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Reading: सफ़दर अली : मुसलमानों की तरक़्क़ी का आन्दोलन
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सफ़दर अली : मुसलमानों की तरक़्क़ी का आन्दोलन

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 23, 2016
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7 Min Read
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सीतामढ़ी (बिहार): किसी रास्ते पर चलना आसान होता है. मगर चलते-चलते अपना जायज़ा लेना, किसी क़ौम, समाज व देश के बारे में सोचना और अपने सफ़र को लगातार जारी रखना काफी मुश्किल होता है. मगर बिहार के सीतामढ़ी में जन्मे सफ़दर अली अपने सफ़र को मंज़िल तक पहुंचाने में लगातार डटे हुए हैं.

सफ़दर अली मुस्लिम मुद्दों पर काफी प्रखर विचार और मुस्लिम समुदाय के साथ होने वाली नाइंसाफ़ियों पर पैनी नज़र रखते हैं. इन दिनों बिहार की राजनीति में मुसलमानों की भागीदारी पर अध्ययन कर रहे हैं. इसी सोच के साथ सफ़दर ने ‘मुस्लिम तरक्की मंच’ बनाया है, जिसका अहम काम मुसलमानों को दिए गए संवैधानिक अधिकारों के लिए मुसलमानों को जागृत करना और अलग-अलग आन्दोलन द्वारा इसे सुनिश्चित कराना है.

‘मुस्लिम तरक्की मंच’ बिहार में चलने वाले एक आन्दोलन का नाम है. यह आन्दोलन पिछले साल नवम्बर में पूरे बिहार में शुरू किया गया है.

सफ़दर का मानना है कि मुसलमानों को अपने मुद्दों और समस्याओं को लेकर अब प्रखर होना पड़ेगा और ज़रूरत पड़े तो सड़क पर उतरना होगा.

सफ़दर के मुताबिक़ दलितों के मुद्दे को लोग इसलिए सुनने और समझने लगे हैं, क्योंकि दलितों ने सड़कों पर उतरकर अपने अधिकार को मांगा और लोगों को बताया कि हम दबे-कुचले ज़रूर हैं, लेकिन अपने साथ किसी भी क़ीमत पर अन्याय नहीं होने देंगे.

Safdar Ali
 

32 साल के सफ़दर अली एक मज़बूत शैक्षिक पृष्ठभूमि के मालिक हैं. उन्होंने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से बैचलर करने के बाद जामिया के एजेके मास कम्यूनिकेशन एंड रिसर्च सेन्टर से डिप्लोमा इन डेवलपमेंट कम्यूनिकेशन किया. फिर इसके बाद जामिया से ही ह्यूमन राईट्स में एमए की डिग्री हासिल की. सफ़दर एक साल जेएनयू में भी रहे, वहां से उन्होंने उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा की डिग्री हासिल की. फिर इलाहाबाद से बीए-एलएलबी की शिक्षा मुकम्मल की.

सफ़दर अली इन दिनों जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में सूचना एवं संचार प्रबंधक के रूप में काम कर रहे हैं. पब्लिक हेल्थ पर सफ़दर का ख़ास काम है और स्वस्थ्य सम्बन्धी योजनाओं के लिए रणनीति बनाते हैं.

वे बताते हैं कि विदेशी संस्था में काम करने की वजह से इन्हें वीकली ऑफ और छुट्टी भी अच्छीखासी मिल जाती है. सफ़दर इस छुट्टी का इस्तेमाल अपनी सोच को अमली जमा पहनाने के लिए करते हैं. सफ़दर अभी पटना में हैं, साथ ही सामाजिक आन्दोलन खासकर अल्पसंख्यक और दलित मुद्दों से जुड़े रहते हैं.

सफ़दर बताते हैं कि शुरू में सामाजिक कार्यों में मेरा कोई खास ध्यान नहीं रहा. लेकिन आंखों के सामने कई घटनाएं घटी तो इस तरफ़ काम करने का रूझान पैदा हुआ. इसी काम के दौरान लॉ की पढ़ाई करने की ज़रूरत भी महसूस हुई.

Safdar Ali
 

वे बताते हैं, ‘पटना में मेरे घर के सामने ही पासपोर्ट ऑफिस है. लेकिन मैंने देखा कि इस पासपोर्ट ऑफिस में जब हाजी पासपोर्ट बनवाने आते हैं तो फोटो खींचने के दौरान जबरन उनकी टोपी उतरवाई जाती है, जबकि पासपोर्ट फोटोग्राफिक गाईडलाइन्स उनको ऐसा करने की इजाज़त नहीं देता है. हमने इस पर संज्ञान लेते हुए क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी को लिखा पर कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिला. फिर हमने बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग को लिखा. उन्होंने इसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर बताते हुए चिट्ठी लिख दी. अब ये मामला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में है. इसके अलावा कई मामलों में सफ़दर अली ने जनहित याचिका दायर की है. इनकी सबसे चर्चित याचिका ‘लव जिहाद’ को लेकर है.

बकौल सफ़दर, जेलों में मुसलमान और दलितों की संख्या सबसे अधिक है. हाल ही में कई रिपोर्ट भी इस संबंध में छपी हैं. इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए बिहार के कई जिलों में मुस्लिम अधिवक्ता जिनके अन्दर क़ौम का जज़्बा है, उन्हें चिन्हित कर उन्हें अपनी स्वयंसेवी संस्था ‘हेल्प’ से जोड़कर सफ़दर अली ने स्टेट लीगल एक्शन कमिटी बनायी. इस संस्था का काम है फ्री या न्यूनतम खर्च में बिहार के उन जिलों में पीड़ित मुसलमानों को कानूनी सहायता देना है. सफ़दर को इस मुहिम में काफी अच्छी प्रतिक्रिया मिली है. खासकर फॅमिली लॉ के मामले काफी आ रहे हैं, जो दहेज़, अवैध तलाक़ और रेप से सम्बंधित हैं.

सफ़दर बताते हैं कि मुस्लिम लड़कियों का बलात्कार के बाद एफ़आईआर कराना और भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि आरोपी पार्टी पुलिस को खरीद लेती है और पीड़िता को कोई मुआवजा भी नहीं मिलता है. ऐसे में ‘हेल्प’ से जुड़े अधिवक्ता उनकी मदद कर पाते हैं.

सफ़दर अली ने जामिया अलुम्नायी एसोसिएशन, बिहार चैप्टर का भी गठन किया है, जिसका उद्देश्य है जामिया से तालीम हासिल कर चुके छात्रों की ज़िम्मेदारी क़ौम के दूसरे नौजवानों के लिए क्या है? उस पर चर्चा करना और अलग-अलग विभाग में कार्यरत अलुम्नायी में कौम का जज्बा भरना, ताकि वो अपने साथ अपने नौजवानों के लिए कुछ कर सके. जिनके पास समय है वो समय दे सकें, जिनके पास रोज़गार है वो रोज़गार और जो परामर्श दे सकते हैं, वो परामर्श दें.

सफ़दर बताते हैं कि प्रायः देखा गया है कि मुसलमान जब ऊंचे पद पर जाता है तो अपनी क़ौम-मिल्लत को भूल जाता है, ऐसे में ये पहल काम आ सकती है.

सफ़दर का कहना है, ‘मुसलमानों को बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर से सीखने की ज़रूरत है. बाबा साहब ने कहा था कि शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो, लेकिन मुसलमान जैसे ही शिक्षित होता है अपने क़ौम-मिल्लत को भूल जाता है. वो बस खुद को बनाने में पूरी तरह से लग जाता है. जिसे किसी भी हाल में बेहतर नहीं कहा जा सकता.’

हालांकि सफ़दर मानते हैं कि पहले के मुक़ाबिले मुसलमानों में खासकर नौजवानों में क़ौमी बेदारी काफी बढ़ी है. वो जातपात व फिरक़े से ऊपर उठकर अपनी आवाज़ बुलंद करना चाहता है, लेकिन उसे एक अच्छे रहबर की तलाश है. जल्द ही ये छोटे-छोटे पहल हमारे सामाजिक व सियासी बदलाव का रास्ते बनेंगे.

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