ा घूरा-

रख गया है मेरे कूबड पर कोई

फिर से जमदीया!

पिछली दीवाली में जो दीया

काल-देवता के त्रिपुण्ड की तरह

धधका था घर की ऊँची मुँडेर पर-

लपलपा रहा है वह इस साल मुझपर

लल जिह्वा मृत्यु की बनकर!

दिन तो फिरे ही, फिरे मेरे!

रंगीन हैं मेरे कपड़े-

तरह-तरह के बिस्कुट-टॉफी के रैपर,

तरह-तरह के डब्बे, पेय और सैशे

लपेटे खड़ा हूँ मैं ऐसे

जैसे कि कोई बूढ़ा बाप

दीवाली में घर आए बॉस के आगे

लाया गया हो मजबूरी में

एक्सपोर्ट सरप्लस के कपडे़ पहना के!

पहले मैं गन्दुमी राख ही पहनता था!

औधरों का एक झुंड दीखते थे हम घूरे..

लकड़ी के चूल्हे की राख, तुतमलंगा थोड़ा,

थोड़ा चिरैता, लौकी और आलू की छीलन

थोड़ा-सा आंवला बहेरा-

यें सब फिकैत चीजें मुहल्ले के हर घरनी

मुझको ही मनती थीं अपना बिस्तरा!

गरम राख ओढ़े हुए कुनमुनाती थीं

गयी रात हमपर-

एक ही रजाई में लाता-लूती खेलकर सोए

भाई-बहनों के मानिंद…

गने को गाती हैं दादियाँ

जमदियरी पूजती हुई आज भी-

‘‘खुद घूंट जाता है अपनी लतर से ज्यों

पका हुआ खरबूजा, घूटें हम मृत्यु के भय से.

दीवाली के पहले जल जाए

हारी-बीमारी, कर्जा, कर्जा-वर्जा

जमदियरी की लौ में’’

देखती हूँ मैं चुपचाप कि वैसे इस बात पर मुँह दबाकर

हँसते हैं क्रेडिट कार्ड, हँसते हैं चार्वाक,

हँसत हैं ग्रामदेवता!

हँसती है बिल्ली-पाँवो से बढी आती सर्दी,

हँसता है ताजा अखबार-

‘दीवाली की पूर्व-सन्ध्या पर

बम फूटा फिर सरे बाजार

दूसरा दीप जो मेरी स्मृतियों में अलग से धडकता है- वह है दिल्ली के एक वर्किंग विमेंस हॉस्टल की उँची दीवार पर एक सेक्योरिटी गार्ड द्वारा जलाया गया अकेला दीया. वर्किंग विमेंस हॉस्टलों में और ट्रेनों में दीवाली की रात जो स्त्रियाँ दिखाई दें- समालिए कि योगिनियाँ हैं, जिनकी स्मृति को निवेदित एक कविता यहः

असमंजस में कुट-कुट काट रही नाखून

खिड़की पर झुकी हुई शाम!

खाली है हॉस्टल, मेस बंद है!

हर कमरे में ढाबुस-सा लटका है ताला!

जाने को एक जगह, करने को एक काम

चाहिए तो सबको धरती पर,

पर चाहने से क्या होता है.

सिर्फ एक कमरे में जल रही है बत्ती और मोमबत्ती भी

दुबली विधवा- जैसी

लौ की गठरी लेकर

कोने में गल रही उदास!

धुआं-धुआं आँखे हैं उसकी!

देख रही है-कैसे दूर वहां छत पर

अँधियारे के बैंगनी आँचल पर

झलर-मलर गोटे की झालर

टांक रही है फुलझड़ी

दूर -दूर से देखती है वह सबकुछ

धीरे-धीरे उदास होती,

फिर फक्क हँस देती आँखों से-

फक जैसे जलता है लाइटर

हॉस्टल की चारदीवारी पर

दो दिए बालते नेपाली दरबान का!

कहलाता है सेक्योरिटी गार्ड वह, लेकिन

उसके जीवन में भी नहीं कोई सेक्योरिटी,

हर महीने ही जिसकी छूट जाए नौकरी-

दीवाल तो उसकी ऐसे ही अनमन

बजाएगी सीटी!

भूमण्डलीकरण या कहिए भूमण्डलीकरण के इस दौर में त्योहार अकेले व्यक्ति को और अकेला कर जाते है; कच्ची-पक्की नौकरियां ढूंढते विस्थापित नौजवान, अकेली स्त्रियां, बीमार और उपेक्षित वृद्धजन, बाल-मजदूर, भिखारी और हिजडे ऐसी मंहगाई और ऐसी असुरक्षा के बीच लगातार हमारी उपेक्षा या फटकार के अंधेरों से कैसे जूझते हैं भला. मंहगे व्यावसायिक तोहफे लिए इधर-उधर दौड़ती गाडियां और उनक बीच से देह सिकोडकर निकल जाता एक अकेला गरीब व्यक्ति; यह दृश्य आम है. हम ऐसा क्या कर रहे हैं जो उनका जीवन भी उज्जवल हो.

(लेखिका मशहूर कवित्री हैं)

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