दयाशंकर की मायावती पर टिप्पणी और उसके बाद का उन्माद भारतीय राजनीति और राजनीतिक टिप्पणिकारों के खोखलेपन के अलावा और क्या है? एक नेता की दूसरे नेता पर की गई टिप्पणी ये तय करेगी कि जनता किसे अपना प्रतिनिधि चुने?
ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल आपस में मिलकर बड़ी चालाकी से आमजन के मुद्दों को ग़ायब कर रहे हैं. लोगों के ज़हन और राजनीतिक विमर्श दोनों से.
कई सुर्ख़ियों में पढ़ा की दयाशंकर की टिप्पणी ने बसपा में नई जान फूंक दी है. भाजपा के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं.
हो सकता है कि ये सही हो. लेकिन अगर ऐसा है तो ये लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक़ है.
ये बंटवारा और नफ़रत राजनीति को कहां और किस हद तक ले जाएगा?
जितनी चर्चा मायावती के लिए कहे गए ‘अपशब्दों’ पर हो रही है उतनी ही ‘उन आरोपों’ पर क्यों नहीं जो उन पर लगते रहे हैं?
नेता चुनने की एकमात्र कसौटी क्या ये नहीं होनी चाहिए कि वो जनता के कितने काम का है?
दयाशंकर ने जो कहा, किसी भी हालत में स्वीकार नहीं होना चाहिए. वे पार्टी से निकाल दिए गए. गिरफ़्तार भी होंगे.
लेकिन उनके शब्द अगर वोटों का ध्रुवीकरण करते हैं, तो ये लोकतंत्र के लिए नुक़सानदायक ही होगा!