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ऐसे भी तो मनाई जा सकती है सालगिरह

जानिए दिल्ली से सटे गुड़गांव में रह रहे केरल की एक फ़ैमिली ने कैसे मनाई अपने बेटे की पहली सालगिरह

Fatima Farheen for BeyondHeadlines

“मेरे बच्चे का बर्थ-डे मेरे लिए दूसरे बच्चों के चेहरे पर ख़ुशियां देख कर ही पूरा होता”, ये कहना है दिल्ली से सटे गुड़गांव (जो कि अब गुरुग्राम हो गया है) में रहने वाली रिशाना का. रिशाना केरल की रहने वाली हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से दिल्ली के आस-पास रह रही हैं.

दोनों मियां-बीबी प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं. रिशाना एक लॉजिस्टिक कंपनी में काम करती हैं जबकि उनके पति एक ट्रैवल एजेंसी में काम करते हैं.

रिशाना ने एक अंजान शहर में एक यतीमख़ाना खोजकर वहां रहने वाले बच्चों के साथ अपने बेटे की पहली सालगिरह मनाई.

रमज़ान के ही दूसरे हफ़्ते में मैं इफ़्तार की एक दावत में गई थी और इत्तेफ़ाक़ से वहां भी एक बच्चे की सालगिरह थी.

वहां दावत के नाम पर हज़ारों रुपए ख़र्च किए गए. वहां जाते वक़्त मैंने रास्ते में एक फ़क़ीर को सिर्फ़ पानी से रोज़ा खोलते देखा था.

उस वक़्त मुझे बहुत तकलीफ़ हुई थी कि लोगों ने ख़ुशियों को अपने दरवाज़ों के अंदर क़ैद कर  लिया है. मैंने इस बारे में इसी वेबसाइट पर लिखा भी था.

लेकिन रमज़ान के आख़िरी हफ़्ते में मुझे रिशाना के बच्चे की सालगिरह में शरीक होने की दावत मिली. रिशाना ने दिल्ली के ओखला में मौजूद हैप्पी होम नाम के यतीमख़ाने में बच्चों के साथ इफ़्तार कर अपने बच्चे की सालगिरह मनाई.

यतीमख़ाने में रह रही कुछ बच्चियां, वहां के स्टाफ़ और दो-चार लोगों को मिलाकर लगभग 20-25 लोग थे.

लेकिन उस छोटी सी पार्टी में जाकर मुझे ये एहसास हुआ कि हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपनी ख़ुशियों को बस ख़ुद तक महदूद नहीं रखना चाहते हैं, बल्कि दूसरों के चेहरों पर भी मुस्कान देकर अपनी ख़ुशियों को दोगुना कर लेते हैं.

रिशाना का एक यतीमखाना में अपने बच्चे की सालगिरह मनाने का फ़ैसला हो सकता सुनने में बहुत मामूली लगे और शायद कई और लोग भी ऐसा करते होंगे, लेकिन मेरी नज़र में ऐसी मिसालें कम ही हैं.

लेकिन अब जबकि रमज़ान ख़त्म हो गया है और आप जब इसे पढ़ रहे होंगे तो ईद की खुशियों में आप मसरूफ़ होंगे.

मेरे लिखने का मक़सद सिर्फ़ ये है कि हम ज़्यादातर अच्छे काम सिर्फ़ रमज़ान के महीने में ही क्यों करना चाहते हैं.

एक वजह तो शायद ये हो सकती है कि हमें न जाने कब से ये बात बताई जाती रही है कि रमज़ान मे किसी भी नेकी का सवाब न जाने कितने हज़ार गुना ज़्यादा होता है.

लेकिन क्या हम इस नफ़े-नुक़सान से आगे बढ़ कर नहीं सोच सकते हैं.

उस यतीमख़ाने में रहने वाले बच्चों की परेशानियां और ज़रुरतें तो हर दिन एक जैसी होती होंगी लेकिन हमारी निगाहें सिर्फ़ रमज़ान में ही शायद ज़्यादा जाती हैं.

बात सिर्फ़ उस यतीमख़ाने की नहीं है. मेरा तो मानना है कि साल के 365  दिन एक जैसे होते हैं और हमारी कोशिश ये होनी चाहिए कि हमें जब भी मौक़ा मिले हम अपनी ख़ुशियां उनके साथ बांटे जो रहते तो हमारे बीच ही हैं, लेकिन हम उनके बारे में शायद बहुत कम सोचते हैं.

और हम नेक काम करने के लिए सिर्फ़ ऐसा दिन न चुने जिस दिन हज़ार गुना सवाब ज़्यादा मिले बल्कि उस दिन भी  जिस दिन कम मिले.

 

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