Edit/Op-Ed

बिहार में गंगा प्रदूषणः राज्य सरकार की भूमिका

Dr. Devashish Bose for BeyondHeadlines                                                                              

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गंगा प्रदूषण पर अपनी चिंता जाहिर की है. इसके लिए उन्होंने लोगों में जागरूकता का अभाव बताया है. यह बिल्कुल सत्य है, लेकिन राज्य सरकार की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते हैं. गंगा को प्रदूषण से मुक्ति के लिए बिहार सरकार पहल करने के बजाय उसके विनाश की गाथा लिख रही है.

गंगा भारत तथा बांग्लादेश में मिलकर 2,510 किलोमीटर की दूरी तय करती है. यह उत्तरांचल में हिमालय से निकल कर बंगाल की खाड़ी में समा जाती है और भारत के लगभग एक चौथाई भू-क्षेत्र को अपवाहित करती है तथा अपने बेसिन में बसे विराट जनसमुदाय के जीवन का आधार बनती है. गंगा की रक्षा के लिए जन जागरण की आवश्यकता है. लेकिन बिहार सरकार को अपने हिस्से का भी कार्य करना होगा. गंगा की घाटी संसार की उर्वरतम तथा सभ्यता के विकास में अन्यतम रही है. पतित पावनी गंगा की उपासना मां और देवी के रुप में की जाती है. अपने सौन्दर्य और महत्व के कारण एक ओर जहां पुराण और साहित्य में इसका उल्लेख है, वहीं विदेशी साहित्य में भी गंगा नदी की प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णनों की कमी नहीं है.

 गंगा प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है. सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण गंगा का मैदान अपनी घनी आबादी के कारण भी जाना जाता है. आज पूरा देश गंगा के बढ़ते प्रदूषण से चिंतित है. सरकार की अदूरदर्शिता, प्राचीन परम्परा तथा देश का कथित विकास इसके लिए जिम्मेवार है. हमारा लक्ष्य गंगा का अविरल और निर्मल प्रवाह पुनः प्राप्त करना होगा. इस समय गंगा जिन पांच प्रदेशों को स्पर्श करती हुई गंगासागर पहुंचती है, उनमें किसी एक पार्टी की सरकार नहीं है. लिहाजा सभी राज्य सरकारें समवेत होकर गंगा के हित में कार्य नहीं कर रही हैं.

गंगा बक्सर के पास बिहार राज्य में प्रवेश करती है, जहां इसकी मुख्य सहायक नदियां गंडक, बूढ़ी गंडक, सोन, घाघरी तथा कोसी गंगा में मिलती है. बिहार के कई नगरों का सीवेज, औद्योगिक रसायनयुक्त विषैला जल के अलावा गंगा के तटवर्ती तीर्थ, आश्रम व होटलों का मल-मूत्र, कचरा भी गंगा में जाता है.

गौरतलब है कि गंगा के तटवर्ती नगर तथा शहर से प्रतिदिन लगभग 1.3 बिलियन लीटर अपशिष्ट गंगा में गिरता है. गंगा के आसपास की कारखाना, उद्योग इस नदी को प्रदूषित कर रही है. एक अनुमान के अनुसार प्रतिदिन लगभग 260 मिलियन लीटर औद्योगिक अपशिष्ट गंगा में ज़हर घोल रहा है. गंगा में फेंके जाने वाले कुल कचरा में लगभग अस्सी फीसदी नगरों का कचरा होता है. जबकि 15 फीसदी औद्योगिक कचरा है. जहां एक ओर नगरीय कचरा विभिन्न तौर तरीकों से गंगा के प्राकृतिक स्वरुप को नष्ट कर रहा है, वहीं औद्योगिक कचरा विभिन्न रसायनों के माध्यम से गंगा को ज़हरीला बना रहा है.

यही नहीं, बिहार के बक्सर से भागलपुर तक गंगा के आसपास सैकड़ों औद्योगिक इकाइयां स्थित है. इनमें चीनी मिल, कागज उद्योग, उर्वरक कारखाना, तेल शोधक कारखाना, शराब कारखाना तथा चमड़ा उद्योग आदि प्रमुख है. इनसे निकलने वाला कचरा और रसायन युक्त गंदा पानी गंगा में गिरकर इसके पारिस्थितिक तंत्र को भारी नुक़सान पहुंचा रहा है. इन फैक्ट्रियों से निकलने वाले अपशिष्ट में मुख्य रुप से हाइड्रोक्लोरिक एसिड, मरकरी, भारी धातुएं तथा कीटनाशक जैसे खतरनाक रसायन होते हैं. ये रसायन मनुष्यों की कोशिकाओं में जमा होकर जहां बहुत सी बीमारियां उत्पन्न करते हैं, वहीं जल जीवों के अस्तित्व को  समाप्त कर रहे हैं. गंगा किनारे होने वाले दाह संस्कार, श्रद्धालुओं द्वारा विसर्जित प्रतिमा, फूल और पॉलीथिन भी गंगा को बीमार बनाने  में कोई कसर नहीं छोड़  रहे हैं.

विगत कई दशकों में जनसंख्या विस्फोट के कारण गंगा किनारे की आबादी तेजी से बढ़ी है. इस आबादी ने गंगा को साफ रखने की कोई सुध नहीं ली, बल्कि इसे प्रदूषित ही किया. विगत दिनों जब गंगा के नमूनों की जांच की गयी तो प्रति एक सौ मिली लीटर जल में हानिकारक जीवाणुओं की संख्या 50 हजार पायी गयी जो नहाने के पानी के लिए सरकार द्वारा जारी मानकों से 10 हजार फीसदी ज्यादा थी. इस प्रदूषण के कारण ही आज हैजा, पीलिया, पेचिस और टाइफायड जैसी जल जनित बीमारियां बढ़ती जा रही हैं. अभी पॉलीथिन के अलावा बांध और जल विद्युत परियोजना भी गंगा की प्रकृति तथा स्वरुप को परिवर्तित कर रहा है.

वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के अनुसार गंगा विश्व की उन दस नदियों में से एक है, जिन पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है. बिहार के गंगा में मछलियों की लगभग 140 प्रजातियां पाई जाती है. हाल ही में हुए एक अध्ययन में पता चला है कि गंगा को स्वच्छ बनाने में सहायक मछलियों की अनेक प्रजातियां प्रदूषण के कारण विलूप्त हो चुकी है. बिहार की राजधानी पटना से भागलपुर तक गंगा की धारा को डाल्फिन संरक्षण क्षेत्र घोषित किया गया है. लेकिन गंगा प्रदूषण के कारण डाल्फिन समाप्ति के कगार पर है. लिहाजा डाल्फिन, मछली, कछुआ, घोंघा तथा अन्य जल जीवों के संरक्षण की आवश्यकता है, ताकि निर्मल गंगा अविरल प्रवाहित हो सके.

यदि पर्यावरण मंत्रालय के हालिया अध्ययन पर नज़र डालें तो खुलासा होता है कि पटना सहित कई जगहों पर गंगा का पानी नहाने के लायक भी नहीं है. केन्द्र सरकार ने फरवरी माह में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ ही इसे प्रदूषण मुक्त करने की भी घोषणा की थी. इसके तहत राज्यों में सीवेज सिस्टम तथा ट्रीटमेन्ट प्लांट की स्थापना की योजनाएं बनायी गयीं थी. बिहार में पटना, हाजीपुर, बेगूसराय और बक्सर में भी प्रदूषण मुक्ति का खाका खींचा गया था. विश्व बैंक की टीम ने दो बार योजना का प्रारूप तैयार किया, पर काम प्रारम्भ नहीं हो सका. इसमें गंगा किनारे बसे शहरों के नालों के पानी को शुद्ध कर नदी में बहाने की योजना है. लेकिन इस बाबत बनी करोड़ों की योजनाएं फाईलों में धूल चाट रही है.

गंगा प्रदूषण मुक्ति योजना की राशि का 70 फीसदी केन्द्र और 30 फीसदी बिहार सरकार के कोटे से खर्च होना है. परियोजना से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों में समन्वय न होने से इसमें देरी हो रही है. यह हाल अकेले बिहार का नहीं है, अन्य राज्यों की भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है. यदि राज्य सरकार इसी तरह हकीक़त से मुंह फेरती रहे तो शायद ही कभी गंगा स्वच्छ हो पाये. पटना में गंगा के तट पर नीतीश सरकार की मेरीन ड्राइव बनाने की घोषणा सर्वनाश को बुलावा है. अब एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब गंगा का सरस्वती की तरह केवल नाम ही रह जायेगा. पर्यावरणविदों और भूजल विज्ञानियों की चिंता का यही सबसे बड़ा कारण है.

बालू के नाम पर गंगा के तट पर कब्जा कर बैठे माफियाओं ने नदी की सुरम्यता को अशान्त कर दिया है. बड़ी मात्रा में रेत खनन के चलते जल जीवों के सामने संकट पैदा हो गया है. गंदगी के कारण गंगा के पेट की गहराई घट रही है. वर्ष 1996-97 में गंगा की औसत गहराई 15 मीटर थी, जो वर्ष 2004-2005 में घट कर 11 मीटर रह गयी है. जल स्तर में गिरावट निरंतर जारी है. आई.आई.टी कानपुर के एक शोध के अनुसार, पूरे प्रवाह में गंगा लगभग 4 मीटर उथली हो चुकि है. गाद सिल्ट के बोझ से बांधों की आयु घटती जा रही है. विगत एक दशक में बिहार की बूढ़ी गंडक तथा घाघरा क्रमशः 6 से 4 मीटर, बागमती 5 से 3 मीटर कम हो चुकी है.

बिहार के लोग गंगा के पानी का आचमन करने से भी डरते हैं. सदानीरा गंगा वर्षा की बूंदों को अपने आंचल में छुपाकर लम्बी यात्रा के साथ हमारे जीवन चक्र को गतिमान करती है. यह विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण जानी जाती है. वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज़ नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों को जीवित नहीं रहने  देते हैं. नदी के जल में प्राण वायु की मात्रा को बनाए रखने की असाधारण क्षमता है. लेकिन जल प्रदूषण के कारण गंगा का बॉयोलॉजिकल ऑक्सीजन स्तर 3 डिग्री सामान्य से बढ़ कर 6 डिग्री हो चुका है. गंगा जल स्नान, पेय और सिंचाई के योग्य नहीं रहा है. संयुक्त राष्ट्र की रपट में हिम नद की 2030 तक समाप्त होने की संभावना व्यक्त की गयी है. लिहाजा जनजागृति से सरकार को गंगा मुक्ति का अभियान चलाना होगा, अन्यथा हमारी संस्कृति और अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो जायेगा.

हरिद्वार में गंगा पर भीमगौड़ा बांध निर्माण के समय वर्ष 1912 में गंगा मुक्ति का पहला संग्राम शुरु हुआ था. यह गंगा मुक्ति संघर्ष का शताब्दी वर्ष है. दुख इस बात का है कि अविरल और निर्मल गंगा के लिए स्वर्गीय स्वामी निगमानन्द के बाद स्वामी चिदानन्द सरस्वती आदि मुखर हैं. लेकिन इन्हें उत्तराखण्ड से बाहर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और बंगाल में भी गंगा नदी प्रदूषण निवारण आंदोलन चलाना होगा. परंतु अन्य संत, महात्मा तथा मठाधीश इस सवाल पर मौन हैं. जबकि उत्तराखण्ड में गंगा पर बन रहे बांधों के खिलाफ ये ज़बरदस्त आक्रोशित हुए थे. लेकिन फिलहाल गंगा की सफाई के लिए उनका आक्रोश उबाल पर नहीं है. स्वच्छ और निर्मल गंगा के सवाल पर राज्य सरकार उदासीन है और उसका राजहठ बढ़ता जा रहा है.

आस्था के नाम पर हो रहे गंगा प्रदूषण को रोकने, नगर और औद्योगिक कचरा तथा रसायन के रोक थाम के लिए सरकार को जनसहयोग से पहल करना होगा. इसके अलावा बांध और ऊर्जा के नाम पर जल को रोकने की कवायद भी बंद करनी होगी. गंगा के रेत का खनन, कचरों से भरते पेट और करवट लेती नदी से क्षति की जानकारी सरकार ही प्राप्त कर सकती है. प्रकृति और पर्यावरण जीव चक्र पर आधारित है, इस संबंध में लोगों को जागरूक होना चाहिए. उच्चतम न्यायालय द्वारा गंगा के दोनों तट के दो सौ मीटर के अन्दर निर्माण पर रोक लगाये जाने का निर्णयादेश है. लेकिन राज्य सरकार इस ओर उदासीन है. सरकार के पहल से वृहद पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए.

गंगा तट पर औषधी और जड़ी बूटी तथा पुष्प की खेती को बढ़ावा देने के लिए बिहार सरकार को योजना बनाना चाहिए. गंगा नदी के दोनों तट पर जैविक खेती और गौ-पालन को प्रोत्साहित करने के लिए प्रयास करना चाहिए. गंगा में मानव मल मूत्र का प्रवाह नहीं हो, इसके लिए जैविक शौचालयों का निर्माण सरकार का लक्ष्य होना चाहिए. निर्मल और अविरल गंगा के लिए जल शुद्धिकरण संयंत्र स्थापित करने की दिशा में बिहार सरकार को योजना लेना होगा. गंगा के तटों पर प्लास्टिक थैला और बोतलों के इस्तेमाल को निषिद्ध कर कानून बनाने के लिए राज्य सरकार को तैयार होना होगा. पटना में गंगा के तट पर मेरीन ड्राइव के बजाय स्वास्थ्य संवंर्द्धन हेतु मेडिटेशन ड्राइव बनाना होगा. अन्यथा नदी प्रदूषण संकट के कारण हमारी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, परिपाटी, परिभाषा और मान्यता में गतिरोध उत्पन्न हो जायेगा.

(लेखक वरीय पत्रकार और वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन ऑफ बिहार के प्रदेश महासचिव हैं.)

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]