Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी को ‘वन मैन शो’ बताया है. भाजपा राहुल गांधी को तो विरोधी कहकर दरकिनार कर सकती है, लेकिन पार्टी के ही कभी फ़ायरब्रांड नेता रहे और अब हशिए पर धकेल दिए गए लालकृष्ण आडवाणी का राहुल के सुर में सुर मिलाकर भाजपा में मोदी के बढ़ते प्रभाव पर चिंता ज़ाहिर करना पार्टी नेतृत्व के गले नहीं उतर रहा होगा.
राहुल और आडवाणी राजनेता हैं और उनके बयानों में राजनीतिक नफ़े-नुकसान का गणित ज़रूर होगा. लेकिन मोदी के ‘वन मन शो’ होना दो बातों की पुष्टि करता है.
पहली तो यह कि एक दशक से सत्ता से बाहर चल रही मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के पास ज़मीनी नेताओं का अभाव है और वे एक हवा-हवाई नेता के सहारे ही सत्ता में आने का सपना देख रही है. पार्टी का नरेंद्र मोदी को पहला और अंतिम विकल्प स्वीकार करना यह भी दर्शाता है कि पार्टी का अपना ज़मीनी आधार कमज़ोर हुआ है और अब वह पूरी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं पर निर्भर है. हो सकता है कि हिंदुत्ववादी एजेंडे पर चलकर भाजपा सत्ता के क़रीब पहुँच भी जाए.
लेकिन मोदी के वन मैन शो होने से जो दूसरी बात साबित होती है वह पार्टी को सत्ता से दूर रख सकती है. जिस तरह से बीजेपी के पोस्टरों, नारों, बयानों और अभियानों में मोदी हावी हैं उससे साबित होता है कि पार्टी में अब और कोई जननेता नहीं हैं जो मतदाताओं को पार्टी की ओर खींच सकें. झूठे बयानों, आंकड़ों और कैमरों की कारस्तानी के दम पर अपने गुब्बारे में हवा भर रहे नरेंद्र मोदी की छवि एक ‘फेकू’ के रूप में स्थापित हो चुकी है.
ऐसे में यदि इस गुब्बारे में सच की सूई चुभ गई तो बीजेपी के कभी बड़े क़द रखने वाले नेता भी कुछ नहीं कर पाएंगे. सिर्फ़ एक व्यक्तित्व के इर्द गिर्द पार्टी का वर्तमान और भविष्य दांव पर लगा देना भाजपा के लिए ‘सेल्फ़ गोल’ भी साबित हो सकता है.
सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने नरेंद्र मोदी के विकास के दावों की पोल खोलने के लिए फेक्ट्स चैक (http://www.inc.in/FACTCHECK) अभियान की शुरूआत की है. हो सकता है की मोदी के मीडिया नक्कारखाने में यह तूती की आवाज़ ही साबित हो, लेकिन इससे यह सवाल तो पैदा हो ही जाता है कि ‘फेकू के गुब्बारे’ में अगर सच की सूई चुभ गई तो क्या भारतीय जनता पार्टी के पास कोई प्लान-बी है?
मौजूदा राजनीतिक माहौल में भाजपा के पास शायद ही कोई वैकल्पिक योजना या प्लान-बी है. बल्कि स्वयं बीजेपी अब हर संभव तरीके से यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं हैं. न भाजपा में और न देश में.
लेकिन इस विकल्पहीनता का जनता पर क्या असर हो सकता है? भारत में प्रतिनिधित्व लोकतंत्र हैं. जनता उस नेता को अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजती है जिस पर उसे अपने मुद्दे उठाने का सबसे ज़्यादा विश्वास होता है.
लेकिन जिस तरह से भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रचारित कर रही है, उससे यही साबित हो रहा है कि भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी ही 543 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं और व्यक्तिगत उम्मीदवारों का कोई महत्व नहीं हैं. ऐसे में ‘मोदी लहर’ या ‘हिंदुत्व लहर’ की भावनाओं में जनता के पास भाजपा उम्मीदवारों को अपनी कसौटियों पर परखने के मौक़े बहुत कम ही होंगे. यदि मतदाता पोस्टर पर चिपके मोदी को देखकर भाजपा को वोट देता है तो यह भाजपा के लिए भले फ़ायदेमंद साबित हो जाए लेकिन लोकतंत्र के लिए नुक़सानदेह ही होगा.
बीते एक दशक में भारत में जिस तरह से कांग्रेस के नेतृत्व में चली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में भ्रष्टाचार बढ़ा है, और पिछले दो वर्षों में जिस तरह से भारत की निरंतर आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त हुई है उसने जनता में सत्ताधारी पार्टी के प्रति आक्रोश को बढ़ा दिया है. सरकार विरोधी मतदान होने की प्रबल संभावना में भारतीय जनता पार्टी के पास सत्ता में आने का आसान मौक़ा था. लेकिन अब लग रहा है कि पार्टी ने झूठ और प्रोपगेंडा के आधार पर खड़े एक विवादित व्यक्तित्व को देश पर थोपकर न सिर्फ़ अपनी संभावनाएं कम की हैं बल्कि लोकतंत्र का भी नुकसान ही किया है.
और जहाँ कभी भारतीय जनता पार्टी की रीढ़ रहे आडवाणी की आवाज़ नहीं सुनी जा रही हैं, वहां आम आदमी की सोच को क्या जगह मिल पाएगी? क्या कोई राजनाथ सिंह से पूछ पाएगा कि क्या उनके पास कोई प्लान-बी है?