Sachin Kumar Jain for BeyondHeadlines
वर्ष 1997 में कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न को रोकने के मक़सद से भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा दिशा निर्देश दिए थे. फिर इसके आठ साल बाद भारत की संसद ने 2 फ़रवरी 2006 को एक क़ानून दिया था – राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून, 2 फरवरी 2014 को इस क़ानून को अस्तित्व में आये आठ साल हो जायेंगे. जो तभी से भारत का सबसे बड़ा कार्यस्थल खड़ा करता है, जहाँ सबसे ज्यादा महिलायें काम करती हैं.
यह दुनिया में अपनी तरह का बहुत विशेष क़ानून इसलिए माना जाना चाहिए क्योंकि जिस दौर में “राज्य” जिस तेज़ी से अपनी नैतिक और राजकीय जिम्मेदारियों से अलग होकर निजीकरण और खुले व्यापार को बढ़ावा दे रहे थे, तब भारत में एक ऐसा क़ानून बना जो गांव में रहने वाले लोगों को साल भर में कम से कम 100 दिन के रोज़गार की कानूनी गारंटी देने वाला था.
किसी को नहीं पता कि इस रोज़गार गारंटी योजना में काम करने वाली महिलाओं के क्या हालात हैं? मुझे इस क़ानून के प्रावधानों के बारे में भी विस्तार से बात नहीं करना है; मुझे यहाँ केवल महिलाओं के नज़रिए से एक बात करना है. जिस तरह की भाषा का उपयोग आमतौर पर समाज में किया जाता है, उसमे लैंगिक सूचकों का बेतहाशा उपयोग किया जाता है, जो अब लैंगिक उत्पीड़न रोकने वाले क़ानून के मुताबिक स्त्री के खिलाफ होने वाला अपराध माना जाएगा. इस नज़रिए से मनरेगा के कार्यस्थल बिलकुल भी सुरक्षित नहीं हैं. समय से मजदूरी का नहीं दिया जाना और कम मजदूरी का दिया जाना भी तो एक तरह से लैंगिक स्वीकृति के लिए मांग का साधन हो सकता है.
पिछले एक साल में लैंगिक शोषण के खिलाफ के खिलाफ चले संघर्ष से भारत सरकार ने 22 अप्रैल 2013 को महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीडन (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोषण) अधिनियम 2013 बना दिया.
भारतीय दंड संहिता के तहत पहले दर्ज होने वाले मामलों और इस क़ानून में किये गए प्रावधानों में सबसे बुनियादी अंतर “प्रक्रिया” का है. पहले के क़ानून में पुलिस की भूमिका केन्द्रीय थी. अब इस क़ानून के अनुसार पुलिस तक जाने से पहले आंतरिक समिति (हर कार्यस्थल पर नियोजक यानी संस्था या विभाग के भीतर हर स्तर पर बनेगी, जिसमें पीठासीन अधिकारी उस कार्यालय की वरिष्ठ महिला कर्मचारी होगी) प्रकरण का संज्ञान लेगी और उसे जांच करने का पूरा अधिकार होगा.
क़ानून कहता है कि काम के बारे में कोई भी वचन कह कर उत्पीड़न करने, उत्पीड़न के लिए महिला के काम को प्रभावित करने, उत्पीड़न के लिए धमकी, लैंगिक उत्पीड़न के लिए उसे कमतर साबित करना या स्वास्थ्य या सुरक्षा समस्याओं से जुडा अपमानजनक आचरण भी शामिल है.
क़ानून में स्पष्ट है कि शारीरिक संपर्क करना या व्यवहार की सीमायें लांघना, लैंगिक स्वीकृति के लिए मांग या अनुरोध करना, अश्लील साहित्य दिखाना या लैंगिक प्रकृति का कोई शाब्दिक या अशाब्दिक आचरण करना भी शामिल है.
भारत में असंगठित क्षेत्र में 15 करोड़ महिलायें हैं. बड़ा महत्व इस बात का है कि नया क़ानून असंगठित क्षेत्र के कार्यस्थलों पर भी लागू होता है. वहां पर भी समिति बनना चाहिए और स्त्री को अधिकार होना चाहिए कि वह चुप्पी के रस्सी से घुट-घुट कर मर न जाए.
हम जानते हैं इस क़ानून की हत्या की कोशिशें होंगी यानी इसे भी एक अच्छा क़ानून मान कर कोने में रख दिया जाएगा. अब यदि सरकार असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को संविधान के 14, 15 और 21वें अनुच्छेद के बारे में समझाना चाहती है तो उसे महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में इस क़ानून को लागू करने की पहल करना होगी.
क़ानून बने नौ माह गुज़र चुके हैं, नियम भी बन चुका है पर मनरेगा जैसी योजनाओं में इस क़ानून के अंतर्गत क्या व्यावस्था बनेगी, उसकी निगरानी कैसे होगी और महिलाओं को संरक्षण कैसे दिया जाएगा, इसके बारे में इस क़ानून के नियम बहुत कमज़ोर हैं. महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीडन क़ानून और मनरेगा के परस्पर सह-सम्बन्धों पर कोई बात शुरू ही नहीं हुई.
इसके पहले भी जैसे अन्य सरकारी विभागों में विशाखा के तहत व्यवस्था नहीं बनी थी और लैंगिक शोषण जारी थी, तब भी सात सालों तक यह सवाल ही नहीं उठा कि मनरेगा का कार्यस्थल भी तो इस व्यवस्था के तहत आना चाहिए. जब 2005-06 में रोज़गार का क़ानून और नियम बने, तब भी विशाखा के बारे में कोई संज्ञान नहीं लिया गया.
कलेक्टरों से लेकर पंचायत के सरपंचों और सचिवों तक देश में 16720 (अगस्त 2013 तक) प्रशिक्षण हुए, पर यह विषय कहीं शामिल नहीं था कि मनरेगा के तहत काम करने वाली 374.5 लाख महिलाओं को इस कार्यस्थल पर लैंगिक शोषण के खिलाफ अधिकार होगा.
यही वह स्थान है जहाँ गर्भवती और धात्री महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए झूलाघर का प्रावधान है, पर इसे लागू इसलिए नहीं किया गया क्योंकि स्त्री को इन हकों की स्वतंत्रता वह समाज नहीं देता, जिससे हमारे कलेक्टर और सरपंच-सचिव या मैट आते हैं.
व्यावहारिक तौर पर महिला मजदूर भी सामान श्रम करती हैं, पर आखिर में उन्हें पुरुषों की तुलना में 18 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है; क्या यह एक किस्म से लैंगिक शोषण की मांग नहीं है?
रोज़गार के इस क़ानून के तहत कुल 795.9 लाख श्रमिक काम करते हैं, जिनमें से 47.09 प्रतिशत महिलायें हैं. यानी मनरेगा भारत में सबसे बड़ा कार्य स्थल है, जहाँ सबसे ज्यादा महिलायें काम करती हैं और जो कहीं न कहीं शोषण का सबसे बड़ा स्थान भी है, जहाँ मांगने पर भी काम न देने, काम करवा लेने के बाद मजदूरी न देने, कम मजदूरी देने, स्त्रियों के साथ लैंगिक भेदभाव तक की बेतहाशा आशंकाएं हैं.
उल्लेखनीय है कि मनरेगा को आठ साल हो चुके हैं, वहां वेतन और मजदूरी के बारे में अध्ययन हुए पर लैंगिक शोषण के स्थिति के बारे में एक भी अध्ययन सरकारी-गैर सरकारी संस्था ने नहीं किया. इस इसी क़ानून में पहली बार सामाजिक अंकेक्षण को स्थान मिला, पर सामाजिक अंकेक्षण में स्त्रियों के साथ होने वाले व्यवहार का आंकलन ही नहीं होता है. केवल यह देखा जा रहा है कि कितनी महिलाओं को काम मिला.
अब यह देखने का समय है कि समानता और गरिमा से जीवन जीने के अधिकार के तहत उसे लैंगिक उत्पीड़न से मुक्त सुरक्षित वातावरण का अधिकार भी मिलता है कि नहीं! इस क़ानून का सही क्रियान्वयन इसलिए ज़रूरी है ताकि बेटियों के माता-पिता को यह विश्वास हो सके कि समाज में उनकी 5 साल की बेटी के साथ बलात्कार नहीं होगा और वह सर उठाकर जिंदगी जी पाएगी, क्योंकि ज्यादातर मजदूर गांव में झूलाघर के अभाव में अपने साथ अपने बच्चों को काम पर ले जाते हैं.
ज़रा सोचिये कि लैंगिक उत्पीड़न निवारण अधिनियम कहता कि जिस भी असंगठित क्षेत्र में कम से कम 10 कर्मकार या श्रमिक हैं, वहां इस क़ानून के प्रावधान लागू होंगे. मनरेगा का क़ानून कहता है कि जहाँ कम से कम 10 लोग काम मांगेंगे, वहां नया काम खुलेगा (यानी वह एक नया कार्यस्थल होगा). वर्ष 2011-12 में भारत में 53.2 लाख, वर्ष 2012-13 में 80.3 लाख काम चले हैं और वर्ष 2013-14 में मनरेगा के तहत 97.2 लाख काम होंगे, जिसमें अनिवार्य रूप से एक तिहाई महिलायें होंगी ही.
वास्तव में लैंगिक उत्पीड़न रोकने वाला क़ानून इसलिए महत्वपूर्ण नहीं होगा कि इसमें कितने मामले दर्ज होते हैं, बल्कि यदि इसकी प्रक्रिया सही ढंग से चलाई जा सकी तो यह चार करोड़ महिलाओं को लैंगिक शोषण के खिलाफ मानसिक और भावनात्मक रूप से तैयार कर देगी.
अब मनरेगा की गाइडलाइन्स, नियमों, मूल्यांकन के तौर-तरीकों और सामाजिक अंकेक्षण में भी कार्य स्थल पर लैंगिक शोषण की रोकथाम के लिए एक सक्रीय व्यवस्था बनाना होगी ताकि सामान्य व्यवहार का रूप ले चुके लैंगिक शोषण (जिसमें जाति और वर्ग आधारित व्यवस्था से उपजा चरित्र भी शामिल है) की जड़ों तक पंहुचा जा सके और उसे उखाड़ने की एक नज़रिया आधारित कार्यवाही की जा सके.