Alok Kumar for BeyondHeadlines
दो दिन पहले आम आदमी पार्टी की जंतर-मंतर रैली में इनके अति-उत्साहित नेताओं का सम्बोधन सुन रहा था. सुनने के बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि एक दिशाहीन कुनबा है, जिसके पास जनता से मिले अपार समर्थन का जोश तो है, मगर कोई राजनीतिक सोच एवं रणनीति नहीं है. शायद इस सच से श्री अरविन्द केजरीवाल भली -भाँति वाकिफ हैं और इसी को ध्यान में रखकर वो सरकार बनाने की जिम्मेदारी से परहेज कर रहे हैं.
जनता से ऐसा समर्थन मिलेगा, इसकी उम्मीद शायद केजरीवाल एंड टीम को भी नहीं थी. लोकतंत्र का इतिहास बताता है कि “जनता अर्श से फर्श तक भी पहुँचाती है और चुनावों में जीत के खुमार का भी ईलाज बखूबी करती है.”
चुनाव जीतना और शासन करना दो भिन्न मुद्दे हैं. केजरीवाल एंड टीम में कुछ को छोड़कर अनुभवहीन लोगों की जमात ही ज्यादा है. “देश और प्रदेश चलाना इसका दायरा बहुत ही व्यापक है. ” मैं भी “आप वालों ” की सफलता से एक दूसरे दृष्टिकोण से खुश हूँ “एक वैकल्पिक राजनीतिक दल का उभर कर आना, लोकतंत्र के लिए बढ़िया है. “ये मौजूदा राजनीतिक पार्टियों पर अंकुश लगाने का भी काम करेगा. चेक्स एंड बैलेन्स का होना लोकतंत्र की सार्थकता और उपयोगिता के लिए निहायत ही ज़रूरी है. लेकिन दूसरी तरफ मैं सशंकित भी हूँ क्यूँकि “ये उन लोगों का ही जमावड़ा है जिन्होनें अन्ना के जन-आन्दोलन को बिखेर कर रख दिया था, अन्ना के आंदोलन को हाइजैक कर ये कहने को मजबूर किया था कि “ना खुदा मिला, ना बिसाले सनम.”
ये द्रष्टव्य है कि केवल चुनावों में बेहतर प्रदर्शन से व्यवस्था परिवर्तन का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है. चुनावी राजनीति में शामिल होने वाले समूहों के साथ संवाद स्थापित कर जनहित की नीतियों को अमली -जामा पहनना होगा, नहीं तो “आप की छाप” का निशान मिट जाएगा. वैसे भी भारत में “टिकाऊ झाड़ू ” नहीं मिलता. सब कुछ एक झटके में हासिल हो जाएगा, केजरीवाल जी के कुनबे के लिए यह सोचना जल्दबाजी होगी.
अरविन्द केजरीवाल और इनकी पार्टी के लिए अच्छा तो होगा कि “लगातार सभी राजनैतिक दलों को चोर और भ्रष्ट कहने की बजाय दिल्ली के मतदाताओं का भी ख्याल करें जिन्होंने इनकी बातों पर विश्वास करके इनको अपना कीमती मत दिया है.” केवल ये कहने से काम नहीं चलेगा कि “आप आम आदमी हैं, ईमानदार हैं और आप राजनीति में केवल आम आदमी के हितों को पूरा करने के लिये आए हैं.”
अब इसको बार- बार दोहरा कर अपने दायित्वों से पाला नहीं झाड़ा जा सकता. अब केजरीवाल और इनकी पार्टी को चाहिए कि जिनको सस्ती बिजली और मुफ्त पानी का सपना दिखाया था उनका सपना पूरा करने के लिये आगे आयें. यह करने की जगह आप लोकसभा चुनाव की चिंता कर रहे हैं.
मेरा तो मानना है कि अगर “आप” ने दिल्ली वालों को जो सपने दिखाये हैं वह पूरा कर गए तो लोकसभा चुनावों की चिंता “आप” को करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी, तब तो वास्तव में “आप” नहीं जनता“आप” का चुनाव लड़ेगी. अगर “आप” वास्तव में जैसा कहते हैं ठीक वैसे ही हैं यह तो आप नहीं जनता तय करेगी. अगर “आप ” दिखाए गए सपनों को हकीक़त में बदलने में नाकाम होती है तो मैं “आप”को झूठे सपनों का सौदागर ही कहूंगा और “आप” की सोच को भी भ्रष्ट कहने में मुझे कोई संकोच नहीं होगा. जो भ्रष्टाचार दिखाई देता है उसकी जननी भ्रष्ट सोच ही होती है.
आम आदमी पार्टी के संयोजक और अब नई दिल्ली के माननीय विधायक अरविंद केजरीवाल जी कहते हैं कि, हम तो दबे और कुचले आम लोग हैं. हम वो लोग हैं जो मंहगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं और हमारे पास तो चुनाव लड़ने का पैसा भी नहीं था. चुनाव लड़ने के लिये तो हमने जनता से पैसा मांगा और जनता ने हमें चुनाव लड़ने के लिये पैसा दिया. साथ में यह भी जोड़ते हैं कि हमें दिल्ली का चुनाव लड़ने के लिये मात्र 20 करोड़ चाहिये था और जैसे ही 20 करोड़ हमारे खाते में आया हमने चंदा मांगना बंद कर दिया. मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि जब चुनाव आयोग ने हर उम्मीदवार को चुनाव लड़ने के लिये 16 लाख की खर्च सीमा तय कर रखी है तब अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी को दिल्ली का चुनाव लड़ने के लिये 20 करोड़ की आवश्यकता क्यों पड़ी? आप के कुल 69 प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे और अगर 69 प्रत्याशी 16 लाख के हिसाब से अपने अपने चुनाव में खर्च करते तो भी कुल 11.04 करोड़ में ही चुनाव लड़ा जाना था. वह भी तब जबकि एक भी रूपया कोई भी प्रत्याशी अपने पास से खर्च न करके सारा खर्चा चंदे में मिले पैसों से करता. बाकी के बचे हुए 8.96 करोड़ रूपयों का अरविन्द ने कहां इस्तेमाल किया?
यह प्रश्न तब उठता है जब यह मानकर चला जाए कि आप पार्टी ने बड़ी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ चुनाव लड़ा होगा और जिसका मुजाहिरा अक्सर अरविन्द केजरीवाल करते भी हैं. अगर बचे हुए 8.96 करोड़ चुनाव में खर्च हुए हैं तो आप पार्टी ने चुनाव आयोग के नियमों से बाहर जाकर चुनाव में खर्च किया है और फिर चुनाव आयोग को प्रत्याशियों की तरफ से दिया जाने वाला खर्च का ब्यौरा भी फर्जी होगा. अगर ऐसा हुआ है तब तो यह भी भ्रष्टाचार ही हुआ है. यदि ऐसा नहीं हुआ है तो जनता के 8.96 करोड़ रूपये कहाँ हैं और उनका क्या इस्तेमाल किया जा रहा है ?
यह तो कम से कम अरविन्द केजरीवाल को बताना ही चाहिए क्योंकि केजरीवाल अपने आन्दोलन के दिनों से ही चुनावी-प्रकिया में सुधारों की वकालत करते रहे हैं और चुनाव पर होने वाले अनावयश्यक-व्यय पर अपना विरोध जाहिर करते रहे हैं.
आन्दोलन से लेकर अभी तक के टीम केजरीवाल के सफ़र को देखकर ये कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि “मक़सद में दरारें पड़ गई हैं.” लोकपाल कहीं नेपथ्य में चला गया है. प्रधानमंत्री, कांग्रेस और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्षों के आवासों पर धरना या बिजली के बढ़े बिलों का भुगतान न करने का सार्वजनिक आह्वान आदि प्राथमिकता के मुद्दे हो गए हैं. भ्रष्टाचार शब्द बीच में कभी-कभार सुनाई तो देता है, लेकिन जिस लोकपाल के जरिए व्यवस्था बदलाव की दलीलें दी जाती रही थीं, वह सरोकार गायब है. केजरीवाल और उनके साथी राजनीतिक दल बनाकर चुनाव के ज़रिए जनता का प्रतिनिधित्व तो हासिल कर चुके हैं, लेकिन इसकी सार्थकता साबित करना अभी बाकी है. राजनीति के दांव-पेंच में कहीं लोकपाल की लड़ाई गौण तो नहीं होगी ? केजरीवाल और उनके साथी भी कब तक साथ रहेंगे, निश्चित नहीं है! क्यूँकि पूर्व में भी इन सबों के बीच अनेकों बिखराव हो चुके हैं. एक आन्दोलन कहीं सियासत के दलदल में धंस कर विलीन ना हो जाए !
(आलोक कुमार पटना में पत्रकार व विश्लेषक हैं, उनसे alokkumar.shivaventures@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.)