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तोड़ दो ऐसी तमाम दिवारें, जो दिलों में दरार पैदा करे

Firdous Azmat Siddiquee for BeyondHeadlines

‘चचा! अस्सलाम अलैकुम का मतलब क्या होगा?’

‘बेटा! ख़ुदा तुमको सलामत रखे.’

के.बी.सी. का अब तक का सबसे मर्मस्पर्शी और ख़ूबसूरत प्रोमो… एक तरफ़ हिन्दुस्तान में दिन प्रतिदिन बढ़ती साम्प्रदायिक चुनौती तो दूसरी तरफ़ दिलों को छू देने वाले विज्ञापन… हाल में आ रहे अम्बूजा सिमेंट का विज्ञापन, जिसमें बच्चा कहता है ‘मेरे चाचा ने कहा है कि मैं इक़बाल के साथ अब खेल नहीं सकता, क्योंकि हमारे बीच दीवार खड़ी हो गई है. आगे बच्चा कहता है कि लेकिन मुझे तो दिखाई नहीं दे रही. फिर बैकग्राउंड से वॉएस ओवर आता है कि ‘तोड़ दो ऐसी दिवारों को जो दिलों में दरार पैदा करे.’

एक तरफ़ दिलों को सकून देने वाले ये विज्ञापन और प्रोमो… जिसे देखने के बाद फ़ख़्र महसूस होता है कि आज भी करोड़ों हिन्दुस्तानी खड़े हैं ऐसी नफ़रत की दिवारें तोड़ने के लिए. लेकिन दूसरी तरफ यह सवाल मन को कचोटती है कि सहारनपुर और मुज़फ़्फरनगर जैसी घटनाएं हमारे देश में ही क्यों होती हैं? सांस्कृतिक समागम के दरवाज़े बंद क्यों हो रहे हैं? क्या अब इनके उदाहरण अब हमें विज्ञापन और टीवी शो मे देखने को भी मिला करेंगे?

पिछले दिनों दिलीप कुमार की आत्मकथा पढ़ रही थी. अपने संस्मरण में एक जगह दिलीप कुमार लिखते हैं कि वो पेशावर से मुम्बई (बम्बई) ट्रेन का सफ़र करके जब उनका परिवार कोलाबा टरमिनल पहुंचा तो वहां पर वेंडर चाय की केतली लेकर आवाज़ लगा रहे थे. कोई आवाज़ देता हिन्दू चाय ले लो… कोई कहता मुस्लिम चाय ले लो. जो उनके लिए थोड़े अचरज की बात थी… ख़ैर, हमारे लिए सुकून की बात है कि आज हमारे देश में कोई ऐसा स्टेशन नहीं जहां चाय के कप में साम्प्रदायिक सोच घुली हो…

आमतौर पर माना जाता है कि गत् 15-20 वर्षों में हिन्दुस्तानी समाज का जितना विषीकरण किया गया है, उतना शायद ही पहले कभी रहा हो. पर दिलीप साहब की इन दो लाइनों के संस्मरण ने बहुत कुछ कह दिया. ख़ास तौर पर जब वो उम्र के ऐसे पड़ाव पर ऐसी बातों को याद कर रहे हैं.

आज बच्चों का खेल, अंतरधर्मीय विवाह और तो और ताज़ातरीन फेसबुक पर आ रहे उन्मादी पोस्ट साम्प्रदायिक सदभावना के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं. किसी भी समाज का ध्रुवीकरण कभी भी रातों रात नहीं होता और न ही कोई साम्प्रादायिक दंगा सिर्फ तत्काल प्रभाव से होता है. पृष्ठभूमि में एक सोची समझी विचारधारा ज़रूर होता है. हालांकि ये ज़रूरी नहीं कि एक साम्प्रदायिक विचारधारा की परिणति हमेशा एक दंगे के रूप में होगी. परंतु ये नामुमकिन है कि एक साम्प्रदायिक दंगा बग़ैर किसी साम्प्रदायिक सोच के हो जाए.

खैर, अपने देश से साम्प्रदायिकता को ख़त्म करना है तो पहले हमें उस सोच को ख़त्म करना होगा, जो तक़रीबन 20वीं सदी से हमारी सोच मे ज़हर घोल रही है.

और इस सोच को कोई एक इंसान, लीडर या संगठन नहीं बदल सकता, बल्कि यह पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है. यह ज़िम्मेदारी हम तब तक पूरी नहीं कर सकते, जब तक एक मिक्स सोसाइटी एक साथ न रहे, जो कि आज के दौर में तक़रीबन न के बराबर होता जा रहा है. विशेषकर शहरी इलाक़ों में घेटोवाइजेशन बड़ी तेज़ी से बढ़ा है. इसका जीता जागता मिसाल हमारी राजधानी दिल्ली से बेहतर कहीं और नहीं मिल सकता.

ऐसे में अम्बूजा सिमेंट और के.बी.सी. का प्रोमो इस कठिन समय के लिए शुभ संकेत ज़रूर है.  एक तरह से उन ज़ख़्मों पर भी मरहम है, जो पापुलर मीडिया द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ करके हम लोगों तक सीरियल के रूप मे पहुंचते हैं. जिसे देखकर हमारी वर्तमान पीढ़ी भ्रमित हो रही है. बेहतर होता कि इन सीरियलों में भी गंगी-जमुनी तहजीब की झलक देखने को मिलता. सोशल मीडिया पर ऐसी कोशिशें की जाती. और इसके लिए हम और आप पहल तो कर ही सकते हैं. और ज़रा सोचिए! जब लहू एक तो हम दो क्यों?

(लेखिका जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सरोजनी नायडू सेण्टर फार वुमेन स्टडीज़ में  असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)

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