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वो दर्द भरी शाम और अम्मां की मुस्कुराहट…

Sony Kishor Singh for BeyondHeadlines

हमें किसी ने बताया था कि मुम्बई के उपनगर मीरा-भायंदर में सैंकड़ों बुजुर्गों की भूख और बीमारी के कारण बदतर स्थिति है. ये ऐसे सताये हुये माता-पिता हैं, जिनके बच्चे नहीं है या फिर जिनके बच्चों ने उनकी सारी सम्पत्ति हड़प कर दर-बदर कर दिया है.

जांच-पड़ताल के बाद उम्मीद का एक सूरज डॉ. उदय मोदी के रूप में दिखा, जो ऐसे तकरीबन 165 बुजुर्गों को निःशुल्क भोजन कराते हैं और उनके इलाज की व्यवस्था भी करते हैं. लेकिन सैंकड़ों बुजुर्ग अब भी किसी श्रवण के इंतजार में हैं, जो इनको दो वक्त की रोटी मुहैया करा सके.

सत्तर पार इन बुजुर्गों को देखने वाला कोई नहीं है. न सरकार न कोई स्वयंसेवी संस्था… ये इंतजार में हैं तो सिर्फ अपनी मौत के… लेकिन मौत भी इनसे रुठ कर इन्हें बेबसी के दिन दिखाने को मजबूर कर रहा है. उस रोज़ हम इन बुजुर्गों और डॉ. मोदी से मिलने निकले और एक भयावह सच और दर्द लेकर वापस लौटे…

शाम गहराती जा रही थी.हम डॉ. उदय मोदी के क्लीनिक से निकल करकई गली पार कर चुके थे. हमारे गाईड भारत पटेल एक संकरी गली में घुसे. एक छोटे से घर के पास जाकर रूक गये. भारत जी बोले –यही घर है उनका, लेकिन अभी नहीं मिल सकते वो पूजा कर रही हैं और उनके पति बीमार खाट पर पड़े हैं.

मैंने अंदर जाने की जिद की और उनके मना करने के बावजूद ज़बर्दस्ती बिना इजाज़त के उस कमरे में घुसी. बमुश्किल दस बाई छह का कमरा होगा. मुश्किल से सांस ली जा सके शायद उतनी ही हवा थी उस कमरे में.

एक सत्तर पार बुढ़ी औरत सिर झुकाये स्टोव पर कुछ पका रही थी. बग़ल में एक बुजुर्ग नीम बेहोशी की हालत में पड़े थे. मैंने बुढ़ी माई के पास धीरे से जाकर कहा कि आपसे मिलने आये हैं, तो वो अचकचा कुछ बोलीं.

मैं जैसे ही उनके पास ज़मीन पर बैठी. उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया. ऐसा लगा कि मैंने गर्म तवे को छू लिया. लेकिन उस आंच में झुलसने के सिवा कोई चारा नहीं था. मैंने मज़बूती से उनका हाथ थाम लिया और आहिस्ता से पूछा –आपको  तो बहुत तेज़ बुखार है, दवा ली है आपने?

उन्होंने कुछ अस्पष्ट भाषा में कहा –तब तक भारत और मेरे साथी पत्रकार आशुतोष मेरे बग़ल में आ चुके थे. भारत ने उनकी टूटी-फूटी गुजराती को अपनी मराठी मिश्रित हिन्दी के साथ अनुवाद करके बताया.

एक तरफ गर्म हथेलियों की तपिश के साथ बुढ़िया माई के आंसू मुझे पिघला रहे थे तो दूसरी तरफ भारत के अनुवादित शब्द कानों में गर्म शीशा उड़ेल रहे थे. उनके बच्चों ने उन्हें अकेला छोड़ दिया था. स्टोव पर वो ज़रा सा चावल पका रही थीं. वो कह रही थी कि पेट की आग बुझाने के लिये खाना तो बनाना ही पड़ेगा. अपने बूढ़े पति की तरफ इशारा करके वो कह रही थीं –कई दिनों से ऐसे ही पड़े हैं. किसी तरह थोड़ी देर के लिये उठाकर खाना खिलाती हूं और ये फिर सो जाते हैं. ये कहते हुए वो बिल्कुल खो जाती हैं. यह भूलकर कि वो खुद बुखार से तप रही हैं…

सीलन भरे उस कमरे में गर्मी और घुटन महसूस हो रही थी. बदबू से सर फटा जा रहा था, लेकिन गर्म हथेलियों को छोड़ने का मन नहीं हो रहा था. उस वक्त ऐसा लग रहा था कि काश उनके लिये कुछ कर पाती और ये ख्याल आते ही मैंने पूछा –आपको किसी चीज की ज़रूरत तो नहीं, वो बोली नहीं बस कुछ देर बैठी रहो, अच्छा लगता है.

लेकिन वहां बैठना असहनीय हो रहा था. उनकी बदहाली और लाचारी को देखकर दिल का दर्द दोहरा होता जा रहा था. मैंने बात बदलने की कोशिश करते हुये अपना कैमरा निकालकर पूछा –आपकी एक फोटो खींच लूं…?वो मुस्कुराने लगीं और अपने फटे हुये कपड़ो की तरफ इशारा करते हुये कहने लगीं –ऐसे खींचोगी, ये तो बहुत गंदे, पुराने और फटे हुये हैं.

मैंने कहा–कोई बात नहीं आपका मन नहीं है तो नहीं खीचूंगी. मैंने वापस कैमरा अपने बैग में डाल लिया. उनकी आँखों में देखने की बची-खुची मेरी हिम्मत भी जबाव देने लगी थी. मैंने हल्के से हाथ छुड़ाया और फिर मिलने का वादा करके जल्दी से बाहर निकल गई.

मुझे पता था मेरी पीठ पर एक जोड़ी आँखें टीकी हैं जो मेरी बात को सच मानकर मेरा इंतजार करेंगी. बाहर निकलते ही मन उदास हो चुका था. साथी पत्रकार आशुतोष जी ने अपनी तरफ से पेशकश की – अम्मां को दवा खरीदकर दे दूं क्या?

मैंने कहा –अम्मां को दवा की नहीं खाने की ज़रूरत है.खाली पेट दवा खिलाने से भला कैसे ठीक होंगी वो… कुछ देर तक हम तीनों चुपचाप चलते रहें. कुछ देर बाद मैंने चुप्पी तोड़ते हुये भारत से कहा –इनको इतना तेज बुखार है आपलोग इलाज नहीं करवाते हैं.

भारत ने कहा –करवाते हैं मैडम, लेकिन बुढ़ापे में कुछ न कुछ लगा रहता है. अब पगडंडियों को पार कर हमलोग मुख्य सड़क पर आ चुके थे. भारत ने एक ऑटो को हाथ देकर रुकवाया और हम तीनों उसमें सवार होकर फिर एक दर्द को जीने-समझने निकल पड़े.

लगभग 3-4 किलोमीटर के रास्ते को तय करने के बाद ऑटो से उतर कर हम तीनों फिर से एक गली में घुसे. यहां भी भारत हमें रास्ता बता रहे थे. पतली सी गली में जाकर तीसरे मकान के पास भारत ने आवाज़ लगाई, तो अंदर से आवाज़ आई –आ जाओ…

बाहर से ऐसा लग रहा था कि कोई कबाड़ खाना है, लेकिन अंदर पहुंचने पर जिन्दगी सिसकती सी दिखाई पड़ी. एक छोटा सा सीलन भरा कमरा. सामान अस्त व्यस्त, गंदे मैले कुचैले कपड़ों में एक बुढ़ी माँ यहां भी थीं, जिन्होंने मुस्कुराते हुये स्वागत किया.

आओ बेटा, कहते हुये भी उनके चेहरे की खुशी उनके दर्द को छुपाने में नाकामयाब रही. हमने पूछा –कैसी हैं आप, तो उन्होंने मुस्कुराते हुये ही जबाव दिया, तुम जैसे बच्चों के रहते हुये कोई तकलीफ कैसे होगी.

अम्मां की अपनी कोई औलाद नहीं है. भतीजे ने पूरी जिन्दगी की कमाई से खरीदा गया घर ज़बर्दस्ती अपने नाम करवा लिया. उनके पति बीमार हैं, लेकिन जब हमलोग पहुंचे थे तो आस-पास कहीं टहलने के लिये निकले थे. खुद अम्मा बेचारी कहीं नहीं जा पाती, क्योंकि उनके पैरों ने काम करना बंद कर दिया है. किसी तरह सहारा देकर अम्मां को फर्श पर से उठाकर बिस्तर पर बैठाया. वो बहुत खुश हो रही थीं. बोलीं भगवान ने कोई औलाद नहीं दी, लेकिन उदय मोदी जैसा बेटा दिया है, जिसने पूरी जिम्मेदारी निभाई और कभी कोई तकलीफ नहीं होने देता.

अम्मां से आधे घंटे बात होती रही. उनकी दर्द भरी जिन्दगी के बीच उनके कहकहे छोटे से घर में माहौल को संजीदा होने से रोक रहे थे, लेकिन आंखों की नमी बार-बार घर की दीवारों में उतरी नमी से ज्यादा नम दिखाई दे रही थी.

इस बार आशुतोष जी ने कहा –चलिये आपकी एक तस्वीर आपकी बेटी के साथ क्लिक करते हैं. अम्मां के मुख पर हज़ारों दिये की रौशनी तैर गई. तुरंत तैयार हो गई. ढ़ेर सारी फोटो अम्मां की खींची हमने.

उधर शाम, रात में तब्दील हो गई थी. हमारे निकलने का समय हो रहा था, क्योंकि पत्रकारीय दायित्व की समय सीमा कब की खत्म हो चुकी थी, लेकिन मानवीय सरोकार ने हमें रोक रखा था. हम पत्रकार न होकर उस समय अम्मा के बच्चे थे.

हमने मुस्कुराते हुये उनसे विदा लिया. अम्मा के साथ भी एक व्यक्तिगत वादा रहा –फिर से लौट कर आने का, फिर से मिलने का, फिर से फोटो खींचवाने का….

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