Afaque Haider for BeyondHeadlines
जैसे-जैसे चुनाव अपने आखरी मरहले को तय कर रहा है. भाजपा की हताशा बढ़ती जा रही है. अब मोदी और भाजपा मुद्दों की राजनीति छोड़कर व्यक्तिगत हमले करने में जुट गई है. हाल ही में भाजपा द्वारा मंज़रेआम पर रॉबट वाड्रा के खिलाफ लाया गया वीडियो इस बात की पुष्टि करता है कि भाजपा अब इस क़दर हताश हो गई है कि वह जीतने के लिए व्यक्तिगत गरिमा को भी लांघने से परहेज़ नहीं किया.
नितिन गडकरी द्वारा दिगविजय सिंह की निजी तस्वीरें सोशल मीडिया पर आम कर देना इसी हताशा की प्रतीक हैं. अगर प्रियंका गांधी के शब्दों में कहा जाये तो भाजपा बौखलाए चूहों की हरकतें कर रही है. इसके अलावा भाजपा नेताओं के ज़हरीले बयान इसकी मज़ीद तस्दीक करतें हैं.
भाजपा की कुल उम्मीदें बिहार और उत्तरप्रदेश पर टिकी हैं, क्योंकि सत्ता का रास्ता इन्हीं राज्यों से होकर जाता है. अटल बिहारी वाजपेयी ने जब केंद्र में सरकार बनायी तो इसमें उत्तरप्रदेश और बिहार का बहुत बड़ा योगदान रहा था. इस बात को भाजपा बहुत अच्छे से जानती है कि दक्षिण भारत और उत्तर पूर्व में इसका खाता भी खुलने वाला नहीं है.
अगर उसके लिए कोई आशा की किरण है तो उत्तरप्रदेश और बिहार में है, लेकिन इस वक्त भाजपा की हालत बिहार और उत्तरप्रदेश दोनों जगह खराब है. उत्तरप्रदेश में भाजपा इस वक्त चौथे नम्बर की पार्टी है. उसके पास ना तो अपना कोई ठोस वोट बैंक है और ना ही काई ज़मीनी स्तर का बड़ा नेता है जो उसकी जीत को सुनिश्चत कर सके.
उसके स्वर्ण वोट बैंक पर बहुत हद तक बहुजन समाज पार्टी ने सेंध मारी कर ली है. उसके कोर वोटर ब्राहमण और राजपूत का झुकाव इस बार मायावती की तरफ है. बसपा ने इस बार सबसे अधिक ब्राहमण और राजपूत को टिकट दिया है. ब्राहमण इस बार जातिय उपेक्षा से भी बुरी तरह बौखलाए हुए हैं. कई दिग्गज ब्राहमणों का टिकट काटा गया और बदला गया है. इनमें यू.पी के महारथी लालजी टंडन, कलराज मिश्र और मुरली मनोहर जोशी तक शामिल हैं.
भाजपा को इस बार सबसे ज्यादा अपने नेताओं से डर है. जो भीतरघात का आसरा देख रहें है. रहा सवाल दलितों और पिछड़ों को तो वह बसपा और सपा के साथ अब भी खड़ें है. सपा की हालत इस वक्त उत्तरप्रदेश में बेहतर है. मुस्लिम और पिछड़ें मतदाताओं के साथ सपा को इस बार कुछ स्वर्ण और दलित मतदाताओं का भी साथ मिलेगा.
एकेले उत्तरप्रदेश की 80 में से 35 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं का दबदबा है खासकर पश्चिम उत्तप्रदेश की 20 लोकसभा सीटों पर जहां मुस्लिम मतदाताओं का एक तरफा झुकाव किसी भी पार्टी का खेल बिगाड़ सकता है, जैसे सहारनपुर, रामपुर, अमरोहा, मुज़फ्फनगर, सम्भल, शामली, कैराना, बिजनौर, मेरठ, बागपत, मुरादाबाद में मुस्लिमों वोटरों की भारी संख्या है जो एकतरफा वोटिंग के सूरत में भाजपा की उम्मीदें पर पानी फेरने के लिए काफी है.
इसके अलावा पूर्वी और केंद्रीय उत्तरप्रदेश में 15 सीटों पर मुस्लिमों का अच्छा खासा प्रभाव है. उत्तरप्रदेश में 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं जो सपा के पिछड़े मतदाताओं के साथ मिलकर सपा का पलड़ा भारी कर देता है. सपा को यादव वोटरों का भरपूर सहयोग हासिल है जो राज्य का सबसे बड़ा पिछड़ा तबका है. जिनका कई निर्वाचण क्षेत्रों पर दबदबा है जेसै मैनपुरी, आज़मगढ़, बदायूं, कन्नौज, फिरोज़बाद, इटावा,जसवंत नगर, सिखोहाबाद आदि.
उत्तरप्रदेश में इस वक्त सपा को मुस्लिमों, पिछड़ों और दबों कुचलों का भरपूर समर्थन हासिल है. जो सपा की चुनावी नैया को पार लगाने और भाजपा की नैया को डुबाने के लिए काफी है. ज़मीनी हकीकत यही है कि उत्तरप्रदेश में मुख्य लड़ाई सपा और बसपा के बीच ही है.
भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी की करिशमाई छवि की बदौलत सबसे अच्छा प्रदर्शन कर 1998 में 182 सीटें जीतीं थीं. इसके बाद भी उसकी सरकार गिर गई थी. भाजपा को उस वक्त उत्तरप्रदेश से सबसे अधिक वाजपेयी के नेतृत्व में 57 सीटें मिली थी, जो मौजूदा परिस्थतियों में नामुमकिन है.
भाजपा के अभी विधानसभा में 25 एम.एल.ए तक नहीं हैं उसका 50 सांसद यूपी से लाना मुंगेरी लाल का सपना है. जिसकी हकीकत धीरे-धीरे उस पर खुलनी शुरू हो गयी. इसलिए उसकी हालत खिसयानी बिल्ली की तरह हो गयी है जो खंभा नोचने लगी है.
रहा सवाल बिहार का तो बिहार में ना तो मोदी की लहर है और ना ही भाजपा की असर है, बल्कि लालू का कहर है. जो साम्प्रदायिक शक्तियों पर बिजली की तरह गिर रही है. राजद, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन के बाद लालू के साथ सूबे का सबसे बड़ा मतदाता वर्ग खड़ा है, जिससे पार पाना भाजपा के बस की बात नहीं है.
बिहार में मुस्लिम मतदाता करीब 17 प्रतिशत हैं, जो इस वक्त लालू के साथ खड़ें हैं. राज्य की करीब दसों सीटों पर इनका अच्छा खासा दबादबा है. खासकर, उत्तर बिहार की सीटों पर. पिछली बार आरजेडी का इत्तिहाद कांग्रेस के साथ ना होने की सूरत में मुस्लिम वोटों में बिखराव आया था. जिसका सीधा फायदा भाजपा और जदयू गठबंधन को मिला था. लेकिन इस बार सूरत बिल्कुल बदल चुकी है.
इस बार राजद का गठबंधन कांग्रेस के साथ है और मुस्लिम वोटों का बिखराव नहीं हो रहा है. 2010 के विधान सभा चुनाव में राजद का सबसे खराब प्रदर्शन रहा जिसमें उसे केवल 22 सीटें मिली और भाजपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा जिसमें उसे 91 सीटें मिलीं. लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि राजद को 19.5 प्रतिशत और भाजपा को 17 प्रतिशत वोट मिले राजद को भाजपा से 2.5 प्रतिशत अधिक वोट मिलें चूंकि भाजपा का गठबंधन जदयू के साथ था इसलिए इसका फायदा भाजपा को मिला जो अब नहीं मिलेगा.
इसी तरह 2010 के संसदीय चुनाव में राजद को सबसे कम 4 सीटें मिली लेकिन 6 ऐसी सीटें हैं जहां राजद की हार महज़ 30,000 से भी कम मतों से हुई और दो सीटों पर 50000 से कम मतों से हुई. बहुत बड़े पैमाने पर सेक्युलर वोट कांग्रेस में भी गया जिसका फायदा सीधे भाजपा और जदयू गठबंधन को हुआ. लेकिन इस बार समीकरण अलग हैं.
इसके अलावा यादव वोटर 12 प्रतिशत हैं, जो बिहार की 15 सीटों पर प्रभावशाली हैं जो पूरी तरह से आरजेडी के साथ जा रहें है. आरजेडी और कांग्रेस को अन्य पिछड़े, दलित, और स्वर्ण वर्ग खासतौर से भूमिहार वोटरों का भी समर्थन हासिल है. मौजूदा उसके सांसद स्वर्ण हैं. कुछ सीटों पर तो लालू एंड कम्पनी का पलड़ा पूरी तरह भारी है, जिनमें किशनगंज, मधुबनी, छपरा, महाराजगंज, अररिया, दरभंगा, औरंगाबाद, सासाराम, मधेपूरा, पाटलीपुत्रा, की सीटें हैं.
भाजपा की सारी उम्मीदें मोदी की लहर पर है. जिसके बल पर वह अपनी नैया पार लगाना चाहती है, लेकिन मौजूदा समय ये लहर बिहार की धरती से नदारद है.
भाजपा को अपने स्वर्ण वोटरों के अलावा पासवान के दलित वोटर और उपेंद्र कुशवाहा के पिछड़े वोटर के सहारे की भी उम्मीद है, लेकिन ये बात जगज़ाहिर है कि पासवान की दलित वोटरों में अब कोई खास पैठ नहीं रह गयी है. उनके दलित वोट बैंक में नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग के द्वारा सेंधमारी कर ली है.
खुद पासवान अपनी सीट नहीं बचा पाये थें, जिसे वह दो दशक से रिकार्ड मत से जीततें आ रहें थें. यही वजह से पासवान कुछ ज्यादा ही हताश हो गयें हैं. ऐसे में पासवान का साथ कितना दलित मतदाता को भाजपा के साथ कर पायेगा जो खुद की सीट ना बचा पाया. रहा कुशवाहा का साथ तो कुशवाहा की बिहार में कोई सियासी ज़मीन नहीं है. उन्हें खुद अपनी सीट जीतने में पसीने छूट रहें हैं.
बहुत हद तक भाजपा के स्वर्ण वोटर कांग्रेस के साथ जायेगें. इसके अलावा आरजेडी ने भी बड़े पैमाने पर स्वर्णों को टिकट दिया है, जिससे भाजपा के स्वर्ण वोटों में सेंधमारी होगी. इसके अलावा भाजपा के कई स्वर्णों नेता अपनी उपेक्षा से नाराज़ हैं, जिनमें सीपी ठाकुर, गिरीराज सिंह, अश्विनी चौबे ने बज़ाब्ता अपना विरोध दर्ज कराया. ऐसी सूरत में भाजपा का बिहार से 6 सीट भी जीत पाना मुश्किल है.
रहा सवाल झारखंड का तो यहां झामुमो और कांग्रेस गठबंधन आदिवासी, दलित और मुस्लिम मतदातओं को अपने पाले में करके सब पर भारी है. यहां पर भी भाजपा की हालत खस्ता है. रही सही कसर इनके पुराने सिपाहसालार बाबू लाल मरांडी पूरा कर देंगे जो भाजपा के ही कोर वोट बैंक में सेंधमारी करेंगे.
फिलहाल कोडरमा और जमशेदपुर की सीटें जे.वी.एम के पास है. अतीत में ये कांग्रेस के साथ जा चुका है. यदि वह दो तीन सिट जीत जाता है तो वह सेक्युलर मोर्चे को ही सर्मथन देगा. यहां भी भाजपा के अरमानों को उनके ही सिपाहसालार पलीता लगा देंगे.
कुल मिलाकर मंज़रनामा यही है कि मोदी की हवा हवाई है. देश के अधिकांश हिस्सों में तो भाजपा और मोदी नदारद हैं, इनमें दक्षिण भारत और उत्तर पूर्व के राज्य हैं. इसके अलाव पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में भी भाजपा का खाता तक नहीं खुलने जा रहा है. ये इलाके लगभग 200 लोकसभा सीटों का प्रतिनिधत्व करतें हैं. जहां भाजपा का चुनाव लड़ना और ना लड़ना बराबर है.
भाजपा सिर्फ 344 सीटों पर लड़ रही है जिसमे पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और बिहार में भाजपा बेहाल है. इसकी कुछ हालत बेहतर गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश में है. इनमें भी वह पूरी सीटें जीत नहीं सकती.
ऐसे में भाजपा का 140 तक पहुंच पाना भी मुमकिन नहीं है. मशहूर पत्रकार शेखर गुप्ता ने अपने इंडियन एक्सप्रेस के लेख में भाजपा के 160 के अंदर सिमट जाने की बात कही है. जब अटल बिहारी वाजपेयी जैसा उदारवादी और लोकप्रिय नेता सन 1996 में 162 और सन 1999 में 182 सीटें लाने के बाद भी सरकार नहीं चला पाता है सरकार गिर जाती है. तो ऐसे में नरेंद्र मोदी के नेतृत्तव में भाजपा कैसे सरकार बना सकती है. जबकि इस वक्त ना तो जदयू साथ है और ना ही बीजद. अतः इस बार भाजपा या मोदी की सरकार केवल सपनों में बन सकती है जिसे वह हर रोज़ बना रहें है.
इस वक्त कांग्रेस की हालत भी बेहतर नहीं है फिर भी वह 120 सीटें तक जीत सकती है. ऐसी सूरत में देश में एक ही विकल्प बचता है वह तीसरे मोर्चे की सरकार…
गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई मिलाकर 283 सीटों तक लाने की संभावना है. अगर कुछ सांप्रदायिक पार्टी को छोड़ दिया जाये तो कांग्रेस के बाहरी समर्थन से तीसरे मोर्चे की सरकार आसानी से बनाई जा सकती है. कांग्रेस की तरफ से भी एक सेक्युलर मोर्चे को समर्थन देने की बात कही जा रही है.
अहमद पटेल ने अपने हालिये दिय गये इंटरव्यू में भी इस बात की पुष्टि की है. कांग्रेस देश के सेक्युलरिज्म को बचाने के लिए एक सेक्युलर मोर्चे को समर्थन दे सकता है. इस वक्त देश में एक तीसरे सेक्युलर मोर्चे की सरकार बनती हुई दिखाई दे रही है. जिसमे क्षेत्रीय पार्टियों की अहम भूमिका रहेगी.