Nikhat Perween for BeyondHeadlines
ऑफ़िस जाने के लिए स्टेशन पर मेट्रो का इंतज़ार कर रही थी. मेट्रो आई और जैसे ही मेट्रो में दाखिल हुई, उस चेहरे पर नज़र पड़ी, जिसे कुछ दिन पहले ही मेट्रो में देखा था. मुझ से सीनीयर एक दीदी… हम दोनों ही एक दुसरे को यूं अचानक देख कर मुस्कुराए. फिर एक साथ कह उठे आपको कुछ दिन पहले भी देखा था न इसी वक्त.
बेशक कभी दो लोग एक साथ. एक मौके पर ऐसा कुछ कह दें तो हंसी आना तो लाज़मी है. हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. फिर उन्होंने सवाल किया. आप कहाँ जा रही हो? जवाब में मैंने कहा –ऑफिस और आप?
मैं भी… फिर कुछ परेशान होकर दीदी ने पुछा –अच्छा तुम्हारे पास आईफोन का चार्जर होगा क्या? मैंने जवाब दिया नहीं तो क्यों? अरे नहीं मेरा चार्जर काम नही कर रहा है और मोबाईल भी पुरी तरह डिस्चार्ज है इसलिए.
मैंने अफ़सोस जताते हुए कहा –ओह! चलो कोई बात नहीं. मैं ऑफिस जाकर कुछ जुगाड़ कर लुंगी. तब मैंने सवाल किया अच्छा आपका नाम क्या है? रिया… उन्होंने जवाब दिया औऱ तुम्हारा?
जी मैं निकहत… निकहत प्रवीन… इतना सुनते ही उन्होंने कहा ओह मोह्मदन हो. फिर बिना रुके ही कह डाला –अरे तुम लोगों का तो अभी रोज़ा चल रहा है न? आई मीन, फास्टींग और तुम भी रोज़े में हो क्या?
जैसे ही मैंने कहा -हाँ, उन्होंने झट से अपनी सीट छोड़ दी औऱ मुझे डांटते हुए कहने लगी अरे तो तुम खड़ी क्यों हो बैठ जाओ. अभी पुरा दिन बाकी है थक जाओगी. मैं कहती रह गई नहीं, कोई बात नहीं, आप बैठ जाईए. लेकिन उन्होंने आख़िरकार मुझे बैठा ही दिया और बड़े ही प्यार से कहा –हम भी तो नवरात्रे में 9 दिन जब फास्ट करते हैं तो हालत ख़राब हो जाती है. तुम लोगों का तो 30 दिन होता है. कितना कठिन होता होगा, समझ सकती हुँ. और इसी बहाने भगवान थोड़ा पुन्य मुझे भी दे देगें. है कि नहीं?
मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा –हाँ! क्यों नहीं… चलो मेरा स्टेशन आने वाला है. मैं चलती हूं. गुडलक! दुबारा मिलेंगे. ओके… बॉय… और वो अपने स्टेशन पर उतर गई. लेकिन मेरे ज़ेहन में कई बातें आने लगीं और मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि एक अनजान लड़की जिसे मैं ठीक से जानती भी नहीं और न वो मुझे… फिर भी किसी अपने की तरह डांटकर सीट पर बैठाया. रोज़े में मुझे अपना ख्याल रखने की हिदायत दी. बेशक… यहीं तो है हमारे देश की सबसे बड़ी खुबसुरती. सबसे बड़ी खासियत, जहाँ धर्म, भाषा, संस्कृति सब अलग होते हुए भी हम एक नाम से पुकारे जाते हैं “हिन्दुस्तानी”.
तभी तो कभी दिवाली के दिए साथ मिलकर जलाते हैं तो कभी लोहड़ी की रात साथ होकर अच्छे फ़सल की खुशियां मनाते हैं. कभी होली के रंगो में रंग कर सब एक रंग के हो जाते हैं, तो कभी ईद में साथ बैठ कर सेवय्यों का लुत्फ़ उठाते हैं. कभी रमज़ान मे एक ही दस्तरख्वान पर इफ़्तारी में तरह-तरह के पकवान का मज़ा लेते हैं, तो कभी गुरु नानक जयंती पर इक्ट्ठे होकर लंगर में दिन भर खुब पसीना बहाते हैं.
इतना खूबसूरत तो है हमारा देश. क्या कमी है यहाँ की तहज़ीब में… कहां कोई कमी है लोगों की मुहब्बत में… फिर कुछ लोगो को ऐसा क्यों लगता है कि इस देश को किसी एक मज़हब का देश बनाने में ही अक्लमंदी है. क्या उनकी अक्ल पर ताला पड़ गया है. जो वो हमसे हमारी सबसे बड़ी पहचान हिन्दुस्तानी होने के पहचान को छिनना चाहते है. और हमे सिर्फ़ हिन्दु, मुसलमान, सिख और ईसाई की पहचान में समेट कर रखना चाहते हैं. क्या ऐसा लोग भूल गए हैं कि -“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा… हम बुलबुले हैं इसकी ये गुल्सितां हमारा” और बेशक ये देश हम सबका है, किसी एक का नहीं…